पानी में भी आत्मनिर्भरता जरूरी
पानी की कमी का एक कारण शहरीकरण भी है

- बाबा मायाराम
पानी की कमी का एक कारण शहरीकरण भी है। पक्के घरों का निर्माण, बागवानी या रोजमर्रा के सभी कार्यों के लिए ज्यादा पानी की जरूरत है। पानी शहरों में तो होता नहीं है, वहां इसकी आपूर्ति के लिए आसपास के इलाकों के बांधों, नहरों और दूसरे जलस्रोतों का दोहन होता है, जो पानी की किल्लत का कारण बन रहा है। हमें भोजन के साथ पानी में भी आत्मनिर्भरता जरूरी है।
बहुत ज्यादा समय नहीं हुआ, जब मध्यप्रदेश के सतपुड़ा अंचल में बहुत अच्छे हरे-भरे जंगल थे, सदानीरा नदियां थीं, कुएं, तालाब, बाबड़ियां पानीदार थीं। नदी-नालों में पानी की बहुतायत थी। लेकिन अब जंगल कम हो गए हैं, नदियां सूखने लगी हैं, और कुएं और तालाब तो लगभग गायब ही हो गए हैं।
हमारे छुटपन में गांव में मिट्टी के घर होते थे। घर के आगे-पीछे काफी जगह होती थी। खेती-किसानी के काम के लिए घरों में ज्यादा जगह होती थी। घर के पीछे बाड़ी होती थी। बाड़ी में हरी पत्तीदार सब्जियां लगाई जाती थीं। मुनगा, आम, अमरूद, नींबू, इमली के फलदार पेड़ होते थे। भूमि की सतह का पानी नीचे जज्ब होता था और धरती का पेट भरता था।
होशंगाबाद (नर्मदापुरम) जिले के पूर्वी छोर पर स्थित गांव में मेरा बचपन बीता है। हमारे घर कुएं से पानी आता था। कुएं बहुत उथले थे, 15-20 फुट नीचे पानी था। हम नदी में नहाने जाते थे। नदी का नाम था- दुधी था। यानी दूध की तरह मीठा दूधिया पानी। गांव के सभी मवेशी भी वहीं पानी पीते थे।
वहां नदी की रेत तरबूज-खरबूज की खेती होती थी। खीरा और सब्जियां भी होती थीं। झील, तालाब व नदियों के किनारे थोड़ी सी गहराई पर ही पानी निकल आता था। झिरिया ( एक डेढ़ फुट गहराई) खोदकर लोग पानी पीते थे।
इस इलाके में मिश्रित खेती होती थी। मिश्रित खेती में यहां उतेरा पद्धति व बारिश की नमी से खेती होने वाली हवेली पद्धति थी। उतेरा पद्धति में 6-7 प्रकार के अनाजों को मिलाकर खेत में बोया जाता है। फसलें जून में बोई जाती हैं और पकने पर काट ली जाती हैं। इसमें ज्वार, धान, तिली, तुअर और समा, कोदो मिलाकर बोते हैं।
हवेली खेती पद्धति में रबी फसल के लिए ऊंची मेड़ बनाकर बारिश का पानी रोककर रखा जाता था। चार माह पानी भरकर रखने से कई तरह की खरपतवार सड़कर मिट्टी को उर्वर बनाती थी। जमीन सूखने पर पानी निकाल दिया जाता था और इसी नमी में बीज बो दिए जाते थे। इसमें सिंचाई की जरूरत ही नहीं पड़ती थी। लेकिन अब मिश्रित पद्धति तो जंगल वाले व असिंचित इलाके में प्रचलित है, पर हवेली पद्धति खत्म हो गई है।
जैव विविधता में मिट्टी के बाद पानी एक महत्वपूर्ण संसाधन है। जीवन के लिए हवा के बाद पानी बहुत ही महत्वपूर्ण है, जिसे संजोया जाना बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। भोजन की तरह पानी को भी किसी कारखाने व कृत्रिम तरीके से नहीं बनाया जा सकता। यह प्राकृतिक संसाधन है, और इसे बचाया जाना अत्यंत जरूरी है। भोजन के बिना तो 15-20 दिन जिया जा सकता है, पानी के बिना एक सप्ताह तक जीना मुश्किल है। पानी से मानव ही नहीं, समस्त जीव-जगत, पशु पक्षियों का जीवन जुड़ा हुआ है।
मध्य भारत की स्थिति उत्तर भारत से भिन्न है। उत्तर भारत की नदियां हिमजा हैं, वहां वर्षा न भी हो तो उनमें बर्फ पिघलने से पानी आएगा, लेकिन मध्य भारत की नदियां वनजा हैं, यानी वन नहीं होंगे तो ये शुष्क हो जाएंगी। यह हाल यहां की अधिकांश नदियों का हो गया है, यहां की जीवनरेखा कहलाने वाली नर्मदा की ज्यादातर सहायक नदियां सूख चुकी हैं। कभी मध्यप्रदेश के सतपुड़ा अंचल की शक्कर, दुधी, मछवासा, पलकमती आदि नदियां बारह महीनों बहती थीं, जो अब बरसाती हो गई हैं। इससे नर्मदा भी कमजोर हो गई है।
जंगलों में आई कमी का नतीजा तापमान में वृद्धि के रूप में सामने है। कुछ समय पहले तक गांवों में और पर्यटन स्थल पचमढ़ी जैसे ठंडे स्थानों में पंखों की जरूरत नहीं पड़ती थी। अब पंखे-कूलर के बिना रहना मुश्किल है। जंगल पानी के स्रोत तो थे ही, वह तापमान को भी नियंत्रित करते थे।
अब सतपुड़ा पहाड़ों से निकलने वाली नदियां दम तोड़ रही हैं। फसलचक्र परिवर्तन के बाद अब ज्यादा पानी पीने वाली बौनी किस्में आ गई हैं। इस कारण खेत-खेत में नलकूप हो गए हैं, और बिना रोक-टोक पानी उलीचा जा रहा है। तालाब पाट दिए गए हैं। नदियों के स्वाभाविक प्रवाह को रोककर बांध बनाए जा रहे हैं। जो रेत पानी को स्पंज की तरह सोखकर रखती थी, उसका खनन बेतहाशा बढ़ गया है।
हाल के कुछ बरसों में मौसम बदलाव हो रहा है। किसानों की एक बड़ी समस्या है बारिश न होना या बेमौसम बारिश होना। इसलिए भूजल उलीचा जा रहा है। भूजल बरसों में एकत्र होता है, यही हमारा सुरक्षित जल भंडार है। फिर बिना बिजली के उसे ऊपर खींचना मुश्किल है। जितनी गहराई पर पानी होगा, उसे निकालने के लिए उतनी ही ज्यादा ऊर्जा की जरूरत होगी। यानी ज्यादा बिजली लगेगी। पूर्व से आसन्न बिजली का संकट साल दर साल बढ़ते जा रहा है।
पहले हर साल वर्षा ऋ तु में बारिश रिम-झिम यानी धीरे-धीरे होती थी, अब एक साथ हो जाती है। यानी वर्षा के दिन कम हो गए हैं। बारिश की फसलें अब कम हो गई हैं। कोदो, कुटकी, मड़िया, सांवा जैसी फसलें अब नहीं के बराबर हैं। यह पौष्टिक फसलें थीं और बहुत ही कम पानी में हो जाती थीं। तीन पाख दो पानी, पक आई कुटकी रानी जैसी कहावतें थीं। यह डेढ़ महीने की फसल होती थी। इसके औषधीय गुण भी थे।
पानी की कमी का एक कारण शहरीकरण भी है। पक्के घरों का निर्माण, बागवानी या रोजमर्रा के सभी कार्यों के लिए ज्यादा पानी की जरूरत है। पानी शहरों में तो होता नहीं है, वहां इसकी आपूर्ति के लिए आसपास के इलाकों के बांधों, नहरों और दूसरे जलस्रोतों का दोहन होता है, जो पानी की किल्लत का कारण बन रहा है।
हमें भोजन के साथ पानी में भी आत्मनिर्भरता जरूरी है। अब सवाल है पानी कैसे बचाया जाए? इसके कुछ तरीके हो सकते हैं। जैसे भी हो, जहां भी संभव हो, बारिश के पानी को रोकना चाहिए। जहां बारिश का पानी गिरता है, उसे सरपट न बह जाने दें, वहीं रोक दें। स्पीड ब्रेकर जैसी पार बांधकर, उसकी चाल को कम करके धीमी गति से जाने दें, जिससे धरती का पेट भी भरेगा और पानी भी मिलेगा।
इसके साथ, खेत का पानी खेत में रहे, इसके लिए मेड़बंदी की जा सकती है। कंटूर बंडिंग की जा सकती है, यानी मिट्टी के कटाव और मिट्टी में नमी बनाए रखने के लिए मेड़ें बनाईं जा सकती हैं। गांव का पानी गांव में रहे, इसके लिए तालाब और छोटे बंधान बनाए जा सकते हैं। चैक डेम बनाए जा सकते हैं। चौड़ी पत्ती के पेड़, तरह-तरह की झाडियां व घास की हरियाली बढ़ाकर जल संरक्षण किया जा सकता है।
शहरों में जल संचयन (वाटर हारवेस्टिंग) के माध्यम से पानी को एकत्र कर भूजल को ऊपर लाया जा सकता है। इसके माध्यम से कुओं व नलकूप को पुनजीर्वित किया जा सकता है। नदी-नालों में बोरी बंधान बनाए जा सकते हैं। सूखी नदियों को गहरा किया जा सकता है।
इसके साथ ही सबसे जरूरी है खेती में हमें फसलचक्र बदलना होगा। देशी बीज और हल-बैल की गोबर खाद वाली की खेती की ओर मुड़कर मिट्टी-पानी का संरक्षण करना होगा। यानी समन्वित प्रयास से ही हम पानी जैसे बहुमूल्य संसाधन का संरक्षण व संवर्धन कर सकते हैं।
यहां उत्तराखंड में वनों के संरक्षण से पानी के परंपरागत स्त्रोत बचाने का अनूठा उदाहरण देना उचित होगा। यहां अस्सी के दशक में हेंवलघाटी के परंपरागत जलस्त्रोत लगभग सूख चुके थे। लेकिन जब लोगों को गहरा अहसास हुआ कि हमारा बांज-बुरास का जंगल उजड़ रहा है और सदाबहार जलस्त्रोत सूख रहे हैं, उन्होंने इन्हें पुनर्जीवित करने का संकल्प लिया।
इस काम के पीछे चिपको आंदोलन की प्रेरणा थी। जड़धार गांव में जहां पहाड़ी के वनों को लोगों ने संरक्षित किया, बीज बचाओ आंदोलन के जंगल बचाने के प्रयास से वहां के जलस्त्रोत फिर सदानीरा हो गए। जब वन होंगे तो बादल आएंगे, बारिश होगी।
इसी प्रकार, वृक्षारोपण और जंगल बचाने के साथ मेड़बंदी, तालाब बनाने का काम कई जगह हुआ है। राजस्थान व छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में तालाबों की पानीदार परंपराएं रही हैं। राजस्थान में बरसों पुराने तालाब हैं, और आज भी लोग उनका पानी पीते हैं। छत्तीसगढ़ में एक गांव कई कई तालाब हैं। इनके संरक्षण व रख-रखाव के तौर-तरीके भी हैं। इन सबसे सीखकर अगर इस दिशा में समन्वित प्रयास किए जाएं तो जलसंकट का समाधान हो सकेगा।


