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तीन साल में दूसरा किसान आंदोलन

केंद सरकार की वादाखिलाफी और किसान विरोधी नीतियों के खिलाफ न्याय की आवाज उठाए हजारों किसान एक बार फिर दिल्ली की ओर बढ़ने लगे हैं

तीन साल में दूसरा किसान आंदोलन
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केंद सरकार की वादाखिलाफी और किसान विरोधी नीतियों के खिलाफ न्याय की आवाज उठाए हजारों किसान एक बार फिर दिल्ली की ओर बढ़ने लगे हैं। किसान मजदूर मोर्चा (केकेएम) और संयुक्त किसान मोर्चा (गैरराजनैतिक) ने पहले ही 13 फरवरी को दिल्ली कूच का ऐलान कर दिया था, जिसके लिए किसानों ने तैयारी शुरु कर दी थी। इधर केंद्र सरकार ने भी किसानों को रोकने के लिए सीमाओं को सील करने से लेकर सड़कों पर कांटेदार जाल बिछाने और कीलें लगाने जैसी सारी तैयारियां कर ली थीं। पंजाब-हरियाणा के गांवों में लाउडस्पीकर से ऐलान करके किसानों को मार्च में शामिल न होने की परोक्ष धमकियां दी गईं। पुलिस की मॉक ड्रिल करवाई गई कि किस तरह किसानों को रोका जाए।

पंजाब और हरियाणा से दिल्ली आने वाले रास्तों पर सीमेंट और भारी पत्थरों से बैरिकेडिंग कर किसानों को आगे बढ़ने से रोका गया, और किसान फिर भी नहीं रुके, तो उन पर शंभू बार्डर पर आंसू गैस के गोले दागे गए। केंद्र सरकार ने दिल्ली सरकार से बवाना स्टेडियम को अस्थायी जेल में बदलने तक का प्रस्ताव भेजा था, ताकि किसानों को आगे बढ़ने से पुलिस न रोक पाए, तो उन्हें जेल में तब्दील स्टेडियम में कैद कर लिया जाए। हालांकि दिल्ली सरकार ने इस प्रस्ताव को मानने से साफ इंकार कर दिया और कहा कि किसानों की मांगें जायज हैं। दिल्ली सरकार के गृहमंत्री कैलाश गहलोत ने यह भी कहा कि शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन करना प्रत्येक नागरिक का संवैधानिक अधिकार है। इसलिए, किसानों को गिरफ्तार करना गलत है।

दिल्ली सरकार के गृहमंत्री जो कह रहे हैं, केंद सरकार के गृहमंत्री शायद उससे इत्तेफाक नहीं रखते। किसान राजनीति के पुरोधा चौधरी चरण सिंह को भारत रत्न से सम्मानित करने वाली सरकार किसानों का ही नहीं, लोकतांत्रिक अधिकारों का सम्मान भी नहीं कर पा रही है। सबसे बड़ी बात यह कि केंद्र सरकार अपनी पिछली गलती से न कोई सबक ले रही है, न ही उस गलती के लिए पछतावे का कोई भाव दिखाई दे रहा है। गौरतलब है कि 2020 के अंत में किसान आंदोलन शुरु हुआ था। केंद्र सरकार ने किसानों से चर्चा किए बगैर, सारे पहलुओं को जांचे बिना ही तीन कृषि कानून लागू कर दिए थे। इन कानूनों से किसानों से उनकी जमीन और उपज दोनों ही कार्पोरेट के पास चले जाने का रास्ता साफ हो गया था। इससे किसानों का तो नुकसान था ही, देश को भी दीर्घकालिक नुकसान होता।

देश के बेहतर भविष्य की खातिर तब किसानों ने काले कानूनों को वापस लेने के लिए खेतों को छोड़ सड़कों पर उतरने का फैसला लिया था। केंद्र सरकार ने तब कई दौर की बातचीत किसानों से की, लेकिन वह दिखावा ही साबित हुई क्योंकि किसानों की मांगों और उनकी समस्याओं को सरकार ने समझने की कोशिश नहीं की। 2020 से शुरु हुआ आंदोलन 2021 तक चलता रहा। इस दौरान किसानों को कभी आतंकवादी और खालिस्तानी कहा गया, कभी उनके रास्ते में कांटे गाड़े गए, कभी उनके शिविरों में लगे एसी और आंदोलन स्थल पर मिल रहे भोजन को लेकर तंज कसे गए कि किसान ऐश कर रहे हैं। उस आंदोलन में कम से कम 7 सौ किसानों की मौत हो गई।

लेकिन सरकार तब भी विचलित नहीं हुई। सबसे दुखद पहलू यह था कि किसानों के इस आंदोलन पर जनता भी गुमराह नजर आई। आंदोलन के कारण ट्रैफिक में दिक्कतें आ रही हैं, यह तो लोगों को दिखाई दिया, लेकिन यह बात समझ नहीं आई कि कुछ दिनों की दिक्कत सालों साल की बदहाली से बेहतर है। अगर कृषि कानून लागू हो जाते तो देश में हुई हरित क्रांति का कोई अर्थ नहीं रह जाता, क्योंकि खेतों से लेकर गोदामों तक कुछ उद्योगपतियों का कब्जा होता।

किसानों ने तब देश को एक बड़ी बर्बादी की ओर धकेलने से बचा लिया था, और अब फिर से उन्हें उन्हीं कारणों और मांगों के साथ आंदोलन पर मजबूर होना पड़ा है। पिछली बार प्रधानमंत्री मोदी ने साल भर चले किसान आंदोलन के आगे झुकते हुए तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने का ऐलान किया था और कहा था कि शायद उनकी तपस्या में कोई कमी रह गई, तभी वे इन कानूनों का लाभ किसानों को समझा नहीं पाए। मौजूदा हाल देखते हुए लगता है कि प्रधानमंत्री ने अपनी तपस्या में हुई कमी को दूर करने का कोई प्रयास ही नहीं किया। तभी एक बार फिर किसानों को सड़कों पर उतरना पड़ा है, एक बार फिर किसानों पर उन्हीं अत्याचारों को दोहराने की सरकार की तैयारी है और एक बार फिर जनता को किसानों के खिलाफ किया जा रहा है कि वे कानून-व्यवस्था के लिए खतरा हैं।

मोदी सरकार के 10 सालों में किसानों ने कई बार अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शन किया, लेकिन इस दूसरे कार्यकाल में तीन साल के भीतर दूसरी बार किसान सड़कों पर हैं, तो निश्चित ही सरकार की कृषि अर्थव्यवस्था को लेकर समझ और किसानों के लिए संवेदनशीलता में कमी है। इस कमी को तभी दूर किया जा सकता है जब सरकार किसानों से खुलकर चर्चा करे। लेकिन पिछली बार की तरह इस बार भी आंदोलन से पहले किसान प्रतिनिधियों और केंद्र सरकार के नुमाइंदों के बीच बातचीत असफल रही है। एमएसपी की कानूनी गारंटी, कर्जमाफी, भूमि अधिग्रहण कानून 2013 में संशोधन, किसान आंदोलन में मारे गए किसानों के परिजनों को मुआवजा, लखीमपुर खीरी में किसानों को कुचलने वाले अपराधियों को सजा और प्रभावित किसानों को न्याय, ऐसी महत्वपूर्ण मांगें सरकार के सामने किसानों ने रखी हैं। लेकिन न जाने किन कारणों से किसान हितैषी होने का दावा करने वाली मोदी सरकार इन मांगों को पूरा नहीं करना चाहती।

सरकार की कथनी और करनी का इससे बेहतरीन उदाहरण दूसरा नहीं हो सकता। एक ओर चौधरी चरण सिंह और एम एस स्वामीनाथन को भारत रत्न और दूसरी ओर किसानों पर अत्याचार करके उनके विचारों का अपमान। पहले किसान आंदोलन के बाद भाजपा ने उत्तरप्रदेश समेत कई राज्यों के चुनाव जीत लिए, लेकिन क्या आम चुनावों से पहले खड़ा हुआ यह दूसरा आंदोलन भाजपा के प्रदर्शन को प्रभावित कर पाएगा, यह देखना होगा।


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