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नयी चुनौतियों के बीच राहुल की यात्रा-2

मकर संक्रांति, रविवार को उत्तरायण होते सूर्य की धूप में राहुल गांधी अपनी बहुप्रतीक्षित 'भारत जोड़ो न्याय यात्रा' पर निकल पड़े हैं

नयी चुनौतियों के बीच राहुल की यात्रा-2
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मकर संक्रांति, रविवार को उत्तरायण होते सूर्य की धूप में राहुल गांधी अपनी बहुप्रतीक्षित 'भारत जोड़ो न्याय यात्रा' पर निकल पड़े हैं। 7 सितम्बर, 2022 को कन्याकुमारी से चलकर 30 जनवरी, 2023 को श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा फहराकर पूर्ण हुए उनके मार्च से इस बार की यात्रा दूरी के मामले में विस्तारित है तो उद्देश्य के लिहाज से वृहत्तर। पहले वे 4 हजार किलोमीटर चले थे, अब 6200 किमी नापेंगे। उस बार पूरा पैदल चले थे, अबकी पांव-पांव चलने के साथ वाहन में भी चलेंगे। पिछले वक्तदक्षिण से उत्तर की ओर बढ़े थे, अब पूर्वोत्तर के हिंसाग्रस्त मणिपुर से निकलकर पश्चिमी छोर में अरब सागर तीरे बसी देश की आर्थिक राजधानी मुम्बई को 20 मार्च को छुएंगे।

फर्क केवल किमी की घट-बढ़ का नहीं है, न ही यात्रा के तरीकों का है। अंतर है परिस्थितियों का जिनके बीच राहुल का सफर शुरू हुआ है, नयी चुनौतियों का है; और बढ़ी हुई जिम्मेदारियों का भी। उनकी दोनों यात्राओं में समानता एक ही है- अंधकार में प्रकाश फैलाने की जो जिम्मेदारी हर नागरिक की है, उसे वे भी निभा रहे हैं- एक राजनैतिक संगठन के नेता के तौर पर उनके द्वारा किये जा रहे उत्तरदायित्व के निर्वाह की बात तो बाद में की जाये।

राहुल की यह यात्रा ऐसे वक्त में हो रही है, जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का देश के सभी अंगों पर पूर्ण नियंत्रण है। इनमें उनकी अपनी भारतीय जनता पार्टी, मातृसंस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, संसद, कार्यपालिका, संवैधानिक संस्थाएं, मीडिया सारा कुछ शामिल है। गिने-चुने लोग जो उनके खिलाफ आवाजें उठा रहे हैं, उनके दरवाजों पर केन्द्रीय जांच एजेंसियां दस्तक देने में कोई देर नहीं करतीं। कई विपक्षी नेता, लेखक-पत्रकार, सामाजिक-मानवाधिकार कार्यकर्ता जेलों में जमानत पाने का इंतज़ार कर रहे हैं। निर्वाचन आयोग हो या लोकसभा-राज्यसभा को संचालित करने वाले अध्यक्ष-सभापति- सभी के मुखों से मोदी की भाषा ही निकल रही है।

राहुल तो सांसदी जाने के बाद सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद वापस भी आ गये लेकिन तृणमूल कांग्रेस की महुआ मोईत्रा इसे बचाने की जद्दोजहद में हैं। बदहाली, महंगाई, गरीबी समेत तमाम नाकामियों और भ्रष्टाचार के अनेक आरोपों के बावजूद देश में मोदी को लेकर अंधभक्ति बढ़ रही है। ऐसे में देश का आम चुनाव आन पहुंचा है। तीसरी मर्तबा प्रधानमंत्री बनने के लिये मोदी ने अपनी सरकार, संगठन, कार्यकर्ताओं एवं समर्थकों की सारी ताकत झोंक दी है। अयोध्या में 22 जनवरी को निर्धारित राममंदिर का जिसे उद्घाटन समारोह कहा जा रहा है, वह दरअसल मोदी और भाजपा के प्रचार अभियान का सबसे बड़ा आयोजन है। मोदी को तीसरी बार अपने पूंजीपति मित्रों के लिये सत्ता में आना जितना आवश्यक है, उन्हें खुद के लिये भी सत्ता की सुरक्षा उतनी ही ज़रूरी है ताकि वे अपने आप को उन आरोपों से बचाकर रख सकें जो पिछले दिनों उन पर लगे हैं।

सरकार के विरोध में उठती हर आवाज व लोकतांत्रिक शक्तियों को मौन करने में श्री मोदी, अमित शाह, भाजपा के बड़े नेता, केन्द्रीय जांच एजेंसियां सभी का योगदान है। इसके लिये समाज का जो ध्रुवीकरण हुआ और जिस प्रकार से उसे अगड़ों-पिछड़ों में बांटा गया, उसने राहुल को 'नफ़रत के खिलाफ़ मोहब्बत की दूकान' खोलने के लिये प्रेरित किया। उन्हें मिले अपार जनसमर्थन ने जहां सभी का राहुल के प्रति देखने का नज़रिया बदला, वहीं कांग्रेस को खोई शक्ति मिली। इसी के कारण उसके ईर्द-गिर्द दो दर्जन से अधिक गैर भाजपायी दल एकत्र हुए जिन्होंने 'इंडिया' गठबन्धन बनाया। पहली बार मोदी के दस साला कार्यकाल में उन्हें गम्भीर चुनौती मिलती हुई दिख रही है। जहां राहुल ने बिना डरे पहली यात्रा पूरी की और मोदी व उनकी सरकार पर हमले जारी रखे, उसने अन्य विपक्षियों को भी हौसले प्रदान किये। यही कारण है कि गठबन्धन अक्षुण्ण है, कांग्रेस के नेतृत्व को स्वीकारता हुआ बना हुआ है और कतिपय आंतरिक दिक्कतों के बावजूद खुद को कोई भी दल अलग नहीं कर रहा है। इंडिया की देखा-देखी भाजपा प्रणीत एनडीए में गिने-चुने ही ऐसे दल हैं जिनकी पहचान व अपने हलकों में संसदीय उपस्थिति हो।

तो इस बार कांग्रेस व राहुल के पीछे सहयोगी दलों की भी ताकत है। कर्नाटक व तेलंगाना विधानसभा चुनावों में भाजपा की पराजयों के बाद दक्षिण भारत के दरवाजे लगभग बन्द माने जा रहे हैं, तो वहीं दूसरी तरफ मणिपुर की घटनाओं ने पूर्वोत्तर राज्यों में भी भाजपा को बहुत अलोकप्रिय बना दिया है। वहां अब असम को छोड़कर ज्यादातर राज्यों में भाजपा बेहद कमजोर दिख रही है। अब उसके पास लोकसभा चुनाव में जीत हासिल करने के लिये हिन्दीभाषी व उससे जुड़े राज्यों का ही आसरा है, जो तकरीबन दस हैं। इनमें छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश व राजस्थान को हाल में जीतकर भाजपा का हौसला बढ़ा है परन्तु पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश एवं महाराष्ट्र में गठबन्धन या तो भाजपा को टक्कर दे रहा है अथवा उससे अधिक मजबूत है।

मणिपुर की राजधानी इम्फाल की बजाय उससे 28 किलोमीटर दूर स्थित थौबल से थोड़े से समर्थकों के साथ यात्रा निकालने के लिये अनुमति दी गई है। साथ ही, असम में उन्हें रात न गुजारने के लिये कहा गया है। ये बातें बतलाती हैं कि इस बार यात्रा अधिक चुनौतीपूर्ण रहेगी। यात्रा के मार्ग पर लगभग 350 लोकसभा सीटें पड़ेंगी जिनमें कांग्रेस की बामुश्किल दर्जन भर हैं- भाजपा या कांग्रेस के सहयोगियों की ज्यादा हैं। भाजपा को अपदस्थ करना मुख्य चुनौती है। देखना होगा कि इसमें राहुल कितने कामयाब होते हैं।


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