अंग्रेजों से लड़ते 2 बार जेल गए थे आरएसएस संस्थापक डॉ. हेडगेवार
वर्ष 1921 की बात है। पूरा देश महात्मा गांधी के नेतृत्व में चल रहे असहयोग आंदोलन के पीछे एकजुट हो चला था

नई दिल्ली। वर्ष 1921 की बात है। पूरा देश महात्मा गांधी के नेतृत्व में चल रहे असहयोग आंदोलन के पीछे एकजुट हो चला था। डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार, कांग्रेस के उन नेताओं में थे, जो जनता में देशभक्ति की भावनाएं जगाने के लिए उग्र भाषणों के लिए जाने जाते थे। इस आंदोलन में अंग्रेजों ने उन्हें भी गिरफ्तार कर जेल भेज दिया था। एक साल कठोर कारावास की सजा पूरी करने के बाद वह 12 जुलाई 1922 को छूटे थे। मगर, जेल में रहने के दौरान इस बात ने उन्हें परेशान कर रख दिया , हमारी संख्या बड़ी है, फिर भी हम मुट्ठी भर अंग्रेजों के गुलाम क्यों हैं? हम हिंदू ही स्वार्थी, असंगठित और अनुशासनहीन बन गए हैं। शत्रुओं ने हमारे दुगुर्णों का लाभ उठाया। यह दुर्गुण दूर करने होंगे। फिर, उन्होंने तय किया कि अब सारे कार्य छोड़कर सबको संगठित करना है।
जेल में रहने के दौरान आए विचारों ने स्वयंसेवकों की एक मजबूत संस्था के गठन को लेकर उनके पुराने संकल्प को और मजबूत कर दिया था। संघ विचारक दिलीप देवधर आईएएनएस से कहते हैं, कलकत्ता में डॉक्टरी की पढ़ाई और बाद में कांग्रेस में काम करने के दौरान ही डॉ. हेडगेवार ने समर्पित स्वयंसेकों की संस्था बनाने का विचार शुरू कर दिया था। विजयादशमी के दिन वर्ष 1925 में आरएसएस की स्थापना से पहले, ही डाक्टर साहब इस तरह के संगठन बनाने का 5 प्रयोग कर चुके थे।
संघ की स्थापना से पहले बनाए छोटे संगठन
डॉ. हेडगेवार की जीवनी के मुताबिक, नागपुर में कांग्रेस संगठन काम करने के दौरान ही उन्होंने 1919 में नागपुर में विद्यार्थियों का राष्ट्रीय उत्सव मंडल नामक संगठन बनाया था। 1920 में कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन को सफल बनाने के लिए भी उन्होंने स्वयंसेवकों की 'भारत सेवक मंडल' नामक संगठन की स्थापना की थी। कांग्रेस के मित्रों के साथ वह 'नागपुर नेशनल यूनियन' जैसी संस्था बनाकर भी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रचार-प्रसार का काम शुरू कर चुके थे।
आरएसएस की स्थापना से पहले वह युवाओं को छोटे-छोटे दल से जोड़कर
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की लड़ाई लड़ने के लिए प्रेरित करते थे। डॉ. हेडगेवार ने आजादी की अलख जगाने के लिए हिंदी साप्ताहिक पत्र 'संकल्प', मराठी दैनिक 'स्वातं˜य' का संचालन भी शुरू किया था। असहयोग आंदोलन में हिस्सा लेने के दौरान गांधी की गिफ्तारी पर कहा था, गांधी की जय कहना और उधर चैन की बंसी बजाना हमें शोभा नहीं देता। शांति की भाषा बोलकर हम दुर्बलता ढकने का प्रयास न करे। उग्र भाषण देने के कारण हेडगेवार पर मुकदमा चला और बाद में उन्हें एक साल का सश्रम कारावास भी हुआ। 12 जुलाई 1922 को डॉ. हेडगेवार कारागार से छूटे थे। कारागार से छूटने के बाद वह बरसों से दिलोदिमाग में पनप रहे एक नए संगठन के विचार को धरातल पर उतारने के लिए जुट गए।
संघ के लिए प्रस्तावित हुए थे तीन नाम
वर्ष 1925 में विजयादशमी के शुभ मुहुर्त पर उन्होंने घर पर कुछ साथियों को बुलाया और एक नए संगठन की रूपरेखा बनाई। संगठन बन गया मगर अभी नाम रखना बाकी थी। 17 अप्रैल 1926 को उन्होंने संघ का नाम रखने के लिए अपने घर पर फिर बैठक बुलाई। तत्कालीन नागपुर के कार्यवाह की ओर से लिखे एक नोट के मुताबिक, उस बैठक में 26 लोगों ने मिलकर कुल तीन नाम बताए थे। ये तीन नाम थे 1- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, 2- जरिपटका मण्डल 3- भारतोद्धारक मण्डल। इनमें से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नाम चुना गया। आरएसएस की स्थापना के पीछे हेडगेवार का मानना था कि हिन्दुस्थान में हिन्दू समाज की हर बात, हर संस्था तथा आन्दोलन राष्ट्रीय है। कांग्रेस की कथित तुष्टीकरण की नीतियों के कारण भी उनके मन में इस नए संगठन का ख्याल आता था, जिसे उन्होंने बाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के रूप में साकार कर दिखाया।
'भूतबाड़े' से हुआ शाखा का संचालन
सुरुचि प्रकाशन की ओर से डॉ. हेडगेवार पर प्रकाशित किताब के अनुसार, शुरूआत में सप्ताह मे एक दिन लोग चर्चा-भाषण के लिए जुटते थे। लेकिन, स्वयंसेवक बढ़ने लगे तो फिर 'मोहिते के बाड़े' में संघ की शाखा लगने लगी। खंडहर होने के कारण मोहिते के बाड़े को स्थानीय लोग भूतबाड़ा के नाम से जानते थे। शाखा लगने पर यहां रौनक बढ़ने लगी। वर्ष 1930 में देश भर में अंग्रेजों के दमनकारी नमक कानून तोड़ने के लिए सविनय अवज्ञा आंदोलन चला। एक बार फिर महात्मा गांधी के नेतत्व में हुए इस आंदोलन में डॉ. हेडगेवार ने हिस्सा लिया। 22 जुलाई 1930 को यवतमाल सत्याग्रह करने के दौरान अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर नौ महीने के लिए जेल भेजा था।
संघ की शाखा में पहुंचे थे महात्मा गांधी
आर्थिक मुश्किलें भी डॉ. हेडगेवार की राह में रोड़े नहीं डाल सकीं। एक बार उन्हें मदन मोहन मालवीय ने आर्थिक सहायता का आग्रह किया तो उन्होंने कहा, मुझे धन नहीं मनुष्य चाहिए।' डॉ. हेडगेवार के प्रयासों से संघ की संरचना और ताकत बढ़ती रही। वर्ष 1934 के दिसबर में वर्धा में जमनालाल बजाज के बगीचे में सघ का शिविर लगा था। तब महात्मा गांधी भी उसे देखने आए। इस दौरान संघ के शिविर में व्यवस्था, अनुशासन, परिश्रम और अपने खर्च से स्वयंसेवकों के आने और रहने तथा भेदभाव रहित वातावरण देखकर वह हैरान रह गए थे। तब महात्मा गांधी ने भी संघ की प्रशंसा की थी।
निधन से पहले खराब हुआ था स्वास्थ्य
लगातार संगठन कार्यों में व्यस्तता के बीच डॉ. हेडगेवार का स्वास्थ्य खराब रहने लगा। वर्ष 1940 में नागपुर में संघ शिक्षा वर्ग लगा था। मगर वह स्वास्थ्य खराब होने के कारण मौजूद नहीं रह सके। उनकी जिद पर डॉक्टरों ने स्वयंसेवकों से मिलने की अनुमति दी। तब एक जून 1940 को वह कुर्सी पर बैठे-बैठे स्वयंसेवकों से मिले। तब उन्होंने संबोधन में कहा था, यह परम सौभाग्य का समय है। मैं यहां संपूर्ण हिंदू राष्ट्र की प्रतिमा यहां देख रहा हूं। 21 जून 1940 को उनका निधन हो गया।
जब शादी करने से किया इन्कार
सुरुचि प्रकाशन से प्रकाशित डॉ. हेडगेवार की जीवनी के मुताबिक उनका जन्म एक अप्रैल 1889 को महाराष्ट्र के नागपुर में हुआ था। उनके परिवार के लोग मूलत: आंध्र प्रदेश के निवासी थे। पिता बलिराम पंत हेडगेवार वेद विद्या के जानकार थे तो मां रेवती बाई घरेलू महिला थीं। उनके दो भाई और तीन बहनें थीं। जब डॉ. हेडगेवार 11 वर्ष के थे, तभी नागपुर में प्लेग की महामारी फैलने पर उनके माता-पिता का निधन हो गया था। हेडगेवार बाद में डॉक्टरी की पढ़ाई करने के लिए कोलकाता गए थे। वहां के नेशनल मेडिकल कॉलेज से मेडिकल की पढ़ाई करने के बाद नागपुर लौटे तो न नौकरी की न दवाखाना खोला। वह कांग्रेस से जुड़ गए। उनके भाई रोजी-रोटी का सुझाव देते रहे। विवाह करने का परिवार ने दबाव डाला तो यह कहकर इन्कार कर दिया-मैने आजन्म देश सेवा का व्रत लिया है। मेरे जीवन में परिवार का महत्व नहीं है।


