समावेशी संस्कृति को पुर्नस्थापित करें श्रीराम!
अनेक कानूनी, सामाजिक और राजनैतिक विवादों से गुजरकर अयोध्या में बने राममंदिर में सोमवार को रामलला का प्राण-प्रतिष्ठा समारोह होगा

अनेक कानूनी, सामाजिक और राजनैतिक विवादों से गुजरकर अयोध्या में बने राममंदिर में सोमवार को रामलला का प्राण-प्रतिष्ठा समारोह होगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कहने को तो इसके 'प्रतीकात्मक जजमान' होंगे, लेकिन किसी को भी शंका नहीं कि वे ही मुख्य अतिथि रहेंगे- सर्वेसर्वा भी। अरसों और बरसों की प्रतीक्षा के पश्चात जब रामजी अपनी जन्मभूमि पर प्रतिष्ठित हो चुके हैं तो उम्मीद की जाये कि देश इस विवाद से जुड़ी तमाम कटुताओं को भुलाकर उस समन्वय और सामाजिक सौहार्द्र का निर्माण करेगा जो श्रीरामचंद्र के ईश्वरीय और मिथकीय आख्यानों में व्याख्यायित है; और जो उनके जीवन के संदेश का मर्म भी है।
यह आस्था का विषय है, इसलिये इसे राजनैतिक विषय न बनने दिया जाये- यह भारत का सामूहिक प्रयास होना चाहिये। हालांकि इसकी गुंजाईश बहुत कम दिखती है क्योंकि लोगों के सामने अब साफ है कि जिस जल्दबाजी में इसका निर्माण किया गया है और जिस भव्यता के साथ प्राण-प्रतिष्ठा की जा रही है, उसका सियासी सम्बन्ध 2024 के लोकसभा चुनाव से जाकर जुड़ता है। पूरे देश को भारतीय जनता पार्टी और उसकी मातृसंस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता जैसा राममय बना रहे हैं, वह इस बात को साबित करने के लिये काफी है।
उल्लेखनीय है कि तकरीबन पांच दशक पहले भारत में मुगल साम्राज्य की स्थापना करने वाले बाबर के एक सेनापति मीर बाकी के बारे में कहा जाता है कि उसने यहां बना राममंदिर ढहा दिया और वहां बाबरी मस्जिद स्थापित कर दी। यह भी प्रचलित है कि रामजन्मभूमि मंदिर को हिन्दुओं द्वारा वापस लिये जाने हेतु कई संघर्ष हुए। उनके विस्तार में गये बगैर इस विवाद के हालिया सन्दर्भों को ही लिया जाये, तो देश की स्मृति से यह विलुप्त नहीं हुआ है कि 1989 में तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा लाये गये मंडल कमीशन की काट में भाजपा ने अयोध्या का रूख किया। उसके वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से रथ यात्रा निकाली थी जिसे बिहार में तब के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने साम्प्रदायिक माहौल खराब होने के अंदेशे में रोक दिया। आडवाणी, यात्रा के संचालक प्रमोद महाजन आदि को गिरफ्तार कर लिया गया था। यह अलग बात है कि इसका लाभ अंततोगत्वा भाजपा को ही मिला। पूरे देश में इसके चलते हुए साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण ने सामाजिक ताने-बाने को तार-तार कर दिया।
रामजन्मभूमि आंदोलन की नींव पड़ी जिसकी कमान विश्व हिन्दू परिषद ने अपने हाथों में ले ली। इसकी परिणति 6 दिसम्बर, 1992 को इस रूप में देखने को मिली कि कारसेवकों के बड़े व अनियंत्रित हुजूम ने तीन गुम्बदों वाली ऐतिहासिक मस्जिद को ढहा दिया। मुस्लिमों के लिये यह मस्जिद का 'शहीदी दिवस' है तो कट्टर हिन्दुओं के लिये 'शौर्य दिवस'। जो भी हो, उसके बाद सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक तौर पर भारत वैसा नहीं रह गया जैसा इस घटना के पहले था। तो भी इसके चलते पहली सियासी सफलता भाजपा को 1996 में मिली जब भाजपा के ही एक अन्य बड़े नेता अटल बिहारी वाजपेयी पहले 13 दिन, दूसरी बार 13 माह और अंतत: 1998 में पूरे कार्यकाल के लिये प्रधानमंत्री बने।
बहुमत के अभाव में वाजपेयी ने सामंजस्यपूर्ण तरीके से गठजोड़ की सरकारें चलाईं। उन्होंने 2004 का चुनाव भी शाइनिंग इंडिया के नाम पर लड़ा, न कि हिन्दुत्व के नारे पर। नारा नाकाम रहा, कांग्रेस के नेतृत्व में गठित संयुक्त प्रगतिशील मोर्चे ने चुनाव जीता और डॉ. मनमोहन सिंह ने पीएम के रूप में दो सफल सरकारें चलाईं। तत्पश्चात भारत की राजनीति में नरेन्द्र मोदी नामक फिनोमिना का उदय होता है जो पीएम पद के नैसर्गिक व अपेक्षित दावेदारों को पीछे छोड़कर उम्मीदवार बन बैठते हैं। हालांकि वे हिन्दुत्व के मुद्दे को झोली में छिपाये रहे और शोकेस किया गुजरात मॉडल को।
यह अलग बात है कि जल्दी ही मोदी के विकास मॉडल की पोल खुलने लगी और लोगों को पता चल गया कि मोदी का सत्ता का फार्मूला विकास नहीं बल्कि सामाजिक ध्रुवीकरण है, जिसे वे अपने गुजरात में मुख्यमंत्री रहते सफलतापूर्वक आजमा चुके हैं और लागू करके आये थे। उनकी योजनाएं तो एक के बाद एक नाकाम होती चली गयीं, उल्टे समाज में ध्रुवीकरण बढ़ चला। इसलिये आजाद भारत ने अपना सबसे बुरा वक्त देखा जिसमें लोगों की बदहाली, उनका उत्पीड़न, काले कानूनों का क्रियान्वयन, सरकार की संवादहीनता व निष्ठुरता, निरंकुशता, प्रतिरोध का दमन, पूंजीवाद का लोगों के पैसों पर पोषण आदि सारा कुछ सामने आया। इसके बावजूद 2019 का चुनाव मोदी पुलवामा के मुद्दे पर जीत गये। 2024 तक अपनी कमजोर स्थिति का पूर्वानुमान उन्हें हो गया था, इसलिये आनन-फानन में राममंदिर पर सुप्रीम कोर्ट से फैसला पाया गया।
बहरहाल, राममंदिर बन जाने के बाद अब किसी भी पक्ष को असंतोष नहीं होना चाहिये। पौराणिक, साहित्यिक तथा लोकजीवन में स्थापित राम की प्रतिष्ठा, गौरव और ख्याति के अनुरूप समाज आचरण करे। राजनीति को धार्मिक तौर-तरीकों से चलाने के हिमायतियों को साबित करना होगा कि वे समाज को नैतिक मूल्यों व मर्यादा पुरुषोत्तम कहे जाने वाले राम के आदर्शों पर अग्रसर करना चाहते हैं- पर इसके लिये पहले उन्हें स्वयं ही उदाहरण बनना होगा। वैसे अब तक का ट्रैक रिकार्ड कहता है, और इसका स्पष्ट आभास भी हो रहा है कि देश को राममय बनाने में जी-जान से जुटे राजनैतिक दलों का उद्देश्य राम के मूल्यों को समाज में स्थापित करना नहीं है वरन उनका लक्ष्य यह है कि रामजी की नैया पर सवार होकर वे आने वाले लोकसभा चुनाव की वैतरणी को पार करें। उनका राजनैतिक उपयोग किसी के भी द्वारा न होने पाये- अब यह भारतीयों को देखना होगा।


