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बाड़मेर की रूमा देवी ने अपनी प्रतिभा के दम पर संवारी हजारों महिलाओं की जिंदगी

जीवन में कुछ कर गुजरने की चाह हो तो नामुमकिन काम भी मुमकिन किया जा सकता है। इसके लिए जरूरत है तो बस अपने काम के प्रति उत्साह और मजबूत संकल्प के साथ आगे बढ़ने की

बाड़मेर की रूमा देवी ने अपनी प्रतिभा के दम पर संवारी हजारों महिलाओं की जिंदगी
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जयपुर। जीवन में कुछ कर गुजरने की चाह हो तो नामुमकिन काम भी मुमकिन किया जा सकता है। इसके लिए जरूरत है तो बस अपने काम के प्रति उत्साह और मजबूत संकल्प के साथ आगे बढ़ने की। ऐसा ही मजबूत संकल्प लिए हजारों लाखों लोगों की प्रेरणा बनीं राजस्थान के बाड़मेर के छोटे से गांव की रूमा देवी की आज हर तरफ चर्चा है।

वह सिर्फ आठवीं पास हैं, लेकिन उन्होंने राजस्थान की लगभग 22 हजार महिलाओं को नौकरी देकर आत्मनिर्भर बनाया है।

रूमा के पास खास शैली और प्रतिभा है, जिसके दम पर उन्होंने वह मुकाम हासिल किया कि उनके पास अब प्रतिष्ठित डिजाइनरों की लाइन लगती है। उन्हें टेक्सटाइल फेयर इंडिया 2019 में 'डिजाइनर ऑफ द ईयर' के खिताब से नवाजा जा चुका है। इसके साथ ही रूमा को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने हजारों महिलाओं के जीवन को बदलने के लिए नारी शक्ति राष्ट्रीय पुरस्कार-2018 से भी सम्मानित किया है।

उनमें अति सुंदर कढ़ाई करने की ऐसी प्रतिभा है, जिसने उन्हें फैशन की दुनिया में एक अलग मुकाम दिलाया है।

उनके साथ काम करने वाले डिजाइनरों में अनीता डोंगरे, बीबी रसेल, अब्राहिम ठाकोर, रोहित कामरा, मनीष सक्सेना सहित अमेरिका के कई सम्मानित डिजाइनर शामिल हैं।

वह हाल ही में कौन बनेगा करोड़पति (केबीसी) के मंच पर अमिताभ बच्चन के साथ हॉट सीट पर नजर आई थीं। इस तरह से अब उनकी कहानी दुनिया को पता है।

रूमा राजस्थान की देहाती ग्रामीण गलियों से निकली हैं। उन्होंने कुछ ही वर्षों में सफलता की ऐसी कहानी गढ़ डाली जिससे उनका ही नहीं अन्य महिलाओं का भी जीवन संवर गया।

एक आर्थिक रूप से कमजोर परिवार में जन्मी रूमा ने पांच साल की उम्र में ही अपनी मां को खो दिया। इसके बाद उनके पिता ने दूसरी शादी कर ली और यहीं से उनका असली संघर्ष शुरू हुआ। वह आठवीं कक्षा तक ही पहुंची थीं कि उनके परिवार के सदस्यों ने रूमा का नाम स्कूल से कटाकर उसे घर के कामों में लगा दिया।

रूमा को हर दिन पानी लाने के लिए लगभग 10 किमी. दूर चलकर जाना पड़ता था। महज 17 साल की उम्र में ही उनकी शादी कर दी गई। मगर इसके बाद भी उनका संघर्ष समाप्त नहीं हुआ। शादी के बाद भी गरीबी से उनका पीछा नहीं छूटा।

गरीबी से तंग आकर रूमा ने करीब 10 महिलाओं का एक समूह बनाया और हाथ की कढ़ाई से बैग बनाने को कच्चा माल खरीदने के लिए प्रत्येक से 100 रुपये इकट्ठा किए।

रूमा ने कहा, "हम अपने गांव में इन्हें बेचने गए और हमें बेहतर प्रतिक्रिया मिली। फिर हमने अपने काम को और समूहों में फैलाया और पास के गांवों में भी इन्हें बेचने के लिए गए। फिर परिणाम शानदार रहे।"

उन्होंने कहा, "मेरी दादी ने मुझे यह कढ़ाई सिखाई थी और मैं बस इसे बड़ा बनाने की चाहत रखती हूं।"

बाड़मेर में ग्रामीण विकास और चेतना संस्थान को उनके काम का पता चला और उन्होंने इसकी प्रशंसा की। 2008 में वह इसकी सदस्य बन गई। 2010 में वह इस संगठन की अध्यक्ष बनीं।

रूमा ने बताया, "हमने तब प्रदर्शनियों में भाग लेना शुरू किया और अपने काम का प्रदर्शन किया, जिससे हमें एक पहचान मिली। अब हमारे पास लगभग 22 हजार महिलाएं हैं, जो हमारे साथ 17 से 70 आयु वर्ग के अलग-अलग समूहों में काम कर रही हैं।"

उन्होंने बताया, "इससे पहले जब मैंने काम करना शुरू किया था तो हमारे परिवार में बाहर जाने और काम करने के लिए सख्त प्रतिबंध थे। मुझे घर से बाहर निकलने के लिए अपने परिवार से लड़ना पड़ा।"

उन्होंने बताया कि पहले उन्हें घूंघट में ही काम करना पड़ता था। मगर जैसे-जैसे काम फैलता गया तो उनके परिवार ने उन्हें घूंघट के बिना भी स्वीकार करना शुरू कर दिया।


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