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कृत्रिम बदलाव की सीमा

तीन मई से आकाशवाणी का सितारा बुलंदी पर होना चाहिए था। दो हफ्ता बीतने के बाद भी ऐसा दिखाई-सुनाई नहीं पड़ता

कृत्रिम बदलाव की सीमा
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- अरविन्द मोहन

आज सिर्फ मन की बात के सहारे नाम जिंदा रखने वाली संस्था का नया नाम कितना मतलब साबित करेगा यह सवाल जरूर उठाया जाना चाहिए। जगहों, सड़कों, भवनों और स्टेडियमों के नाम बदलने पर तो कुछ सवाल भी उठे हैं। सेना की भर्ती योजना बदलने पर सवाल उठे लेकिन फौजी धुन, वर्दी के डिजाइन, विमान के संकेत चिह्न वगैरह के बदलाव पर तो ऐसे सवाल भी नहीं उठते।

तीन मई से आकाशवाणी का सितारा बुलंदी पर होना चाहिए था। दो हफ्ता बीतने के बाद भी ऐसा दिखाई-सुनाई नहीं पड़ता। इस बीच अगर आकाशवाणी की कोई चर्चा हुई भी तो प्रधानमंत्री के प्रसारण 'मन की बात' के सौंवे एपिसोड के प्रसारण और उसके प्रचार में सरकार, उसकी संस्थाओं और भाजपा द्वारा पूरा जोर लगाने की। और जिस बात के चलते हमने लेख की शुरुआत की वह आपको भी बिना बताए याद नहीं आनी है। कायदे से तो आपको यह खबर होनी ही चाहिए थी कि 3 मई से आल इंडिया रेडियो के सारे प्रसारण 'आकाशवाणी' नाम से ही शुरू हो चुके हैं और अंग्रेजी हुकूमत का दिया यह नाम अब इतिहास की चीज है।

अगर प्रधानमंत्री ने मन की बात को इन नामांतरण या इस तरह के अन्य प्रतीकात्मक बदलावों की तरफ मोड़ा होता तब भी उनकी बातों का ज्यादा महत्व रहता या वह हमें याद रहता। हमने देखा है कि फौजी परेड की धुनों, सेना और की पुलिस वालों की वर्दियों से टंगा-जुड़ा गुलामी का प्रतीक, हमारे यात्री विमानों से भी अब तक जुड़ा ब्रिटिश हुकूमत वाला चिन्ह जैसी अनेक चीजें इस सरकार ने बड़े जोर-शोर से बदली हैं। इनमें से कई के बारे में मुल्क भूल भी गया था कि यह गुलामी से जुड़ा प्रतीक है या अब इसका आम तौर पर कोई मतलब नहीं है।

हमने जान-बूझकर इसमें जगहों, सड़कों और स्टेडियम वगैरह जैसी बड़ी संरचनाओं के नाम में हुए बदलाव का सवाल नहीं उठाया क्योंकि उसमें गुलामी या सहजीवन वाला मसाला ब्रिटिश हुकूमत से भी पहले पहुंचकर एक सांप्रदायिक रंग भी ले लेता है। आकाशवाणी को भी कई लोग ज्यादा संस्कृतनिष्ठ और भगवाकरण की मुहिम से जोड़कर देख सकते हैं। पर यह बताना जरूरी है कि यह नाम एम.वी. गोपालस्वामी ने 1936 में दिया था लेकिन अंग्रेजी समेत दूसरी भाषाओं का प्रसारण आल इंडिया रेडियो के नाम से ही हो रहा था और आम श्रोता उसका अभ्यस्त बन गया था। अब आकाशवाणी वाला नाम ही उसके मन में बैठने में समय लगेगा। और सच कहें तो जब तक भाजपा सरकार यह कार्रवाई करे या फैसला ले तब तक आम जन ही रेडियो सुनना लगभग बंद कर चुका है।

अगर सुनने का कुछ बचा है तो वह एफएम रेडियो है जो मुख्य रूप से फिल्मी प्रचार संगीत और तरह-तरह की जुमलेबाजी और चुटकुलेबाजी का प्रसारण ही करता है। गंभीर चर्चा, नवीनतम खबर और स्तरीय मनोरंजन के कार्यक्रम अब आकाशवाणी से विदा हो चुके हैं। रेडियो का हमारे जीवन में वह स्थान नहीं रह गया है जो अभी कुछ समय पहले तक था। हमारे लिए सोशल मीडिया, मोबाइल और टीवी/यूट्यूब समेत काफी सारे दूसरे विकल्प महत्वपूर्ण बन चुके हैं। और सबसे दिलचस्प बात यह है कि रेडियो को इस बदहाली में पहुंचाने में तकनीकी बदलाव और काल की गति से ज्यादा सरकारी दखल और नीतियां जिम्मेदार हैं।

यह कहने में भी हर्ज नहीं है कि इस बदहाल स्थिति के लिए पिछली सरकारें जितनी जिम्मेदार हैं, मोदी सरकार उससे कम जिम्मेदार नहीं है। बल्कि यह शिकायत की जा सकती है कि मन की बात वाले एक दिन की सक्रियता के अलावा आकाशवाणी की सक्रियता कभी नहीं दिखती। अभी हाल तक और या सामान्य दिनों में कुछ ढील दिखती भी थी तो बजट के दिन, चुनाव के अवसर पर नतीजों के दिन, 15 अगस्त और 26 जनवरी या महत्वपूर्ण खेल और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में आकाशवाणी की भूमिका बढ़ी दिखती थी और लोग भी ऐसे अवसर पर रेडियो सुनना पसंद करते थे। बल्कि छोटे-छोटे रेडियो सेट लोग अपनी जेब में लिए चलते थे और असली मौके पर अपना पसंदीदा कार्यक्रम या समाचार सुनते थे। समाचार का समय घड़ी मिलाने का होता था और हिन्दी तथा क्षेत्रीय भाषा के कार्यक्रमों के साथ लोग अपना जीवन जुड़ा पाते थे। समाचार तो हर घंटे आते ही थे। कई बार एक से अधिक भाषाओं में समाचार आते थे। समाचार वाचक और कमेंटेटर घर-घर के व्यक्ति जैसे लगते थे। खबरों और विश्लेषण की विश्वसनीयता काफी थी जो आज कहीं नहीं है। फिल्मी गानों वाला विविध भारती भी बिला गया। लेकिन आकाशवाणी से शास्त्रीय संगीत तो सदा के लिए ही विदा हो चुका है।

ऐसे जानकार कम नहीं हैं जो मानते हैं कि आकाशवाणी अगर अपने अभिलेखागार में पड़े शास्त्रीय संगीत की रिकार्डिंग और ऐतिहासिक लम्हों वाली आवाजों/वार्ताओं का खजाना बाहर ले तो वह भी 'सुपर हिट' साबित होगा। एक जमाने तक हिन्दी को प्रसारण की भाषा न मानने वालों का भ्रम भी हिन्दी ने आकाशवाणी के मार्फत ही तोड़ा और इसमें रेडियो की सेवा में गए हमारे हिन्दी साहित्यकारों का योगदान काफी बड़ा है।

बल्कि यह शब्दकोष सामने आना चाहिए जिसे रेडियो प्रसारण के क्रम में तैयार किया गया था। आज सिर्फ 'आकाशवाणी' शब्द का किस्सा ही लंबा लगता है लेकिन हरेक शब्द के साथ ऐसी ही कहानी है. ऐसी ही प्रेरणा से संगीतकारों और गवैयों ने आकाशवाणी में रिकार्डिंग कराई थी। यह कुछ लोगों के लिए आजीविका थी तो कुछ ने सिर्फ अपने कौशल और विरासत से लोगों को रूबरू कराने के लिए आकाशवाणी को समय दिया था। और यह जानना भी दिलचस्प है कि इस यात्री को अभी सौ साल भी नहीं हुए हैं। 1923 के जून माह से रेडियो क्लब आफ बाम्बे ने प्रसारण की शुरुआत की थी जबकि आल इंडिया रेडियो की शुरुआत 8 जून 1936 को हुई। आजादी के बाद 1956 में इसका नाम बदला। तब इसकी लोकप्रियता अपने शीर्ष पर थी।

आज सिर्फ मन की बात के सहारे नाम जिंदा रखने वाली संस्था का नया नाम कितना मतलब साबित करेगा यह सवाल जरूर उठाया जाना चाहिए। जगहों, सड़कों, भवनों और स्टेडियमों के नाम बदलने पर तो कुछ सवाल भी उठे हैं। सेना की भर्ती योजना बदलने पर सवाल उठे लेकिन फौजी धुन, वर्दी के डिजाइन, विमान के संकेत चिह्न वगैरह के बदलाव पर तो ऐसे सवाल भी नहीं उठते। और इन संस्थाओं, व्यवस्थाओं के कामकाज को सुधारने के लिए जिम्मेदार लोग सिर्फ नामांतरण और सांकेतिक बदलाव करके ही अपने कर्तव्यों से इतिश्री कर लें तब तो यह सवाल जरूर उठाने चाहिए। जब निजी क्षेत्र वाले रेडियो कमाई कर रहे हैं तो आकाशवाणी बदहाल क्यों है। उसके 'स्टार' सामने क्यों नहीं आते? जबकि एफएम के स्टार रोज निकलते हैं। आकाशवाणी का सारा न्यूजरूम कैजुअल लोग ही क्यों चला रहे हैं? आकाशवाणी के कार्यक्रमों को नया रूप देने, उन्हें हमारे जीवन में पहले जैसा महत्वपूर्ण बनाने की जगह सिर्फ नाम बदलने और रंग-रोगन का सहारा लेने वालों को तो एकदम माफ नहीं किया जाना चाहिए।


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