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न्याय की तलाश और बिहार की जातिगत जनगणना

यह मंडल 2.0 की व्याप्ति के लिए एक ऐसी उपयुक्त स्थिति है जिसमें समाज की निचली जातियों के बीच अधिक सौदेबाजी की शक्ति बढ़ेगी जो भाजपा को अयोध्या में अगले साल की शुरुआत में राम मंदिर के उद्घाटन से लाभ प्राप्त करने के कदम को पहले से ही रोक देगी

न्याय की तलाश और बिहार की जातिगत जनगणना
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- डॉ.मलय मिश्रा

यह मंडल 2.0 की व्याप्ति के लिए एक ऐसी उपयुक्त स्थिति है जिसमें समाज की निचली जातियों के बीच अधिक सौदेबाजी की शक्ति बढ़ेगी जो भाजपा को अयोध्या में अगले साल की शुरुआत में राम मंदिर के उद्घाटन से लाभ प्राप्त करने के कदम को पहले से ही रोक देगी और इससे हिंदी-हिंदू बेल्ट में सत्तारूढ़ पार्टी के वोट बैंक में काफी हद तक सेंध लगेगी।

गांधी जयंती पर बिहार सरकार द्वारा जारी व्यापक जाति सर्वेक्षण (काम्प्रिहेन्सिव कास्ट सर्वे-सीसीएस) ने 1990 के दशक की शुरुआत की यादों को ताजा कर दिया है जो मंडल आयोग की रिपोर्ट जारी होने और अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के लिए आडवाणी के नेतृत्व वाली रथ यात्रा (जो दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के रूप में समाप्त हुई थी) से जुड़ी हुईं हैं। पहला नाम मंडल कमंडल से जोड़ा गया जिसका इस्तेमाल वीपी सिंह सरकार द्वारा ओबीसी को जाति-आधारित आरक्षण देने के लिए मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू करने के प्रयासों का वर्णन करने के लिए किया गया था और जिसे भाजपा की वोट हासिल करने के लिए उभरती हुई हिंदुत्व की प्रचलित धारणा के खिलाफ माना गया था।

विपक्षी दलों और यहां तक कि सत्तारूढ़ एनडीए गठबंधन में शामिल अनुप्रिया पटेल के नेतृत्व वाले 'अपना दल' ने भी छोटे जाति-आधारित समूहों की राष्ट्रव्यापी जाति जनगणना सीसीएस की मांग का प्रस्ताव रखा है। केंद्र में इंडिया गठबंधन के हिस्से के रूप में सत्ता में आने पर कांग्रेस ने वादा किया है कि वह जाति आधारित जनगणना करवाएगी। यदि ऐसा होता है तो स्वतंत्रता के बाद जाति-आधारित जनगणना कराने का यह पहला अवसर होगा। उल्लेखनीय है कि पिछली जाति जनगणना 1931 में की गई थी। याद रखने वाली बात यह है कि पिछले दशक में जनगणना 2011 में की गई थी और 2021 में होने वाली जनगणना को कोविड-19 के कारण स्थगित कर दिया गया था। बाद में जनगणना के प्रति मोदी सरकार की उदासीनता के कारण यह काम टाल दिया गया है।

2014 में सत्ता में आने के बाद से भाजपा ने हिंदू आधार को मजबूत करने और हिंदुओं की सभी जाति समूहों को एक व्यापक तम्बू के नीचे लाने में सक्षम होकर व्यवस्थित रूप से अपनी प्रोफाइल, सदस्यता और मतदान प्रतिशत में वृद्धि की है। भाजपा के वोट शेयर का एक बड़ा हिस्सा खुद को हिंदुओं के हितों की रक्षा करने वाली हिंदू पार्टी के रूप में पेश करने से आता है। इस परिप्रेक्ष्य में पार्टी ने उच्च जातियों-ब्राह्मणों, बनिया, कायस्थों के साथ-साथ ओबीसी और अन्य अत्यंत पिछड़ी जातियों के हितों के एक व्यापक समूह का समर्थन किया है जहां निचली जातियों ने सत्ता-साझेदारी के इंद्रधनुषी गठबंधन का हिस्सा बनने के लिए अपने हितों को छोड़ दिया है। इस रणनीति से भाजपा को 2014 और 2019 के आम चुनावों में लगातार जबरदस्त लाभ मिला है।

हिंदी-हिंदू बेल्ट के तीन राज्यों सहित पांच राज्यों में चुनावों के कुछ महीने बाद लोकसभा का अगला आम चुनाव आ रहा है। बिहार जाति सर्वेक्षण ने दिखाया है कि बिहार की आबादी में 63 प्रतिशत लोग अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और अत्यंत पिछड़ा वर्ग (एक्सट्रीमली बैकवर्ड क्लास-ईबीसी) के हैं जिसमें एससी की साझेदारी19.65 फीसदी है। इस प्रकार एससी और एसटी समूहों के साथ-साथ हिंदू धर्म के व्यापक स्पेक्ट्रम से संबंधित निचली जाति समूहों का कुल प्रतिशत आबादी के 83 फीसदी से अधिक तक पहुंच जाता है जबकि उच्च जातियों को केवल 15.5 फीसदी तक ले जाया जा सकता है। इस वर्गीकरण में 17.7 प्रतिशत से अधिक की कुल मुस्लिम आबादी में से 5 फीसदी उच्च जाति के मुसलमान शामिल हैं।

इस समीकरण ने न केवल भाजपा के चुनावी गणित को बिगाड़ दिया है बल्कि इसका उद्देश्य शैक्षणिक संस्थानों और रोजगार में उनकी आबादी की हिस्सेदारी के अनुपात में उच्च आरक्षण के उद्देश्य से जाति विन्यास को फिर से तैयार करना है। इस प्रकार विपक्षी समूहों के बीच राहुल गांधी के नारे-'जितनी आबादी, उतना हक' को एक प्रतिध्वनि मिली है जिन्होंने राष्ट्रव्यापी जाति जनगणना के लिए भाजपा पर बढ़ते दबाव में अपनी आवाज जोड़ दी है।

सुप्रीम कोर्ट ने सीसीएस पर रोक के खिलाफ फैसला सुनाया है। यह फैसला पटना उच्च न्यायालय के 1 अगस्त के उस आदेश का समर्थन करता है जिसमें राज्य सरकार को केंद्र की आपत्तियों के बावजूद अपनी जाति जनगणना के साथ आगे बढ़ने की अनुमति दी थी। केन्द्र का कहना है कि संविधान की 7 वीं अनुसूची, जनगणना अधिनियम, 1948 और जनगणना नियम 1990 के अनुसार जनगणना करने का अधिकार केवल केंद्र को ही है और इस तरह के सर्वेक्षणों में प्रतिवादी की गोपनीयता का उल्लंघन किया जा सकता है। बिहार सरकार ने इस कवायद को 'सामाजिक सर्वेक्षण' बताते हुए राज्य विधानमंडल की अगली बैठक में सर्वेक्षण के सामाजिक-आर्थिक आयामों को सामने लाने की प्रतिबद्धता जताई है ताकि शासन के लाभ आबंटित करने और अब तक गिने नहीं जाने वाले समूहों के लिए आरक्षण को चिह्नित करने के लिए लक्ष्य तय किए जा सकें।

यह ध्यान देने वाली बात है कि सर्वेक्षण जारी होने के एक दिन बाद नीतीश कुमार सरकार ने राज्य न्यायिक सेवाओं तथा राज्य द्वारा संचालित लॉ कॉलेजों एवं विश्वविद्यालयों में आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए 10 प्रतिशत कोटा आबंटित किया और इस प्रकार भाजपा पर एक तरह की बढ़त हासिल की। भाजपा ने 8 लाख रुपये की वार्षिक सीमा का आय मानदंड तय करते हुए उच्च जातियों को संतुष्ट करने के लिए इस तरह की श्रेणी शुरू की थी। कर्नाटक, ओडिशा, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और हरियाणा जैसे राज्यों ने पहले ही अपने ओबीसी सर्वेक्षण पूरे कर लिए हैं जबकि राजस्थान ने राज्य चुनावों के बाद इसे लाने की घोषणा की है।

राज्य जाति सर्वेक्षणों के सामाजिक-आर्थिक स्थिति के आंकड़े एक बार सामने आ जाने के बाद राज्य सबसे कमजोर समूहों की पहचान कर सकते हैं और उसके मुताबिक नीतिगत उपायों व सशक्तिकरण योजनाओं की रूपरेखा बना सकते हैं। इससे समाज के सबसे निचले वर्ग का अधिक सशक्तिकरण होगा और नई जाति के नेताओं का उदय होगा, जहां नए समूह समाज में अधिक हिस्सेदारी के लिए प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं। जातिगत आकृति के स्पष्ट रूप से सीमांकित होने पर यह कई क्षेत्रीय और उप-क्षेत्रीय नेताओं को सामने लाएगा तथा आधार और मध्यस्थ स्तरों पर गठबंधन की अगुआई करेगा।

यह मंडल 2.0 की व्याप्ति के लिए एक ऐसी उपयुक्त स्थिति है जिसमें समाज की निचली जातियों के बीच अधिक सौदेबाजी की शक्ति बढ़ेगी जो भाजपा को अयोध्या में अगले साल की शुरुआत में राम मंदिर के उद्घाटन से लाभ प्राप्त करने के कदम को पहले से ही रोक देगी और इससे हिंदी-हिंदू बेल्ट में सत्तारूढ़ पार्टी के वोट बैंक में काफी हद तक सेंध लगेगी। इस लिहाज से देखें तो नीतीश कुमार ने आरजेडी के साथ मिलकर 2024 के आम चुनावों में विपक्ष पर बढ़त हासिल करने की भाजपा की योजनाओं पर पानी फेरने की कोशिश की है। कोई आश्चर्य नहीं होगा कि बिहार की राजनीति के इस मास्टरस्ट्रोक से भाजपा नेतृत्व चकित हो गया है।

इस बीच प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विपक्ष पर जाति कार्ड खेलने का आरोप लगाते हुए असंबद्ध बयान दिए हैं। उनका कहना है कि गरीबी सबसे बड़ी जाति है जिसका अर्थ है कि राज्य सरकारों को जाति के नाम पर समाज को विभाजित करने के बजाय गरीबी दूर करने के प्रति अधिक ध्यान देना चाहिए। उनका यह वक्तव्य बिना सोचे-समझे की गई प्रतिक्रिया की तरह लगता है। सत्तारूढ़ पार्टी, अपने स्थानीय और क्षेत्रीय वार्ताकारों के माध्यम से ओबीसी और निचली जाति की बढ़ती मांगों को रोकने में कामयाब नहीं हो सकती है। इस अर्थ में, भाजपा द्वारा वैचारिक रूप से थोपी गई समरसता और निचले तबके के लोगों के लिए समानता संवैधानिक रूप से स्वीकृत समानता का मार्ग प्रशस्त कर सकती है जिसे उच्चतम स्तर पर न्यायिक जांच का टेका लगाया जा सकता है।

डॉ.आंबेडकर ने अपनी किताब 'दी अनाइलेशन ऑफ कास्ट' में दलितों से आह्वान किया था कि वे पूरी तरह से हिंदू धर्म से अपनी पहचान खत्म करें ताकि विरोध की एक नई भाषा विकसित की जा सके और वास्तविक सशक्तिकरण के लिए एक नई आवाज तथा पहचान बनाई जा सके। अफसोस, ऐसा नहीं होने जा रहा है। इसके बजाय धर्म की मान्यता प्राप्त संरचना के भीतर अपनी पहचान हासिल करने की कोशिश में ओबीसी समूहों के और अधिक टुकड़ों में विभाजित होने का निष्कर्ष सच हो जाएगा। हालांकि एक नई पहचान और सामाजिक विकास में समान हितधारक होने की आकांक्षा की इस खोज में ओबीसी को इस बात की सतर्कता बरतनी होगी कि अपनी सुरक्षा, समृद्धि और न्याय के लिए राज्य से अधिक ध्यान देने की उनकी मांग कहीं खो न जाए।
(लेखक सेवानिवृत्त राजनयिक हैं। सिंडिकेट : दी बिलियन प्रेस)


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