राजस्थान : जीत की खुशबू से कांग्रेस एक हुई!
पार्टी क्या होती है, पार्टी की उदारता क्या होती है यह अशोक गहलोत और सचिन पायलट दोनों को समझ जाना चाहिए

- शकील अख्तर
कांग्रेस को इससे सबक लेना चाहिए। ये क्षत्रपों की लड़ाई कांग्रेस को बहुत महंगी पड़ती है। क्षत्रप सोचते हैं कि कांग्रेस उनकी वजह से है। मगर सच यह है कि कांग्रेस अपनी जनपक्षधर नीतियों, उदारवाद, धर्मनिरपेक्षता और दलित, पिछड़ों को सामाजिक रूप से बराबरी देने के कारण हमेशा आम आदमी की उम्मीदों का केन्द्र बनी रहती है। विकल्प के तौर पर वह दूसरों को आजमाती है।
पार्टी क्या होती है, पार्टी की उदारता क्या होती है यह अशोक गहलोत और सचिन पायलट दोनों को समझ जाना चाहिए। पांच साल से दोनों लड़ रहे हैं। राजस्थान में पार्टी की जड़ें कमजोर कर दीं। मगर फिर भी राहुल की भलमनसाहत थी कि कोई कठोर कदम नहीं उठाया। अब चुनाव से पहले आखिरी मीटिंग करवा दी है। अगर दोनों में जरा भी पार्टी के प्रति सम्मान का भाव होगा, शराफत होगी तो बिना एक दूसरे को नुकसान पहुंचाए चुनाव लड़ेंगे। और अगर ऐसा कर सके तो इनसे भी ज्यादा गुटबाजी से जूझ रही भाजपा को हरा सकेंगे।
राजस्थान में कांग्रेस की सबसे बड़ी ताकत आन्तरिक संघर्षों से जूझ रही भाजपा है। उसके पूरी ताकत से सामने ने आ पाने की वजह से ही कांग्रेस के लगातार दूसरी बार जीतने की संभावना व्यक्त की जा रही है। प्रधानमंत्री मोदी अभी भी राजस्थान की कमान वसुन्धरा राजे को सौंपते नहीं दिख रहे हैं। भैरोंसिंह शेखावत के बाद वसुन्धरा राजस्थान में भाजपा की सबसे बड़ी नेता हुई हैं। लेकिन जिस तरह भाजपा में ज्यादा कट्टरपंथी लोगों ने शेखावत को हमेशा परेशान किया वैसे ही अब वसुन्धरा को किया जा रहा है। शेखावत को तो फायदा यह था कि उस समय अटलबिहारी वाजपेयी थे, जो शेखावत का समर्थन करते थे नहीं तो आडवानी गुट हमेशा शेखावत को ठिकाने लगाने की कोशिश करता रहता था। मगर इस समय वसुन्धरा के पास ऐसा कोई सहारा नहीं है।
उनके पास अपना स्वाभिमान है। जिसे वे भतीजे ज्योतिरादित्य सिंधिया की तरह छोड़ने को तैयार नहीं हैं। सिंधिया परिवार में राजमाता विजया राजे सिंधिया के अलावा अगर किसी और ने ठसक के साथ जिन्दगी जी है तो वे वसुन्धरा राजे ही हैं। वे जब मध्यप्रदेश से राजस्थान की राजनीति में आईं तब शेखावत अपने पीक टाइम पर थे। और वसुन्धरा की हनक की वजह से उन्हें पसंद नहीं करते थे। शेखावत राजपूत परिवार से थे। मगर साधारण परिवार से।
एक पुलिस सिपाही के तौर पर पहला काम शुरू किया था। राजस्थान में राजाओं की भरमार थी। बहुत छोटी-छोटी रियासतें थी और इनके अलावा गढ़ी, ठिकाने। जो छोटे सांमतों के हुआ करते थे। मगर कहलाते सब हुकूम ही थे। शेखावत उन राजे राजवाड़ों के बीच विनम्र भाव से रहते थे। राजपूत राजनीति करते थे। राजस्थान के दूसरे राजनीतिक डोमिनेट करने वाले जाटों के साथ विरोध का भाव रखते थे और इस वजह से राजपूतों में वे अपना महत्व बढ़ाए रखते थे। दिवराला सती कांड का उन्होंने पूरा समर्थन किया था। इस तरह राजपूतों में छाए रहने वाले शेखावत से जब उनके ही राजस्थान में आकर वसुन्धरा ने उसी अंदाज में बात करना शुरू की जैसा वे मध्य प्रदेश में राजनीति करते हुए राजमाता की बेटी के तौर पर बराबरी वाले भाव से और उसमें भी थोड़े गर्वित अंदाज से करती थीं तो उसे स्वीकार करना शेखावत के लिए मुश्किल हो गया। याद रहे वे राजस्थान में खुद को महाराणी कहलवाती हैं। रानी भी नहीं।
तो ऐसे उच्च गर्वित भाव में रहने वाली वसुन्धरा विरोध तो बर्दाश्त कर सकती हैं उपेक्षा नहीं। राजस्थान में अभी शनिवार को प्रधानमंत्री मोदी की बीकानेर यात्रा के दौरान भी वसुन्धरा को कोई महत्व नहीं मिला और पूरा राजस्थान इस ओर बड़ी उत्सुकता से देख रहा था। कांग्रेस में विवाद टल जाने के बाद लोग यह जानना चाह रहे थे कि क्या ऐसा भाजपा में भी होगा? मगर भाजपा नेताओं और कार्यकर्ताओं को निराशा मिली। बिना वसुन्धरा को सीएम फेस बनाए भाजपा कांग्रेस का मुकाबला नहीं कर पाएगी।
और यही कांग्रेस की सबसे बड़ी ताकत है। पिछले 25 साल से राजस्थान में चलन है कि एक बार कांग्रेस एक बार भाजपा या इसे गहलोत और वसुन्धरा के समर्थक ऐसे भी कहते हैं कि एक बार गहलोत एक बार वसुन्धरा। मगर इस बार कांग्रेस कान्फिडेंट है कि वह रिपीट करेगी।
और यही वह संभावना है जिसने गहलोत और सचिन को लड़ने से रोक दिया। इसमें इन दोनों का कोई बड़प्पन नहीं है। कोई राजनीतिक परिपक्वता नहीं है। केवल जीत की खुशबू ने इनके बीच युद्धविराम कर दिया।
मगर कांग्रेस को इससे सबक लेना चाहिए। ये क्षत्रपों की लड़ाई कांग्रेस को बहुत महंगी पड़ती है। क्षत्रप सोचते हैं कि कांग्रेस उनकी वजह से है। मगर सच यह है कि कांग्रेस अपनी जनपक्षधर नीतियों, उदारवाद, धर्मनिरपेक्षता और दलित, पिछड़ों को सामाजिक रूप से बराबरी देने के कारण हमेशा आम आदमी की उम्मीदों का केन्द्र बनी रहती है। विकल्प के तौर पर वह दूसरों को आजमाती है। मगर फिर उनके सबको साथ लेकर नहीं चलने और जनता की समस्याओं पर ध्यान देने के बदले जनता को आपस में लड़ाने की प्रवृति से तंग आकर वापस कांग्रेस की तरफ देखने लगती है।
पहले हिन्दू-मुसलमान किया। फिर आदिवासी, दलित, पिछड़ों के बीच उसी नफरत को ले गए। आदिवासी, दलित, पिछड़ों पर लगातार अत्याचार बढ़ता जा रहा है। सामाजिक रूप से उनके सम्मान में कमी आई है। उनके संवैधानिक अधिकारों को भी धीरे-धीरे खत्म किया जा रहा है। सरकारी नौकरियों में आरक्षण एक ऐसी चीज थी जिसने दलितों को सबसे ज्यादा ऊपर उठाया है। सरकारी नौकरियां ही खत्म करके वह खत्म किया जा रहा है। हर सार्वजनिक क्षेत्र निजी क्षेत्र को दिया जा रहा है। सेना तक में ठेके पर भर्ती शुरू हो गई है।
बाकी विभागों का तो छोड़ ही दीजिए। कभी कोई सोच सकता था कि सेना में चार साल के ठेके पर भर्ती होगी!
मणिपुर एक दुखद आश्चर्य बन गया है। दो महीने से ज्यादा हो गए मगर प्रधानमंत्री मोदी न वहां जाने को न एक शब्द बोलने को तैयार हैं। यह पहली बार है और पहली बार ही यह है कि भारत स्थित अमेरिकी राजदूत इस पर टिप्पणी करते हैं और हस्तक्षेप की बात करते हैं। राहुल पर आरोप लगाते हैं कि वे बाहर जाकर देश के बारे में बात करते हैं। मगर यहां तो बाहर का आदमी विदेशी राजनयिक यह पूछता है कि मणिपुर में क्या हो रहा है? आपसे कंट्रोल नहीं हो पा रहा है तो हम मदद करें? विभाजन की राजनीति की यही त्रासदी है। देश भर में नफरत ही नफरत भर दी है। हर समुदाय एक दूसरे से नफरत कर रहा है। आदमी के ऊपर पेशाब किया जा रहा है।
जनता इस नफरत को पसंद नहीं करती है। नफरत मानवीय स्वभाव ही नहीं है। बच्चा कभी किसी से नफरत नहीं करता। सबसे प्यार करता है और सबके प्यार को अच्छी तरह समझता है। नफरत इंसान को सिखाई जाती है। प्रेम सहज स्वभाव है। इंसान में अपने आप होता है।
जनता अब झूठ, नफरत, विभाजन से ऊब गई है। नेता यह खूब समझते हैं। जनता के मन का बदलाव पढ़ने में आ रहा है।
राजस्थान में इसीलिए पांच साल तक बेमतलब लड़ने वाले गहलोत और पायलट लाइन पर आ गए हैं। पहले वे यह समझते थे कि जनता ने उन्हें वोट दिया है। दोनों यह दावा करते थे। उनसे ज्यादा उनके भक्त। राजस्थान में जाने कहां से लाकर दोनों ने बहुत छोटे स्तर के भक्त बना रखे हैं। यह भी नहीं समझते कि 2018 में केवल राजस्थान नहीं मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ भी जीता था । राजस्थान में तो दोनों को शर्म आना चाहिए कि वहां इस समय वसुन्धरा से लोग इतना नाराज थे कि खुद भाजपा वाले कहते थे कि दो तिहाई बहुमत से कांग्रेस जीतेगी। मगर उस समय भी सिम्पल बहुमत लाने में सफल नहीं हो पाए थे। 200 में से केवल 99 सीटें मिली थीं।
सच यह है कि वोट कांग्रेस की नीतियों और राहुल की मेहनत की वजह से मिले थे। राहुल उस समय अध्यक्ष थे। बहुत मेहनत की थी।
कांग्रेस जब केन्द्र में कमजोर हो जाती है राज्यों के क्षत्रप खुद को ताकतवर समझने लगते हैं। लेकिन वोट नहीं निकाल पाते। 2004 में भी सोनिया गांधी ही कांग्रेस को सत्ता में लाई थीं। वोट अभी भी नेहरू गांधी परिवार के नाम पर मिलता है। क्षत्रप यह नहीं समझते। लेकिन जैसे ही दिल्ली में हाईकमान मजबूत होता है तो वे गहलोत और पायलट की तरह मान भी जाते हैं।
राहुल की भारत जोड़ो यात्रा, कर्नाटक जीत, अभी मणिपुर दौरा इसने एक माहौल बना दिया है और उसी का प्रभाव राजस्थान में अब दिखाई दे रहा है। दोनों साथ आने पर मजबूर हुए। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)


