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बड़े बदलाव ला सकता है स्वास्थ्य का अधिकार कानून

स्वास्थ्य सेवाओं को एक अधिकार बनाना संविधान में दिए जीवन के मौलिक अधिकार, स्वास्थ्य पर निर्देशक सिद्धांतों और अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार सम्मेलन को ध्यान में रखते हुए हैं

बड़े बदलाव ला सकता है स्वास्थ्य का अधिकार कानून
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- पवित्र मोहन

भारत के संविधान के अनुच्छेद 47 और अनुच्छेद 21 के अनुसार स्वास्थ्य और कल्याण में अधिकारों और समानता की सुरक्षा और पूर्ति प्रदान करने के लिए राज्य के इरादे को स्पष्ट करता है। यह आगे निर्दिष्ट करता है कि राज्य का उद्देश्य इस अधिनियम के माध्यम से राज्य के सभी निवासियों को मुफ्त, सुलभ और न्यायसंगत स्वास्थ्य सेवा प्रदान करना तथा स्वास्थ्य देखभाल की खोज में किए गए खर्च को उत्तरोत्तर कम करना है।

स्वास्थ्य सेवाओं को एक अधिकार बनाना संविधान में दिए जीवन के मौलिक अधिकार, स्वास्थ्य पर निर्देशक सिद्धांतों और अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार सम्मेलन को ध्यान में रखते हुए हैं। भारत ने इस पर हस्ताक्षर किए हैं। स्वास्थ्य सम्बन्धी सुविधाएं देना राज्य की जिम्मेदारी है और यह अधिकार प्राप्त हो रहा है या नहीं, यह सुनिश्चित करने के लिए एक कानूनी और नीतिगत प्रणाली है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति के मसौदे में राइट-टू-हेल्थ को एक न्यायसंगत अधिकार बनाने की प्रतिबद्धता शामिल थी लेकिन अंतिम संस्करण में इस प्रतिबद्धता को इस आधार पर बाहर रखा गया था कि स्वास्थ्य राज्य का विषय है।

राजस्थान का स्वास्थ्य का अधिकार (आरटीएच) अधिनियम सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज (यूएचसी) सुनिश्चित करने की दिशा में एक कदम है जो किसी को भी उसकी भुगतान करने की क्षमता के बावजूद निशुल्क और गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाओं का अधिकार देने का वादा करता है। यह भारत की राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रतिबद्धता का भी हिस्सा है। इसमें यह सुनिश्चित करने की क्षमता है कि लोग कर्ज के जाल में पड़े बिना सम्मान के साथ अपने स्वास्थ्य के देखभाल सम्बन्धी आवश्यकताओं का प्रबंधन करने में सक्षम हों। भारत में लोगों की गरीबी के मुख्य कारणों में स्वास्थ्य देखभाल पर व्यय भी शामिल हैं।

विधेयक में सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणालियों को मजबूत बनाने की क्षमता रखने वाले पांच प्रावधान हैं। सर्वप्रथम, सभी सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं में स्वास्थ्य सेवा (निवारक, प्रोत्साहक, उपचारात्मक और पुनर्वास के रूप में परिभाषित) को मुफ्त बनाने की प्रतिबद्धता है। दूसरे, स्वास्थ्य के लिए मानव संसाधन नीति तैयार करने की प्रतिबद्धता है जिसका उद्देश्य सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं के सभी स्तरों पर कुशल कर्मचारियों की उपलब्धता की व्यवस्था को मजबूत करना है। तीसरा, यह सभी सरकारी सुविधाओं के लिए देखभाल के गुणवत्ता मानकों को स्थापित करने और निगरानी करने के लिए प्रतिबद्ध है। चौथा, आपातकालीन देखभाल की स्थिति में यह सरकारी और निजी सभी सुविधाओं तक मुफ्त पहुंच सुनिश्चित करने के लिए प्रतिबद्ध है। अंत में, इस अधिनियम के दायित्वों को पूरा करने के लिए आवश्यक संसाधनों को गतिशील करने की प्रतिबद्धता है।

लोगों के स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण इस चौथे प्रावधान के कारण ही डॉक्टरों और उनके संगठनों द्वारा इस अधिनियम का अभूतपूर्व और अप्रत्याशित विरोध हुआ। डॉक्टरों, विशेष रूप से निजी क्षेत्र में काम करने वालों ने महसूस किया कि आपात स्थितियों का प्रबंधन करने के लिए उन्हें मजबूर किया जाएगा, भले ही वे उन्हें प्रबंधित करने के लिए सुसज्जित न हों। इस आपात स्थिति के प्रबंधन में उनको वित्तीय नुकसान भी उठाना पड़ेगा। अंतत: सरकार ने सभी आपात स्थितियों के लिए प्रतिपूर्ति करने की प्रतिबद्धता को स्वीकार किया तथा इस दायित्व को जिनके पास 50 से अधिक बिस्तरों वाले अस्पतालों तक तथा किसी भी रूप में सरकारी सब्सिडी से लाभान्वित हुए हैं, उन तक सीमित कर दिया।

विधेयक इस प्रस्तावना के साथ शुरू होता है जो भारत के संविधान के अनुच्छेद 47 और अनुच्छेद 21 के अनुसार स्वास्थ्य और कल्याण में अधिकारों और समानता की सुरक्षा और पूर्ति प्रदान करने के लिए राज्य के इरादे को स्पष्ट करता है। यह आगे निर्दिष्ट करता है कि राज्य का उद्देश्य इस अधिनियम के माध्यम से राज्य के सभी निवासियों को मुफ्त, सुलभ और न्यायसंगत स्वास्थ्य सेवा प्रदान करना तथा स्वास्थ्य देखभाल की खोज में किए गए खर्च को उत्तरोत्तर कम करना है।

आलोचक कहेंगे कि यह वक्तव्य ऐसे समय में आया है जब स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण एक बढ़ती हुई वास्तविकता है और राज्य अपने नागरिकों की स्वास्थ्य देखभाल की जिम्मेदारी लेने में कोई दिलचस्पी नहीं रखते या लगातार असमर्थ दिखाई दे रहे हैं। फिर भी, इस स्थिति में और जब स्वास्थ्य देखभाल तक पहुंच में असमानताएं बढ़ रही हैं, इस तरह के इरादे के बयान का अपना महत्व है। यह कहता है कि एक समाज के रूप में हम नागरिकों की स्वास्थ्य देखभाल तथा असमानताओं के बारे में चिंतित हैं और हम उन्हें दूर करने के लिए उस पर एक साथ निशाना साधेंगे। जब सही ढंग से संवाद किया जाता है तो इस तरह के बयानों में सरकारों और लोगों के बीच विश्वास और एकजुटता बनाने की क्षमता होती है। उन लोगों के साथ भी जिनके पास साधन हैं और उन लोगों से भी जिनके पास साधन नहीं हैं। यह बताता है कि हम जनता की परवाह करते हैं।

जब इस अधिनियम को अच्छी तरह से स्वीकार तथा अच्छी तरह से लागू किया जाएगा तो इससे प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा में बहुत कम लागत पर जनता की 80 प्रतिशत से अधिक स्वास्थ्य देखभाल आवश्यकताओं को संबोधित करने की क्षमता रहेगी। गुर्दे की बीमारी या स्ट्रोक का मामला लें। एक स्वस्थ जीवन शैली को बढ़ावा देना, उच्च रक्तचाप का जल्दी पता लगाना और प्रारंभिक उपचार- ये सभी वे उपाय हैं जो प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा स्तर पर प्रदान किए जा सकते हैं और प्रदान किए जाने चाहिए। जब ऐसे उपाय और देखभाल उपलब्ध नहीं होते हैं तो अनियंत्रित और उपचारहीन उच्च रक्तचाप, गुर्दे की बीमारी और स्ट्रोक की ओर जाता है। ये ऐसी स्थितियां हैं जिनमें तीसरे स्तर की देखभाल की आवश्यकता होती है और उपचार का खर्च बढ़ जाता है। टीकाकरण द्वारा बीमारियों की रोकथाम एक और उदाहरण है जहां प्राथमिक देखभाल प्रणाली कम लागत पर लोगों को स्वस्थ रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

इस बात के पर्याप्त और उचित सबूत हैं कि जिन देशों और समाजों में मजबूत प्राथमिक देखभाल प्रणाली है वहां उन देशों की तुलना में कम खर्च में अच्छे स्वास्थ्य परिणाम मिलते हैं जिनके पास कमजोर प्राथमिक देखभाल प्रणाली है। मुख्य रूप से महंगे अस्पतालों पर आधारित प्राथमिक स्वास्थ्य प्रणालियां बेहद महंगी हो जाती हैं।
राजस्थान और भारत में, सरकार प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं (उप-केंद्रों, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों) के एक बड़े नेटवर्क की स्वामी और प्रबंधक है जो निवारक, प्रोत्साहक और उपचारात्मक सेवाएं प्रदान करती है। सरकार प्रबंधित ये प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएं निवारक और प्रोत्साहक देखभाल का अच्छा काम करती हैं (शिशु अवस्था व बच्चों के 90 प्रतिशत से अधिक के टीकाकरण के साधन सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं द्वारा वितरित किए जाते हैं) लेकिन यह उच्च रक्तचाप का उपचार जैसे प्राथमिक उपचारात्मक देखभाल प्रदान करने के क्षेत्र में अच्छा काम नहीं कर रहे हैं।

राजस्थान में मुफ्त दवा योजना जैसी सरकारी सुविधाओं के जरिए बड़ी संख्या में दवाएं उपलब्ध कराने के कारण पीएचसी और सीएचसी की उपयोगिता में काफी वृद्धि हुई है। हालांकि कई अध्ययनों से पता चला है कि सेवाएं और दवाएं मुफ्त होने के बावजूद, कर्मचारियों की गैरहाजिरी, सरकारी अस्पताल में उपचार के लिए जाने के लिए प्रेरित करने का अभाव और कम कौशल वाले कर्मचारी वे कारण हैं जो लोगों को इन सुविधाओं से उपचार लेने के लिए कम आकर्षित करते हैं और उन्हें अधिक महंगे तथा अक्सर खराब गुणवत्ता वाले निजी अस्पतालों की ओर धकेलते हैं।

डॉक्टरों द्वारा विरोध वापस लेने से अधिनियम के लिए मार्ग प्रशस्त हुआ है लेकिन स्वास्थ्य के अधिकार को राज्य के निवासियों के लिए एक जीवंत वास्तविकता बनाने के मार्ग में कई बाधाएं हैं। अधिनियम में नियमों को तैयार करने के लिए समय सीमा तय नहीं की गई है। सरकार को ऐसे नियम तैयार करने की आवश्यकता है जो इसे ताकतवर व प्रभावशाली बनाएंगे। क्लिनिकल एस्टाब्लिशमेन्ट एक्ट ऐसा उदाहरण है जिसके अधिनियमित होने के दस साल बाद भी अधिकांश राज्यों द्वारा इसके नियम तैयार नहीं किए गए हैं। इस तरह की देरी घातक होगी। इसी प्रकार, मानव संसाधन नीति तैयार करने और गुणवत्ता मानक तैयार करने की समय-सीमा भी विनिर्दिष्ट नहीं की गई है।

नियम, नीतियां औरमानक बनाने की प्रक्रिया को लेकर भी चिंता है। नियमों को तैयार करने, कार्यान्वयन की देखरेख करने या सामाजिक लेखा परीक्षा करने के लिए सौंपे गए अधिकारियों के दल में नागरिक समूहों, रोगी समूहों, सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों और निर्वाचित प्रतिनिधियों को प्रतिनिधित्व नहीं दिया जाता है। इस तरह एक बड़े समूह को नीति निर्माण से दूर रखने के कारण अधिनियम के तहत बनाए गए परिणामी नियम और नीतियां लोगों की जरूरतों के प्रति कम उत्तरदायी और कम सबूत आधारित हो जाएंगी।

अंत में, जनता को इस अधिनियम तथा इसके प्रावधानों, इसके मूल्य और सीमाओं के बारे में सूचित करने और उन्हें इसके कार्यान्वयन और निगरानी में संलग्न करने की आवश्यकता है। अधिकार आधारित कृत्यों की सफलता अंतत: कर्तव्य वाहकों और सही हितग्राहियों के बीच निरंतर संवाद और जुड़ाव में निहित होगी। केवल डॉक्टरों के एक हित समूह के साथ बातचीत करना पर्याप्त नहीं होगा।

(लेखक राजस्थान स्थित गैर-लाभकारी संस्था के सह-संस्थापक हैं। सिंडिकेट: दी बिलियन प्रेस)


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