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चुनाव जीतने हिंसा-गालियों का सहारा

मध्यप्रदेश में एक कांग्रेसी कार्यकर्ता की हत्या तथा प्रचार रैलियों के दौरान इस्तेमाल में लाई जा रही अभद्र भाषा का इस्तेमाल कर भारतीय जनता पार्टी ने एक बार फिर से बता दिया है कि वह चुनाव जीतने के लिये किसी भी हद तक जा सकती है

चुनाव जीतने हिंसा-गालियों का सहारा
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मध्यप्रदेश में एक कांग्रेसी कार्यकर्ता की हत्या तथा प्रचार रैलियों के दौरान इस्तेमाल में लाई जा रही अभद्र भाषा का इस्तेमाल कर भारतीय जनता पार्टी ने एक बार फिर से बता दिया है कि वह चुनाव जीतने के लिये किसी भी हद तक जा सकती है। हालांकि कई लोग भाजपा की इन हरकतों को उसकी कमजोर होती स्थिति तथा पराजय का भय भी बतला रहे हैं लेकिन पूरे देश में शासन करने वाली किसी भी सरकार एवं पार्टी का यह उत्तरदायित्व होता है कि वह चुनावों में होने वाली हिंसा को रोके तथा सियासी स्पर्धा को स्वस्थ रहने दे। वैसे पिछले कुछ वर्षों से जिस प्रकार से भाजपा ने अराजकता के नये कीर्तिमान गढ़े हैं उसके चलते इस प्रकार की अपेक्षा करना कुछ ज्यादा ही होगा।

ऐसे वक्त में जब पांच राज्यों में से तीन (मिजोरम, छत्तीसगढ़ एवं मध्यप्रदेश) में मतदान खत्म हो चुका है, मध्यप्रदेश के खजुराहो पुलिस स्टेशन के बाहर पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह अपने साथियों के साथ टेंट लगाकर धरने दे रहे हैं। उनकी मांग है कि मतदान के दिन (17 नवम्बर को) उनकी पार्टी के एक कार्यकर्ता व छतरपुर के पूर्व पार्षद सलमान खान की हत्या के आरोपियों को तत्काल गिरफ्तार किया जाये। हत्या का आरोपी राजनगर के भाजपा प्रत्याशी अरविन्द पटेरिया को बतलाया जा रहा है। पहले मृतक के परिवारजन दो दिनों तक उनका मृत शरीर लेकर धरने पर बैठे थे। शनिवार की शाम दिग्विजय सिंह भी उसमें शामिल हो गये। रात उन्होंने वहीं गुजारी और रविवार की रात तक वे साथियों समेत डटे हुए थे। उनका और परिजनों का आरोप है कि शिवराज सरकार आरोपी को बचा रही है। पुलिस इन दिनों निर्वाचन आयोग के तहत कार्य करने के बाद भी शिवराज के प्रभाव में काम करती दिख रही है क्योंकि पटेरिया के विरूद्ध नामजद रिपोर्ट दायर की गई है। देखना यह होगा कि पुलिस कब तक कार्रवाई करती है।

उधर राजस्थान अब भाजपा व कांग्रेस के बीच चुनावी घमासान के मंजर देख रहा है। यहां भी भाजपा बड़ी सियासी हार का खतरा देख रही है। यहां 15 नवम्बर को मोदी ने बाड़मेर के बायतु में आयोजित एक प्रचार सभा में लोगों से अपील की थी कि 'वे कमल के बटन को ऐसा दबाएं जैसे किसी को सजा दे रहे हैं, फांसी पर चढ़ा रहे हैं।' उनके इस बयान को न सिर्फ गैर लोकतांत्रिक माना जा रहा है वरन घृणा व हिंसा को बढ़ावा देने वाला भी निरूपित किया गया है। उम्मीद थी कि अपनी इस जन आलोचना से स्वयं मोदी तथा उनकी पार्टी के अन्य नेता सबक लेंगे व अपनी भाषा को संयमित, मर्यादापूर्ण तथा शालीन बनाए रखेंगे। ऐसा तो हुआ नहीं, उसी दिन मध्यप्रदेश की अपनी आखिरी जनसभा में उन्होंने कांग्रेसी नेता राहुल गांधी को 'मूर्खों का सरदार' कह डाला। सम्भवत: उनसे प्रेरणा पाकर केन्द्रीय बाल व महिला विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने राजस्थान के ही टोंक के देवली में शनिवार को हुई एक सभा में राहुल के लिये बहुत ही अशोभनीय व असंसदीय टिप्पणी कर दी, जो यह बतलाता है कि भाजपा के पास ऐसे कटु बोल करने वालों की पूरी की पूरी फौज है।

इस तरह के अनेक दृष्टांत देश के सामने पिछले लगभग एक दशक से देखने में आ रहे हैं। इस मामले में भाजपा नित नयी गिरावट दज़र् कर रही है और अपने साथ समग्र राजनीति को भी दूषित कर रही है। वैसे इसका कारण यह भी माना जा रहा है कि एक ओर तो भाजपा की इन पांचों राज्यों में स्थिति बहुत नाज़ुक है, तो दूसरी तरफ़, जैसा कि राजनैतिक विश्लेषक बतला रहे हैं और तमाम ओपिनियन पोल से लेकर सर्वेक्षण भी बतला रहे हैं, किसी भी राज्य में भाजपा को शायद ही सफलता मिले। इसके अलावा स्वयं मोदी का जादू हर रोज फ़ीका पड़ता जा रहा है। उनकी कही बातें असर नहीं कर रही हैं। एक ओर कांग्रेस के राहुल गांधी, उनकी बहन प्रियंका गांधी और कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे सभाओं-रैलियों में गदर मचा रहे हैं तो वहीं संगठन का प्रचार तंत्र न सिर्फ भाजपा के वार को भोथरा कर रहा है बल्कि प्रत्युत्तर में बड़े हमले कर रहा है। अब तो नौबत यहां तक आ गई है कि कांग्रेस की रैलियों, जनसभाओं एवं रोड शो में लोग चलकर आ रहे हैं, तो वहीं भाजपा की सभाओं में लोगों को ढो कर लाने के बावजूद उनमें खाली कुर्सियां अधिक होती हैं। जिस देवली की सभा का ऊपर ज़िक्र हुआ है, उसमें केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह आने वाले थे परन्तु लोग इतने कम आए कि उसमें स्मृति को भेजना पड़ा था।

सत्ता के लिए भाजपा की अति महत्वाकांक्षा देश का लोकतांत्रिक माहौल कलुषित कर रही है। शायद उसे दो तरह की खुशफहमियां हैं- पहली तो यह कि सत्ता में रहना केवल और केवल उसी का अधिकार है। दूसरे यह कि हमेशा वही सत्ता में बनी रहेगी और उसे कोई सत्ताच्युत नहीं कर सकता। यह सोच राजा-महाराजा या किसी तानाशाह शासक की तो हो सकती है परन्तु लोकतांत्रिक प्रणाली में यह सम्भव नहीं है। सत्ताएं आती हैं, उन्हें चुनौतियां मिलती हैं और वे स्थानापन्न होती हैं। उनकी जगह पर कोई और आसीन होता है। इस परम्परा व सहज प्रणाली को कोई भी नहीं तोड़ सका है। न मोदी तोड़ पायेंगे और न ही उनकी पार्टी। जन्म-जन्मांतर तक सत्ता पर काबिज रहने की महत्वाकांक्षा उनसे चुनावी हिंसा को बढ़ावा दे रही है तो दूसरी ओर अपने राजनैतिक प्रतिद्वंद्वियों को अमर्यादित व गरिमाहीन शब्दों से अपमानित करने के लिये उद्धत करती है। इससे वह बाज आए तो बेहतर।


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