बिहार में राहुल की सफलता से नीतीश के हाथ से सामाजिक मुद्दा छिना
सामाजिक न्याय के पुरोधा के रूप में वे ही जाने जाते थे। उन्होंने ही सबसे पहले अपने प्रदेश में जातिगत जनगणना की न केवल बात उठाई थी

- डॉ. दीपक पाचपोर
सामाजिक न्याय के पुरोधा के रूप में वे ही जाने जाते थे। उन्होंने ही सबसे पहले अपने प्रदेश में जातिगत जनगणना की न केवल बात उठाई थी, वरन ऐसा सर्वे भी किया था। गणतंत्र दिवस के ठीक पहले जब बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर को भारत सरकार ने भारत रत्न (मरणोपरांत) देने का ऐलान किया था, तो माना गया था कि यह सामाजिक न्याय की अवधारणा की जीत है। इसका बड़ा श्रेय भी नीतीश को दिया जा रहा था
इसी माह की 14 तारीख को मणिपुर से निकली राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा का सोमवार को उसी जोशो-खरोश के साथ बिहार पहुंचने और मंगलवार को उसमें विशाल रैली आयोजित होने का अर्थ सिर्फ इतना नहीं है कि 20 मार्च तक चलने वाली (मुम्बई में समापन) इस यात्रा ने रास्ते में आने वाले किसी राज्य में एक पड़ाव डाला है। जिस दिन, जिन परिस्थितियों में और जो मुद्दे उठे हैं- वे संयोगों से बढ़कर परिवर्तनकारी परिघटना के रूप में दर्ज होंगे।
उल्लेखनीय है कि इस यात्रा के पहले ही दिन जिस प्रकार से मणिपुर में राहुल-यात्रा के प्रस्थान स्थल को आखिरी वक्त पर बदला था, उससे आभास तो हो गया था कि आने वाला सफर उतना आसान नहीं होगा जैसे 7 सितम्बर, 2022 को तमिलनाडु के कन्याकुमारी से लेकर 30 जनवरी, 2023 को कश्मीर के श्रीनगर में समाप्त हुआ मार्च था। एकाध जगह, वह भी जम्मू जैसे संवेदनशील राज्य में उनकी सुरक्षा से सम्बन्धित मुद्दे को छोड़ दें तो राहुल को विशेष दिक्कतें नहीं आई थीं। अलबत्ता न्याय यात्रा पूर्वोत्तर के पांच राज्यों- मणिपुर, नगालैंड, अरूणाचल प्रदेश, मेघालय तथा असम से गुजरी थी। इनमें से अंतिम राज्य में उन्हें कांग्रेस से ही भारतीय जनता पार्टी में जाकर वहां के मुख्यमंत्री बने हिमंता विस्वा सरमा के इशारे पर राहुल की यात्रा के लिये जितने भी अवरोध पैदा करने थे, वे हुए। कभी उन्हें शहर के भीतर से गुजरने की अनुमति नहीं दी गई तो कभी मंदिर जाने से रोका गया (22 जनवरी को जोरहाट स्थित शंकरदेव मंदिर)। यहां तक कि उनके खिलाफ एफआईआर भी दर्ज कर दी गई है और जैसा कि सरमा ने दावा किया है कि लोकसभा चुनाव हो जाने के बाद यानी दो-तीन माह के बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया जायेगा। यह तो खैर देखने की बात है कि ऐसा हो पाता है या नहीं। कुल जमा बात यह रही कि असम प्रशासन कांग्रेसियों को डरा नहीं पाया और उस राज्य में राहुल ने 8 दिन बिताए, 17 जिलों का प्रवास किया तथा 855 किलोमीटर नाप दिया। हर बढ़ते कदम पर उन्हें पिछले कदम से अधिक लोग मिले और वे सफलतापूर्वक वहां से निकलकर पश्चिम बंगाल पहुंचे। वहां की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी के साथ इंडिया गठबन्धन के कभी खट्टे तो कभी मीठे सम्बन्धों के बाद भी उस राज्य में भी राहुल गांधी को अच्छा प्रतिसाद मिला।
अब आते हैं अगले राज्य में जहां राहुल मौजूद हैं! वे एक दिन और रहेंगे। प. बंगाल के सिलिगुड़ी को पीछे छोड़कर जब राहुल ने बिहार के अररिया में प्रवेश किया तो पहले की तरह उनका जबर्दस्त स्वागत हुआ। अनपेक्षित इसलिये क्योंकि तब तक राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा देश के राजनैतिक इतिहास की सबसे बड़ी पलटी मारे हुए 24 घंटे भी नहीं हुए थे। रविवार को सुबह इस्तीफा देकर शाम होते न होते वे फिर से इस कुर्सी पर काबिज हो गये थे। बात सिर्फ इतनी ही नहीं थी। उन्होंने जिस संयुक्त प्रतिपक्ष इंडिया के निर्माण में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, उससे अलग हो गये और भाजपा प्रणीत एनडीए के वे अपनी जनता दल यूनाइटेड पार्टी के मार्फत सदस्य बन गये। राष्ट्रीय जनता दल का हाथ छोड़कर उस भाजपा के साथ मिलकर वापस सरकार बना ली जिसे पहले वे अपनी सबसे बड़ी भूल बतलाते रहे थे और यह कहते रहे कि वे मर जाएंगे पर भाजपा के साथ कभी नहीं जाएंगे। यह ज्यादा नहीं केवल 17 माह पुरानी बात है।
सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता, शुचिता एवं सत्यवादिता के मानक के रूप में देखे जाने वाले महात्मा गांधी की शहादत के दो दिन पूर्व नीतीश एवं उनकी एक बार फिर से सहयोगी बनी भाजपा ने असत्य का सबसे बड़ा उदाहरण प्रस्तुत किया है। दूसरी ओर उसी गांधी की पुण्यतिथि पर राहुल उस पूर्णिया में एक विशाल रैली करते हैं। यह महान साहित्यकार फणीश्वरनाथ रेणु का क्षेत्र है जिन्होंने जयप्रकाश नारायण के साथ इंदिरा गांधी का विरोध किया था। ...तो राहुल की इस धरा पर सफल यात्रा एवं विशाल सभा बहुत कुछ कहती है। दरअसल नीतीश की हाल की कारगुजारियों से विक्षुब्ध जनता ने राहुल का यहां जबर्दस्त स्वागत किया है। वह यह भी बतलाता है कि साथियों की दगाबाजी का इस यात्रा के उत्साह व गतिशीलता पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। अंदेशा था कि नीतीश यहां खेल बिगाड़ने की वैसी ही कोशिशें कर सकते हैं जैसी कि हिमंता ने असम में की थीं। सम्भवत: नीतीश ने असम की घटनाओं से सबक लेते हुए खुद को समेटकर रख लिया था। वैसे बिहार की इस यात्रा व रैली में राजद ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जो बतलाता है कि नीतीश के धोखा देने के बावजूद इंडिया अब भी मजबूत है। वामपंथी दल का भी इसमें साथ बना हुआ है।
इस तरह से संयोग से राहुल की बिहार यात्रा दो ऐसी प्रवृत्तियों को आमने-सामने करती है जिसमें एक ओर नीतीश जैसे लोग हैं जो सत्ता के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं, तो वहीं दूसरी ओर राहुल हैं जो तमाम तरह के अपमान, अवहेलना एवं आलोचना के बाद भी सच बोल रहे हैं। वे सत्ता के सामने डरे बिना प्रतिरोध की मुद्रा में तनकर खड़े हैं। मजेदार बात यह है कि नीतीश ने ऐसे वक्त पर पाला बदला है जब इंडिया, जिसके वे सहयोगी थे, सतत शक्तिशाली हो रही है। लोग इसकी ओर बड़ी संख्या में न केवल आकृष्ट हुए हैं बल्कि अब यह माना जाने लगा है कि अगर सब ठीक रहा तो भाजपा को अगले 3-4 महीनों के भीतर होने जा रहे आम चुनाव में हराया जा सकेगा। अनेक एजेंसियां एवं विशेषज्ञ इस तरह के अनुमान व्यक्त कर रहे हैं। निर्णायक मोड़ पर नीतीश द्वारा इंडिया का साथ छोड़ना लोग कभी भूल नहीं सकेंगे।
नीतीश द्वारा इंडिया का साथ छोड़ने और भाजपा का हाथ पकड़ने का महत्व सिर्फ एक गठबन्धन का साथ छोड़कर दूसरे के साथ जाना नहीं है। इसके साथ ही नीतीश ने महत्वपूर्ण सामाजिक न्याय की लड़ाई से भी खुद को अलग कर लिया है। यह पिछड़ों, अति पिछड़ों, दलितों, शोषितों, वंचितों के साथ भी एक तरह से गद्दारी करने जैसा ही है। उल्लेखनीय है कि सामाजिक न्याय के पुरोधा के रूप में वे ही जाने जाते थे। उन्होंने ही सबसे पहले अपने प्रदेश में जातिगत जनगणना की न केवल बात उठाई थी, वरन ऐसा सर्वे भी किया था।
गणतंत्र दिवस के ठीक पहले जब बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर को भारत सरकार ने भारत रत्न (मरणोपरांत) देने का ऐलान किया था, तो माना गया था कि यह सामाजिक न्याय की अवधारणा की जीत है। इसका बड़ा श्रेय भी नीतीश को दिया जा रहा था लेकिन ऐन वक्त पर इंडिया से विलग होकर और उससे भी बढ़कर जातिगत जनगणना विरोधी भाजपा से हाथ मिलाकर नीतीश ने इस मुद्दे को भी दफ़्न कर दिया है। भाजपा अगर नीतीश की जातिगत जनगणना के आधार पर पिछड़ों को नौकरियां देने की बात मानती है तो उसके द्वारा शासित अन्य दर्जन भर से अधिक प्रदेशों में भी उसे यह लागू करना होगा जो सम्भव नहीं है। वहीं दूसरी तरफ सामाजिक न्याय की भूमि कहे जाने वाले बिहार में राहुल की सफल यात्रा एवं विशाल रैली बताती है कि अब सामाजिक न्याय के सबसे बड़े पोस्टर ब्वॉय वे ही हैं। इसका असर आगामी चुनावों पर अवश्य ही पड़ेगा।
(लेखक देशबन्धु के राजनीतिक सम्पादक हैं)


