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राहुल ने अमेरिका में भी उम्मीद की किरण जगाई

मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ के साथ राजस्थान में भी और तेलंगाना में भी कांग्रेस की स्थिति अच्छी है

राहुल ने अमेरिका में भी उम्मीद की किरण जगाई
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- शकील अख्तर

राजनीति रोते रहने का नाम नहीं होती। कि इसने यह किया था। उसने वह किया था। कांग्रेस और शिवसेना का मिलकर सरकार बनाना क्या पहले कोई सोच भी सकता था? मगर न केवल महाराष्ट्र में बनाई आज केन्द्र में भी शिवसेना कांग्रेस की सबसे विश्लसनीय समर्थकों में है बल्कि राहुल गांधी ने शिवसेना की पुरानी पृष्ठभूमि का ख्याल रखते हुए सावरकर का नाम लेना भी छोड़ दिया। यही होती है राजनीतिक परिपक्वता।

मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ के साथ राजस्थान में भी और तेलंगाना में भी कांग्रेस की स्थिति अच्छी है। इस साल के अंत तक यहां विधानसभा चुनाव हो जाएंगे। और कांग्रेस चारों जगह या कम से कम तीन जगह तो जीत सकती है।

मगर इसका मतलब यह नहीं कि कांग्रेस अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में भी अच्छा प्रदर्शन करे। लोकसभा राज्यों के चुनाव से बिल्कुल अलग होगा। भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने बहुत दूरंदेशी के साथ एक नारा पिछले विधानसभा चुनाव के समय ही दे दिया था। मोदी तुझसे बैर नहीं, वसुंधरा तेरी खैर नहीं! वही हुआ 2018 वसुंधरा हारी और 2019 लोकसभा में मोदी ने राज्य की सभी 25 सीटें जीतीं।

प्रधानमंत्री मोदी बहुत अच्छी तरह लोगों के गुस्से को डाइवर्ट करना जानते हैं। तीन राज्यों मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान में उनका मुकाबला सीधा कांग्रेस से है। वहां के लोगों का आक्रोश चाहे वह राज्य नेतृत्व के खिलाफ हो या केन्द्र सरकार के खिलाफ अगर इसी साल निकल जाता है तो इससे उन्हें कोई दिक्कत नहीं है। अभी गुस्सा रिलीज हो जाए तो 2024 में वह एन्टी इन्कम्बेन्सी के आधार पर वोट नहीं करेगा। फिर उससे अपने मुद्दे के आधार पर वोट करवाया जा सकता है।

2018 के विधानसभा और 2019 का लोकसभा चुनाव मोदी की राजनीति को समझने के लिए एक परफेक्ट माडल है। तीनों राज्यों राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में भाजपा विधानसभा हारी। मगर चार महीने बाद ही हुए 2019 लोकसभा चुनाव के आंकड़े देखिए। राजस्थान 25 में से 25, मध्य प्रदेश 29 में से 28 और छत्तीसगढ़ 11 में से 9 मोदी जीते। यह है मोदी की राजनीतिक चतुराई।

अब 2023 और 2024 में भी क्या वही राजनीतिक स्थिति है? मोदी के हिसाब से वही। मगर कांग्रेस के हिसाब से बदल सकती हैं।
कैसे? तीन राज्यों के चुनाव में कांग्रेस जीत सकती है। चौथे तेलगांना का आकलन इस समय छोड़ दीजिए। क्योंकि वहां भाजपा नहीं है। सीधा मुकाबला कांग्रेस और सत्तारुढ़ क्षेत्रीय नेता केसीआर में है। हालांकि पिछली बार वहां भी लोकसभा में भाजपा ने कांग्रेस से बेहतर प्रदर्शन किया था। कांग्रेस को तीन और भाजपा को चार सीटें मिली थीं। जबकि 2018 विधानसभा में बुरी तरह हारी थी। 119 विधानसभा सीटों में से 100 से ज्यादा सीटों पर भाजपा की जमानत जप्त हुई थी।

मगर जैसा कि पहले लिखा कि विधानसभा हार के लोकसभा जीतने का हुनर मोदी जी को आता है। इसीलिए मोदी के लिए स्थिति पांच साल पहले वाली ही है। लेकिन कांग्रेस के लिए इस बार अवसर वाली।

वह अवसर क्या है? यही कांग्रेस को समझना है! वह ऐतिहासिक अवसर आ रहा है विपक्षी एकता के माध्यम से। यही कुंजी है 2024 में मोदी का मुकाबला करन की।
कांग्रेस को और कांग्रेस के समर्थकों को इसे दो तरह से समझना होगा। एक इस पैमाने पर रखकर कि क्या वह अकेली 2024 लोकसभा में मोदी का मुकाबला कर सकती है? इस सवाल को उसे और उसके भी मोदी भक्तों की तरह बन गए भक्तों को दो-तीन बार अच्छी तरह सोचना समझना चाहिए। क्या विपक्षी दलों में कमियां निकालने से कांग्रेस को कोई फायदा हो जाएगा, या यह केवल दूसरों से बदला लेने का भाव है? यह समय विपक्ष के आपस में लड़ने का है या मिलकर लोकतंत्र और संवैधानिक संस्थाओं को बचाने का?

दूसरे यह कि क्या विपक्षी एकता उतना ही बड़ा खतरा है जितना मोदी सरकार का मणिपुर को जलते रहने देना, बृजभूषण सिंह को क्लीन चिट देना, युवाओं को नौकरी न देना, चिकित्सा, शिक्षा, रेल्वे सब हवाई सेवा की तरह प्राइवेट को बेच देना?

बहुत पुरानी कहावत है और युद्ध एवं राजनीति में हमेशा सही कि दुश्मन का दुश्मन आपका दोस्त होता है। दूसरे विश्व युद्ध में सोवियत रुस और अमेरिका मिल कर लड़े थे। और भारत की राजनीति में इन्हीं आपसी मतभेद मगर कांग्रेस के खिलाफ एक के आधार पर भाजपा, समाजवादी, लेफ्ट ने मिलकर कांग्रेस को 1967, 1977, 1989 और 2014 में हराया था।

राजनीति रोते रहने का नाम नहीं होती। कि इसने यह किया था। उसने वह किया था। कांग्रेस और शिवसेना का मिलकर सरकार बनाना क्या पहले कोई सोच भी सकता था? मगर न केवल महाराष्ट्र में बनाई आज केन्द्र में भी शिवसेना कांग्रेस की सबसे विश्लसनीय समर्थकों में है बल्कि राहुल गांधी ने शिवसेना की पुरानी पृष्ठभूमि का ख्याल रखते हुए सावरकर का नाम लेना भी छोड़ दिया। यही होती है राजनीतिक परिपक्वता। यह कोई सिद्धांतों का समझौता नहीं होता। कांग्रेस के अपने उसूल हैं और शिवसेना के अपने नायक। दोनों में कोई विरोधाभास नहीं होता। जैसे फासिस्ट, मानवता पर खतरा बन गए हिटलर के खिलाफ उत्तरी और दक्षिणी धु्रव की तरह रूस और अमेरिका मिल गए थे वैसे ही भारत में जनविरोधी राजनीति और संवैधानिक सारी संस्थाओं न्यायपालिका, प्रेस, कार्यपालिका के खत्म हो जाने के खतरे के मद्देनजर सारी विपक्षी पार्टियों के साथ आने की कोशिश है।

अब इस पर किन्तु परन्तु बंद हो जाना चाहिए। और केवल एक बात याद रखना चाहिए कि भाजपा और गोदी मीडिया इसका विरोध क्यों कर रहे हैं। बहुत सिम्पल जवाब है कि इस विपक्षी एकता से ही उन्हें सबसे बड़ा खतरा है।

इसलिए पटना में विपक्षी दलों का 23 जून का सम्मेलन निर्णायक है। यहीं से देश भर में एक बिजली कौंधेगी। 9 साल से देश में मोदी और सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी का माहौल चल रहा है। कभी कांग्रेस को कोषाध्यक्ष सीताराम केसरी कहते थे-
'न खाता न बही जो चचा केसरी कहें वही सही!'

आज यही बात मोदी सरकार पर लागू होती है। कोई हिसाब-किताब नहीं, कोई तथ्य नहीं कोई प्रसंग नहीं मगर कह दिया और चल रहा है कि मोदी की सबसे बड़ी सफलता बिपरजॉय समुद्री तूफान में कोई नहीं मरा। अब मरने और जीने का भी श्रेय लिया जा रहा है। आज साइंस इतनी तरक्की कर गया है कि पहले से तूफान की तारीख, दिशा, गति सब बता देता है। फिर इसमें भी अगर कोई सरकार पहले से व्यवस्था न कर पाए तो वह अक्षम है। व्यवस्था करना तो सुरक्षा बलों, प्रशासन के वह काम हैं जो वे सत्तर सालों से कर रहे हैं।

मौत से बचाना है तो मणिपुर में बचाओ जहां 125 से ज्यादा लोग मारे गए हैं। जिन्दा आग में झोंक दिए गए हैं। केन्द्रीय मंत्री का मकान जला दिया। उसे कहना पड़ा कि कानून व्यवस्था खत्म हो गई है। मौतों का जवाब देना है तो उस समय जम्मू कश्मीर के गवर्नर रहे सत्यपाल मलिक को दो जो लगातार पूछ रहे हैं कि मेरे कहने के बावजूद वहां 40 जवानों की जिन्दगी क्यों नहीं बचाई गई या पूरा देश आज भी जानना चाहता है कि अगर प्रधानमंत्री के कहे के अनुसार कोई घुसा ही नहीं तो गलवान घाटी में हमारे 20 जवान कैसे शहीद हो गए थे?

मगर जैसा कि कहा कि 9 साल एक कहानी चल रही है। एक गढ़ी हुई कहानी (नरेटिव) उसमें जो कह दिया जाता है वह सब सच मान लिया जाता है। जो नहीं कहा जाता वह होता ही नहीं है। जैसे कोई घुसा नहीं, कोई है नहीं प्रधानमंत्री ने कहा तो हम मानते हैं कि कोई घुसपैठ, चीन का कब्जा नहीं है। अभी 20 जून को प्रधानमंत्री अमेरिका जा रहे हैं। वहां फिर ये सवाल उठेगा। अमेरिका चीन को इतनी छूट देने का भारी विरोधी है। इसीलिए उसने इस बार राहुल के अमेरिका कार्यक्रमों पर इतना सकारात्मक रुख रखा। राहुल चीन के खिलाफ बहुत मुखर होकर बोलते रहे हैं। बाइडन प्रशासन से लेकर वहां के मीडिया और प्रवासी भारतीयों को राहुल का यह बेखौफ़ अंदाज बहुत पसंद आ रहा है। अमेरिका भारत जैसे विशाल देश को चीन से डरता हुआ नहीं देख सकता।

यह सब आज की परिस्थितियां हैं। इनमें राहुल और कांग्रेस के अनुकूल माहौल बन रहा है। बाकी इसे संभालने का काम राजनीतिक चातुर्य और परिपक्वता का है। मौके कम आते हैं। और गवां देने के लिए नहीं आते!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)


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