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लोकसभा चुनाव से पहले राहुल की न्याय यात्रा की धूम

कांग्रेस विधानसभा हारी और एक बार फिर बोझ राहुल के सिर आ गया

लोकसभा चुनाव से पहले राहुल की न्याय यात्रा की धूम
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- शकील अख्तर

कांग्रेस विधानसभा हारी और एक बार फिर बोझ राहुल के सिर आ गया। कांग्रेसी यह कभी नहीं समझते कि अपने नेता को कितना दौड़ाना चाहिए। जैसे रेस के घोड़े पर दांव लगा होता तो उसकी चिन्ता नहीं की जाती सिर्फ जीत के नोट ही नोट दिखाई देते हैं। वैसे ही कांग्रेसियों को राहुल में अपने हित दिखाई देते हैं। राहुल की सफलता का मतलब उन्हें सत्ता मिलना है। उनके धंधे पानी चलना है। उन्हें न कांग्रेस से मतलब ने नेहरू गांधी परिवार से।

राहुल की पहली यात्रा एक साहसिक पहल थी और यह दूसरी उसकी निर्णायक परिणीति! जो माहौल पिछले साल राहुल की भारत जोड़ो यात्रा ने बनाया था जिसके परिणामस्वरूप कांग्रेस ने दक्खन फतह की। दो दक्षिणी राज्यों में चुनाव हुए दोनों जगह पहले कर्नाटक और फिर तेलंगाना में कांग्रेस जीती और सबसे बड़ी बात कि जिस विपक्षी एकता से सत्ता पक्ष घबराया हुआ था वह हुई।

इंडिया गठबंधन बना। और एक सीट पर एक लड़ने की सहमति हुई। हालांकि हिन्दी प्रदेश के तीन राज्यों में कांग्रेस बीजेपी से सीधे मुकाबले में हारी। मगर यह बीजेपी की जीत कम और कांग्रेस की हार ज्यादा थी। और कांग्रेस की हार अपने राज्य के नेताओं पर सब कु छ छोड़ देने के कारण थी।

कांग्रेस के राज्यों के नेता थोड़ी सी ताकत पाते ही खुद को सर्वेसर्वा समझने लगते हैं। वे समझते हैं कि वोट उनके नाम से मिलते हैं। जबकि वोट कांग्रेस की प्रगतिशील नीतियों उसके जनसमर्थक रवैये एवं नेहरू गांधी परिवार के नाम से मिलते हैं।

क्या कांग्रेस के क्षत्रप कभी यह सोचते हैं कि पहली यात्रा भी राहुल की दूसरी भी उनकी! क्यों? क्या क्षत्रप जो विधानसभा हारने से पहले राहुल का विकल्प बनने की सोच रहे थे एक यात्रा भी अपने राज्य के अलावा पड़ोसी राज्य में भी निकाल सकते हैं? अपने राज्य में भी निकालने को निकाल लें। मगर लोग कितने आएंगे? प्रभाव कितना पड़ेगा?

क्या राहुल की पहली यात्रा के बाद जिस तरह सब विपक्षी दल गठबंधन के लिए मान गए। वैसे क्या वे अपने राज्य में प्रभाव पैदा कर सकते हैं? इसका जवाब है कि नहीं! इसीलिए राहुल को दूसरी यात्रा शुरू करना पड़ी।

समय कम था। लोकसभा चुनाव सिर पर खड़े हैं। और सबसे बड़ी बात राहुल के घुटने की चोट। पहली यात्रा के समय भी वह पुरानी चोट उभर आई थी। खिलाड़ियों के साथ यह समस्या होती है। खासतौर पर फुटबाल खेलने वालों के। राहुल की प्रारम्भिक शिक्षा सेंट कोलम्बस में हुई। वहां वे फुटबाल ही खेलते थे। जब 1984 में इन्दिरा गांधी की हत्या हुई तो उस राहुल सेंट कोलम्बस में ही थे। वहीं से उन्हें कड़ी सुरक्षा में ले जाया गया था। सुरक्षा की शुरूआत वहीं से हुई। उससे पहले राहुल सामान्य छात्र की तरह खेलते पढ़ते थे।

खैर तो यह बीड़ा फिर राहुल को उठाना पड़ा। अगर कांग्रेस के क्षत्रप कमलनाथ मध्य प्रदेश में अहंकार, राजस्थान में गहलोत और पायलट आपसी झगड़े और छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल मीडिया पर अति निर्भरता और उसके कारण उपजी आत्ममुग्धता छोड़ देते तो राहुल को इस दूसरी यात्रा पर नहीं निकलना पड़ता। तीनों राज्य कांग्रेस जीत जाती। और उससे बने माहौल के जरिए कांग्रेस और इन्डिया गठबंधन जीत के आत्मविश्वास के साथ लोकसभा चुनाव में जाते।

मगर कांग्रेस विधानसभा हारी और एक बार फिर बोझ राहुल के सिर आ गया। कांग्रेसी यह कभी नहीं समझते कि अपने नेता को कितना दौड़ाना चाहिए। जैसे रेस के घोड़े पर दांव लगा होता तो उसकी चिन्ता नहीं की जाती सिर्फ जीत के नोट ही नोट दिखाई देते हैं। वैसे ही कांग्रेसियों को राहुल में अपने हित दिखाई देते हैं। राहुल की सफलता का मतलब उन्हें सत्ता मिलना है। उनके धंधे पानी चलना है। उन्हें न कांग्रेस से मतलब ने नेहरू गांधी परिवार से।

हमने कांग्रेस के करीब एक दर्जन बड़े नेताओं से बात की होगी जो 2012 से 2014 तक सरकार में और पार्टी में टाप हैसियत में थे कि अन्ना हजारे जैसे नकली आंदोलन को वे क्यों नहीं समझ पाए और उससे क्यों नहीं निपट पाए? दूसरे सारे मुद्दों पर ज्ञान प्रदर्शन करने वाले इन नेताओं में से किसी के पास कोई जवाब नहीं था। केवल वे अन्ना जी, हजारे जी ही कहते रह गए। मतलब ये सारे नेता अनुकूल परिस्थितियों के हैं। प्रतिकूल परिस्थितियां में यह हाथ पांव डाल देते हैं।

याद कीजिये 1977 से 1980। अगर इन्दिरा गांधी और संजय गांधी हिम्मत नहीं करते तो क्या कांग्रेस वापस आ सकती थी? 1991 में कांग्रेस सरकार क्या हत्या से पहले राजीव गांधी की मेहनत के बिना आ सकती थी? 2004 में सोनिया गांधी कमर कस के नहीं निकलतीं तो क्या इन कांग्रेसियों को दस साल सत्ता सुख मिल सकता था? और इसीलिए अब राहुल को दूसरी बार भारत यात्रा पर निकलना पड़ रहा है। भारत के इतिहास में यह पहला मौका है जब कोई दूसरी बार इतनी बड़ी यात्रा कर रहा हो। पहली यात्रा साढ़े चार महीने की थी। दूसरी चूंकि लोकसभा चुनाव बिल्कुल सिर पर आ गए इसलिए कम समय करीब सवा दो महीने की है। मगर दूरी पहली यात्रा से लगभग दो गुने के करीब कवर करेगी।

पहली यात्रा जो सितम्बर 2022 में कन्याकुमारी से शुरू हुई थी वह श्रीनगर, कश्मीर तक 30 जनवरी 2023 तक चार हजार किलोमीटर मीटर पैदल चलकर राहुल ने पूरी की थी। साथ में सौ से ऊपर भारत यात्री थे जो पूरी यात्रा उनके साथ पैदल चले थे। इस बार पूर्व से पश्चिम की यात्रा 6700 किलोमीटर से ज्यादा चलने वाली है। मगर समय कम होने के कारण यह यात्रा पूरी पैदल नहीं होगी। प्रतिदिन कुछ किलोमीटर पैदल लोगों के दु:ख दर्द सुनते हुए उन्हें हिम्मत बंधाते हुए राहुल चलेंगे। और कुछ समय बस में। यहां भी लोग उनके साथ बैठेंगे, बात करेंगे और फिर कहीं राहुल उतर कर पैदल चलने लगेंगे।

मीडिया को फिर एक काम मिल गया है। पहली यात्रा में उसने कंटेनर राहुल की टी शर्ट और ऐसे ही कई सासनुमा सवाल उठाए थे। लेकिन यात्रा की अभूतपूर्व सफलता ने उसके किसी सवाल को मुद्दा नहीं बनने दिया। अब फिर बस में क्यों, अरुणाचल क्यों नहीं, दाढ़ी बढ़ाएंगे कि नहीं जैसे सवाल उठाना शुरु कर दिए हैं। यात्रा मार्ग में अरुणाचल तो शामिल है। मगर कोई बात नहीं दाढ़ी के बारे में बताओ? भैया, बहना किसी की दाढ़ी के बारे में कोई कैसे बता सकता है? तो बस के बारे में बताओ? पैदल भी चलेंगे! अच्छा तो कौन से जूते पहनकर?

यह मीडिया है! जो गोदी मीडिया कहने पर नाराज हो जाता है। मगर एक भी रिपोर्ट में यह नहीं बताता, इस विषय पर डिबेट नहीं करता कि यात्रा के साथ न्याय क्यों जोड़ा गया है? न्यायपूर्ण माहौल की जरूरत आज इतनी ज्यादा क्यों है? सारी संवैधानिक संस्थाएं धराशाई क्यों हो गई हैं? और खास तौर से मीडिया, प्रेस जिसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है उसकी हालत क्या है? रिपोर्टर एंकर को क्या आज मीडिया कंपनी नियुक्तिदेती है या कोई और कहता है कि इसे लगाना है, इसे निकालना है।
अब तो लोगों को पता भी नहीं होगा कि पहले टाइम्स आफ इंडिया, नवभारत टाइम्स और इस ग्रुप की सभी पत्र-पत्रिकाओं में नियुक्तियां एक अखिल भारतीय परीक्षा के द्वारा होती थी। कठिन लिखित परीक्षा और उससे भी कड़ा इंटरव्यू। सिफारिशों का काम लालकृष्ण आडवानी ने शुरू किया। 1977 में केन्द्रीय सूचना प्रसारण मंत्री बनने के बाद उन्होंने संघ के स्वयंसेवकों को सभी बड़े अखबारों, रेडियो दूरदर्शन में घुसा दिया। वाजपेयी के टाइम में भी आडवानी ने यही किया। और कांग्रेस ने क्या किया? उनके लगाए लोगों को और पदोन्नतियां दीं।

खैर तो यह मीडिया अब कांग्रेस से खूब बदले ले रहा है। जिसके दोषी खुद कांग्रेसी ही हैं। मगर एक कांग्रेसी में वह क्षमता है जो अभी भी पूरी तरह प्रतिकूल परिस्थिति में कोई समझौता नहीं करता। लगातार लड़ता रहता है। दूसरों से कहता है तो खुद अमल करता है कि डरो मत!

और वही राहुल गांधी एक बार फिर मैदान में है। उस मणिपुर से यात्रा शुरू कर रहे हैं जहां प्रधानमंत्री मोदी एक बार भी नहीं जा पाए। और राहुल दूसरी बार जा रहे हैं।
बाकी अब जनता को देखना है। कौन क्या कर रहा है क्या नहीं यह सबके सामने है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)


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