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सनातन दर्शन ही एकात्म मानव दर्शन है: मोहन भागवत

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने कहा कि पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने देश, काल और परिस्थितियों की आवश्यकताओं के अनुरूप सनातन दर्शन को एकात्म मानव दर्शन के रूप में प्रस्तुत कर आधुनिक विश्व के लिए उसे अभिव्यक्त किया

सनातन दर्शन ही एकात्म मानव दर्शन है: मोहन भागवत
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दीनदयाल उपाध्याय ने आधुनिक विश्व को दिया एकात्म मानववाद का स्वरूप

  • धर्म का अर्थ संप्रदाय नहीं, सार्वभौमिक दृष्टिकोण है: आरएसएस प्रमुख
  • भारत की पारिवारिक संरचना ही आर्थिक ताकत का आधार: भागवत
  • तन, मन, बुद्धि और आत्मा के समग्र सुख में विश्वास करता है भारत

जयपुर। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने शनिवार को कहा कि पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने देश, काल और परिस्थितियों की आवश्यकताओं के अनुरूप सनातन दर्शन को एकात्म मानव दर्शन के रूप में प्रस्तुत कर आधुनिक विश्व के लिए उसे अभिव्यक्त किया।

आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत ने कहा कि यद्यपि इस दर्शन को औपचारिक रूप से 60 वर्ष पूर्व प्रस्तुत किया गया था, फिर भी इसकी प्रासंगिकता आज भी विश्व भर में है। मोहन भागवत जयपुर में एकात्म मानव दर्शन अनुसंधान एवं विकास प्रतिष्ठान द्वारा आयोजित दीनदयाल स्मृति व्याख्यान दे रहे थे।

उन्होंने बताया कि एकात्म मानव दर्शन का सार एक शब्द और धर्म में समझा जा सकता है। यह स्पष्ट करते हुए कि धर्म का अर्थ संप्रदाय या पंथ नहीं है, उन्होंने कहा कि यह एक लक्ष्य और एक सार्वभौमिक दृष्टिकोण का प्रतीक है जो सभी को समाहित करता है।

उन्होंने कहा कि वर्तमान में विश्व को एकात्म मानव दर्शन के इस धर्म को अपनाना चाहिए। उन्होंने कहा कि ऐतिहासिक रूप से भारतीयों ने विदेश यात्रा के दौरान कभी भी दूसरों का शोषण या नुकसान नहीं पहुंचाया है, बल्कि जहां भी गए हैं, वहां सकारात्मक योगदान दिया है।

उन्होंने कहा कि भारत में जीवनशैली, खान-पान और पहनावे में समय के साथ बदलाव आया है, फिर भी एकात्म मानववाद का शाश्वत दर्शन अक्षुण्ण बना हुआ है। उन्होंने कहा कि इसका आधार यह विश्वास है कि सुख स्वयं के भीतर निहित है।

उन्होंने जोर देकर कहा कि इस आंतरिक आनंद को पहचानने से यह समझ विकसित होती है कि पूरा विश्व एक है। एकात्म मानववाद अतिवाद से मुक्त दर्शन है।

भागवत शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक शक्ति के बारे में बोलते हुए ने कहा कि सभी प्रकार की शक्तियों की सीमाएं होती हैं।

उन्होंने आगे कहा कि समय की मांग है कि सभी के कल्याण के लिए प्रतिबद्ध रहते हुए व्यक्तिगत विकास किया जाए। उन्होंने लगातार वैश्विक आर्थिक उथल-पुथल का हवाला देते हुए कहा कि भारत अपेक्षाकृत कम प्रभावित होता है, क्योंकि इसकी आर्थिक ताकत इसकी पारिवारिक संरचना में निहित है।

भागवत ने तेज वैज्ञानिक प्रगति पर टिप्पणी करते हुए कहा कि भौतिक सुख-सुविधाएं तो बढ़ी हैं, लेकिन शांति और संतुष्टि नहीं बढ़ी है।

उन्होंने सवाल उठाया कि क्या नई दवाओं के बावजूद स्वास्थ्य में सचमुच सुधार हुआ है, और बताया कि कुछ बीमारियां कुछ खास इलाजों के कारण होती हैं।

उन्होंने आगे कहा कि वैश्विक आबादी का केवल 4 प्रतिशत ही दुनिया के 80 प्रतिशत संसाधनों का उपयोग करता है, जिससे विकसित और विकासशील देशों के बीच की खाई और चौड़ी होती जा रही है।

उन्होंने कहा कि भारत में हमेशा विविधता रही है, लेकिन यह कभी संघर्ष का स्रोत नहीं रही, बल्कि उत्सव का स्रोत रही है।

उन्होंने कहा कि भारतीय समाज ने अनगिनत देवताओं को स्थान दिया और बिना किसी कठिनाई के और अधिक देवताओं का स्वागत करता रहा। दुनिया तन, मन और बुद्धि के सुख के अस्तित्व को तो मानती है, लेकिन यह नहीं जानती कि इन तीनों को एक साथ कैसे प्राप्त किया जाए।

भागवत ने आगे कहा कि भारत इसे विशिष्ट रूप से समझता है क्योंकि वह तन, मन, बुद्धि और आत्मा के समग्र सुख में विश्वास करता है।

इससे पहले एकात्म मानव दर्शन अनुसंधान एवं विकास प्रतिष्ठान के अध्यक्ष महेश शर्मा ने कार्यक्रम का परिचय दिया। उन्होंने कहा कि पूरा ब्रह्मांड आपस में जुड़ा हुआ है और एक कण की गति भी समग्र ब्रह्मांड पर प्रभाव डालती है। उन्होंने यह भी कहा कि इस वर्ष वंदे मातरम की रचना की 150वीं वर्षगांठ है और वर्तमान परिस्थितियों में पूरा गीत गाने के महत्व पर बल दिया।


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