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एक कहानी वही पुरानी : 2004 रिपीट!

चुनाव पूरी तरह काल्पनिक भावुक डराने वाले मुद्दों पर लाए जाने की कोशिश हो रही है

एक कहानी वही पुरानी : 2004 रिपीट!
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- शकील अख्तर

चुनाव पूरी तरह काल्पनिक भावुक डराने वाले मुद्दों पर लाए जाने की कोशिश हो रही है। लेकिन जनता 2004 की तरह हकीकत की पथरीली जमीन पर खड़ी हुई है। बेरोजगारी ने पूरे परिवार की कमर तोड़ दी। ऊपर लिखी कहानी हमें एक दोस्त ने सुनाई। उसकी देखी हुई। ऐसी कहानियां घर घर में हो रही हैं। सब छुपाए बैठे हैं। कहते हैं महंगाई भी एक बार बर्दाश्त कर लें। मगर कोई कमाई तो हो।

भाजपा ऐसे ही चुनाव लड़ती है। जब विपक्ष में होती है तो कांग्रेस यह नहीं कर रही वह नहीं कर रही। यह किया वह किया। लोग सुन लेते हैं। मगर जब सत्ता में रहकर भी वह कांग्रेस कांग्रेस करती है तो जनता सत्ता ही पलट देती है।

जी हां, 2004 में ठीक ऐसा ही हुआ था। छह साल की सत्ता के बाद वाजपेयी सरकार या तो काल्पनिक तस्वीर शाइनिंग इंडिया दिखा रही थी या सोनिया गांधी विदेशी मूल की हैं यह बता रही थी। छह साल में किया इसकी कोई बात नहीं। कांग्रेस ने क्या नहीं किया इस पर सारा चुनाव प्रचार।

नतीजा वही हुआ। जनता ने नकारात्मक बातें सुनने से इनकार कर दिया। और सोनिया गांधी की आम आदमी की सरकार पर विश्वास करके उन्हें जीता दिया।
सोनिया ने भी उस विश्वास को कायम रखा और अपनी ही पार्टी और सरकार के ताकतवर लोगों के विरोध के बावजूद किसानों की कर्ज माफी, मनरेगा, महिला बिल, आरटीआई, फूड सिक्योरटी जैसे क्रान्तिकारी काम किए। अर्थ व्यवस्था के उदारीकरण को हरी झंडी देकर देश के मध्यम वर्ग को नई ऊंचाइयों तक पहुंचा दिया। मनमोहन सिंह जिन्हें सोनिया ने प्रधानमंत्री पद के लिए चुना था उनके लिए अभी के कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने बहुत सही कहा कि वे देश के मध्यम वर्ग के हीरो हमेशा बने रहेंगे। मनमोहन सिंह के समय देश में मध्यम वर्ग की संख्या 26 करोड़ तक पहुंच गई थी। जबकि 2004 में जब उन्होंने सत्ता संभाली थी तो देश में मध्यम वर्ग की आबादी केवल 14 प्रतिशत ही थी। मनमोहन सिंह के राज्यसभा से रिटायर होने के मौके पर बोलते हुए खरगे ने यह भी याद किया कि उस समय देश के 27 करोड़ लोगों को भी गरीबी रेखा से बाहर निकाला गया था। मगर उसके बाद रोजगार के अवसर बंद करके मध्यम वर्ग को वापस निम्न मध्यम वर्ग में और निम्न मध्यमवर्ग को फिर से गरीबी रेखा के अंदर पहुंचा दिया गया। भारत में मध्यमवर्ग मूलत: नौकरी पेशा और व्यापारी वर्ग है।

छोटा और मध्यम दर्जे का व्यापारी नौकरी पेशा समुदाय पर निर्भर रहता है। मगर पिछले दस साल में जब नौकरियां ही नहीं रहीं तो व्यापार भी अपने आप ठप्प हो गया। जैसा कि कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में बताया कि देश में इस समय 30 लाख सरकारी पद खाली पड़े हुए हैं। जबकि प्रधानमंत्री मोदी ने वादा किया था कि हर साल दो करोड़ नौकरियां देंगे। मगर अब वे इसकी बात भी नहीं करते हैं। चुनाव प्रचार में वे कांग्रेस यह छीन लेगी, वह छीन लेगी। यहां तक कि भैंस भी छीन लेगी जैसी बात कर रहे हैं। मगर नौकरी की बात नहीं कर रहे हैं। हां जैसे वाजपेयी सरकार ने इन्डिया शाइनिंग कहा था वैसे मोदी सरकार अच्छे दिन कह रही है। न उस समय इन्डिया शाइनिंग किसी को दिखा और न ही अच्छे दिन किसी को दिख रहे हैं।

2004 फिर से रिपीट होता दिख रहा है। मोदी जी बहुत बौखलाए हुए हैं। दस साल में क्या किया वह इसकी बात ही नहीं कर रहे हैं। नौकरी महंगाई निजीकरण करने से शिक्षा व्यवस्था का क्या हाल हो गया। अभी गलगोटिया यूनिवर्सिटी के विद्यार्थियों की एक खबर सामने आने पर सबने देखा कि वे न अंग्रेजी पढ़ पा रहे हैं और न हिन्दी। न किसी चीज का सामान्य ज्ञान है। सबने देखा। ऐसे ही चिकित्सा व्यवस्था को निजी हाथों में सौंपने से क्या हुआ यह उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार में ही मंत्री ओमप्रकाश राजभर ने बताया। उनकी माताजी को वहां लखनऊ के एक बड़े प्राइवेट अस्पताल में भर्ती करवाया गया। पांच लाख का बिल दिया गया और मां का शव। मंत्री राजभर ने प्राइवेट अस्पताल पर कड़े सवाल उठाए। साथ ही उत्तर प्रदेश में सरकारी चिकित्सा व्यवस्था के खराब होने पर भी। मगर आजकल जिम्मेदारी तो कोई लेता नहीं। और अगर जवाब देना जरूरी हो तो अब तो वे नेहरू से भी आगे मुगलों तक चले जाते हैं कि उन्होंने यह काम क्यों नहीं किया। जी हां सारे भक्त जो अपने आपको अब इन्फ्लूएंसर कहने लगे और मीडिया और भाजपा नेता कहते हैं कि 15 वीं शताब्दी में यह काम करना था। और सोलहवीं में यह! यह जो सड़कें बनवाईं। जीटी रोड यह नहीं बनाना थी। बल्कि वह काम करवाना था। चलो भारत को पूर्व से पश्चिम तक जोड़ने वाली काबुल अफगानिस्तान तक जाने वाली सड़क शेरशाह सूरी ने बनवा दी मगर फिर उसकी राजस्व प्रणाली को अकबर को और किसान हितैषी नहीं बनाना था।

मोदी जी कह रहे हैं कि 500 साल में जो कोई नहीं कर पाया वह मैंने कर दिया। इन बातों पर वे वोट चाह रहे हैं। वाजपेयी सरकार ने भी यही किया था। कहा था फील गुड। गरीबी, बेकारी, महंगाई मत देखो। महसूस करो। फील गुड। जनता नहीं कर पाई। उसने कांग्रेस को वोट दे दिया। आज मोदी जी भी यही कह रहे हैं अच्छे दिन। जनता को नहीं दिख रहे। बेरोजगारी ऐसी कभी नहीं थी। बाप भी बेरोजगार बेटा भी बेरोजगार।

एक सच्ची मार्मिक कहानी किसी ने सुनाई। बाप सुबह उठकर बेटे के जेब देखता है कि कुछ है क्या? अभी यह निकल जाएगा। खाली जेब है दिनभर क्या करेगा! उधर बेटा पहले ही पिता की जेब चेक कर चुका है कि इनके पास कुछ है या नहीं। अभी निकल जाएंगे। काम की तलाश में। बिना एक भी पैसे के दिन कैसे निकालेंगे। और कहानी का सबसे दिल दहला देने वाला पार्ट है मां! जो चुपचाप दोनों को देखती है। इधर से उधर जाती है। हाथ मल कर रह जाती है। जो कुछ बचा कर रखती थी। नोटबंदी में सब नोट निकल गए। कुछ छोटे नोट जो बचे थे वह लाक डाउन में घर का खर्च चलाने में चले गए। अब रोटी पानी का इंतजाम करना मुश्किल हो रहा है। घर से निकलते बाप बेटे के हाथ में क्या रखे?

उस मां की बेबसी के बारे में सोचिए! ले दे के उस के पास कुछ गहने बचे हैं। मोदी जी मंगलसूत्र की बात करते हैं। कांग्रेस छीन लेगी! क्या मोदी जी को मालूम है कि भारत की महिलाओं के पास मंगलसूत्र या सोना कितना बचा है? देश के दो बड़े शहरों जयपुर और इन्दौर के सर्राफा बाजार की रिपोर्ट है कि नौकरी जाने और बिजनेस ठप्प हो जाने के कारण मध्यम वर्गीय, निम्न मध्यम वर्गीय परिवारों के लोग बड़ी तादाद में अपने गहने बेचने आ रहे हैं। ये देश के सर्राफा के सबसे बड़े बाजार हैं। यहां की कई रिपोर्टें आईं हैं। जिनमें सोने चांदी का कारोबार करने वालों ने बताया कि गांव देहात की हालत और बुरी है। वहां ग्रामीण जो भी भाव मिल रहा है उस पर अपना जेवर बेच रहा है। सर्राफा व्यापारियों का कहना है कि घर का खर्च चलाने के लिए इससे पहले कभी मध्यम वर्ग, निम्न मध्यम वर्ग ने सोना नहीं बेचा। यह ट्रेंड पहली बार सामने आया है।

मंगलसूत्र लोगों की भावनाओं से जुड़े हैं। इसलिए उसका नाम लेते नहीं हैं। मगर पूछो तो कह देते हैं कि मंगलसूत्र बचे कहां हैं?
चुनाव पूरी तरह काल्पनिक भावुक डराने वाले मुद्दों पर लाए जाने की कोशिश हो रही है। लेकिन जनता 2004 की तरह हकीकत की पथरीली जमीन पर खड़ी हुई है। बेरोजगारी ने पूरे परिवार की कमर तोड़ दी। ऊपर लिखी कहानी हमें एक दोस्त ने सुनाई। उसकी देखी हुई। ऐसी कहानियां घर घर में हो रही हैं। सब छुपाए बैठे हैं। कहते हैं महंगाई भी एक बार बर्दाश्त कर लें। मगर कोई कमाई तो हो। एक भी तनखा घर में नहीं आ रही है। सब एक दूसरे से नजर चुराकर जी रहे हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)


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