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राहुल बने विपक्ष की आवाज

9 साल में पहली बार कांग्रेस के हाथ में पत्ते आए हैं। अब उन्हें अच्छी तरह खेलना या बाजी खराब कर देना खुद उसके हाथ में है

राहुल बने विपक्ष की आवाज
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- शकील अख्तर

हिंसा कोई पसंद नहीं करता। सिवाय विभाजन की राजनीति करने वालों के। हिंसा की आग वह है जो किसी को नहीं बख्शती। विभाजन की राजनीति अगर शुरू हो जाए तो वह विभाजन को बढ़ाती चली जाती है। केवल हिन्दू-मुसलमान तक सीमित नहीं रहती। वह दलित, पिछड़ों आदिवासियों, महिलाओं के खिलाफ भी उतनी ही नफरत से काम करती है।

9 साल में पहली बार कांग्रेस के हाथ में पत्ते आए हैं। अब उन्हें अच्छी तरह खेलना या बाजी खराब कर देना खुद उसके हाथ में है। यह साल कांग्रेस के लिए बहुत महत्वपूर्ण होने जा रहा है। साल का पूर्वार्ध (पहला हिस्सा) राहुल के नाम रहा। राहुल की यात्रा, लोकसभा में उनका अडानी पर जोरदार हमला, जिसका खासतौर पर लालू जी ने पटना की विपक्षी एकता की मीटिंग में जिक्र किया। उसके बाद उनकी लोकसभा की सदस्यता छीनना, मकान खाली करवाना, बहुत सफल अमेरिका यात्रा, विपक्ष का एक होने पर तैयार होना, पटना मिटिंग और उसमें राहुल का आकर्षण का केन्द्र बनना और अभी सारे खतरों की चेतावनियों को नजरअंदाज करके मणिपुर जाना।

साल के पूर्वार्ध के बाद उत्तरार्ध ( साल का आखिरी हिस्सा)को भी ऐसे ही जाना है। पांच राज्यों के चुनावी नतीजों के साथ। यह साल राहुल का बन रहा है। पहली बार है कि मोदी सरकार, भाजपा, गोदी मीडिया राहुल की बहुत मेहनत और हजारों करोड़ रुपए खर्च करके बनाई पप्पू छवि को भूलकर यह बताने में लगा है कि अगर राहुल गांधी प्रधानमंत्री बन जाएंगे तो क्या हो जाएगा।

मनोविज्ञान में इसे कहते हैं कि आप चाहते नहीं हो मगर आपको लगता है कि यह हो जाएगा। आप भयदशा में चले जाते हैं। वही स्थिति है। केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह जिन्हें मीडिया चाणक्य के रूप में प्रचारित करती है वह कह रहे हैं कि राहुल अगर प्रधानमंत्री बन गए तो यह हो जाएगा वह हो जाएगा।

मतलब अब उन्हें राहुल के प्रधानमंत्री बनने की संभावना दिखने लगी है। इसी तरह मीडिया सर्वे करवा रहा है कि प्रधानमंत्री कौन? राहुल या मोदी? मतलब अब यह सवाल उनका खुद ही खत्म हो गया है कि मोदी के मुकाबले कौन? अमित शाह से लेकर मीडिया सबने मान लिया कि मुकाबला राहुल से हैं। इसी तरह विपक्ष की पटना बैठक में भी जिस तरह सभी विपक्षी नेताओं ने राहुल की भारत जोड़ो यात्रा की तारीफ की वह बताता है कि सबको भरोसा हो गया कि यह यात्रा मंजिल तक पहुंचाएगी। राहुल में वह क्षमता है, हिम्मत है कि वह 2024 में तख्ता पलट सकता है।

राहुल से लगाई जा रही यह उम्मीदें कितनी सच साबित होंगी इसका पता भी इसी साल चल जाएगा। इस साल पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हैं। असली सेमीफाइनल। तीन राज्यों में सीधा मुकाबला कांग्रेस और भाजपा का है। मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़। प्रधानमंत्री मोदी तीनों जगह हो आए हैं। जैसा कर्नाटक में लड़ा था वैसे ही इन तीनों राज्यों में भी मोदी खुद ही चुनाव लड़ेंगे।

कर्नाटक में वे हार गए थे। इसलिए इस बार उन्होंने चार महीने पहले से चुनाव अभियान शुरू कर दिया है। मुद्दा वही हिन्दू-मुसलमान है। यूनिफार्म सिविल कोड के बहाने सभी विभाजनकारी मुद्दे उठाए जाने शुरू हो गए हैं। जनता का यह असली इम्तहान है कि क्या वह इन बांटने वाले मुद्दों में फंसेगी या अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी के सवालों पर वोट करेगी।

महंगाई, बेरोजगारी लगातार बढ़ती जा रही है। और सबसे बड़े आश्चर्य की बात यह है कि इन पर ध्यान देने के बदले सरकार वही भावनात्मक मुद्दे उठाकर लोगों को बहकाने की कोशिश कर रही है। पूरा गोदी मीडिया, सरकार जनता के किसी सवाल पर बात नहीं कर रही है लेकिन हिन्दूृ-मुसलमान में कितना विभाजन हो सकता है इस पर पूरी ताकत लगाए हुए है।

मणिपुर की हिंसा से कुछ सीखने को तैयार नहीं है कि विभाजन और नफरत की राजनीति ने देश के इस सीमावर्ती राज्य में कैसे गृह युद्ध की स्थिति पैदा कर दी है। दो महीने हो गए हिंसा रुकने का नाम नहीं ले रही। भीड़ तंत्र इतना हावी हो गया है कि सेना के हाथों से लोग अपने आदमियों को छुड़ाकर ले जा रहे हैं। पुलिस से हथियार, गोला, बारूद छीन रहे हैं।

राहुल वहां गए तो दो दिन में दुनिया के सामने वह सारी तस्वीरें आ गईं जो दो महीने से छुपाई जा रही थीं। राहत कैम्पों का कितना बुरा हाल है। बच्चों के चेहरों पर कैसी दहशत है। राहुल के साथ बैठकर, खाना खाकर वे कितने खुश दिख रहे हैं। महिलाएं किस कदर राहुल से मिलकर फूट-फूट कर रो रही हैं। सेना के जवान कितनी उम्मीदों के साथ राहुल से मिल रहे हैं। खुद राज्यपाल तक जो महिला हैं अनसुइया उइके वे उन्हें आशा भरी निगाहों से देख रही हैं।

हिंसा कोई पसंद नहीं करता। सिवाय विभाजन की राजनीति करने वालों के। हिंसा की आग वह है जो किसी को नहीं बख्शती। विभाजन की राजनीति अगर शुरू हो जाए तो वह विभाजन को बढ़ाती चली जाती है। केवल हिन्दू-मुसलमान तक सीमित नहीं रहती। वह दलित, पिछड़ों आदिवासियों, महिलाओं के खिलाफ भी उतनी ही नफरत से काम करती है। और कई बार मुसलमानों से ज्यादा। मुसलमानों से नफरत की राजनीति तो अभी नई शुरु हुई है मगर दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों को दबाकर रखने की व्यवस्था तो सदियों से चल रही है। यथास्थितिवादी ताकतों को सबसे ज्यादा खतरा इन्हीं से है। दलित पिछड़े आदिवासी ही सामाजिक न्याय मांग रहे हैं। वे ही जातिगत जनगणना की मांग कर रहे हैं। सत्ता में हिस्सा उन्हें चाहिए। नौकरियों में कम किया जा रहा आरक्षण उन्हें कमजोर कर रहा है।

लेकिन उन्हें दबाने के लिए उनका ध्यान भटकाया जा रहा है। अपने बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, नौकरी, सम्मान से जीने की ललक वे भूले रहें इसलिए उन्हें मुसलमानों के सामने खड़ा किया जाता है। किसी भी धार्मिक जुलूस में या अभी शुरू होने वाली कांवड़ यात्रा में सबसे ज्यादा तादाद दलित और पिछड़ों की होती है। समाज में ऊंचा स्थान रखने वाली सम्पन्न जातियों के लड़के इसमें शामिल नहीं होते हैं। दलितों को इन धार्मिक यात्राओं में कुछ दिन सम्मान देकर बाकी दिनों के लिए उन्हें उनकी स्थिति में रहने के लिए कहा जाता है।

मारपीट कर आतंक के जरिए। अभी मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले में एक दलित पति-पत्नी और उनकी दूधमुंही बच्ची को बुरी तरह इसलिए मारा-पीटा गया कि वे बाइक से सवर्णों के घर के सामने से निकल रहे थे। पति की तो टांगें तोड़ दी गईं। वह अस्पताल में भर्ती है। दूधमूंही बच्ची तक को मारा गया। दलित दंपत्ति से कहा गया कि हमारे घर के सामने से अपने जूते, चप्पल सिर पर रखकर निकलो।

इससे पहले इसी छतरपुर में एक दलित दुल्हे के घोड़ी पर बैठने पर पथराव हुआ था। बारात पुलिस सुरक्षा में निकली थी। और इसी जिले में धीरेन्द्र शास्त्री का आश्रम है। जो रोज हिन्दू-मुसलमान करते हैं और उनका भाई अभी दलित की शादी में गाली-गलौज करने, कट्टे से फायर करने के आरोप में गिरफ्तार हुआ। यही राजनीति है। कांग्रेस भी इसमें फंस गई थी। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ और उनके पहले वाले अरुण यादव दोनों धीरेन्द्र शास्त्री का आशीर्वाद लेने छतरपुर हो आए हैं। मगर मध्यप्रदेश में सबको मालूम है कि वे जिस तरह हिन्दू-मुसलमान की बात कर रहे हैं वह किसके फायदे में जाएगी। अभी एक दलित डिप्टी कलेक्टर निशा बांगरे को मध्यप्रदेश में अपनी नौकरी छोड़ना पड़ी। लेकिन यह सारे सवाल न उठें इसलिए हिन्दू -मुसलमान का ढोल बजाया जाता है।

2024 लोकसभा तक इस ढोल की आवाज को और तेज किया जाएगा। ताकि जनता की आवाज नहीं आए। मगर राहुल अब पूरे विपक्ष के साथ जनता की आवाज बन गए हैं। जिसे दबाया नहीं जा सकता।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)


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