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संसद के सवाल और विपक्ष का दायित्व

एनडीए सरकार के दूसरे कार्यकाल का अंतिम शीतकालीन सत्र कई सुलगते सवालों को छोड़ गया है

संसद के सवाल और विपक्ष का दायित्व
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एनडीए सरकार के दूसरे कार्यकाल का अंतिम शीतकालीन सत्र कई सुलगते सवालों को छोड़ गया है। इन सवालों के जवाब अभी गंभीरता से नहीं तलाशे गए, तो फिर देश में लोकतंत्र और संसदीय परंपराओं को उखड़ने से रोक पाना कठिन हो जाएगा। संसद पर हमला, 146 सांसदों के निलंबन के बाद अब ये तथ्य भी सामने आया है कि संसद में दोनों सदनों में विपक्ष के सांसदों द्वारा पूछे गए 264 सवालों को प्रश्नों की सूची से हटा दिया गया है। ये तमाम बातें भारत के संसदीय इतिहास में पहली बार ही हो रही हैं। 76 साल की आजादी और लोकतंत्र के दीर्घ अनुभव के बाद संसदीय कामकाज में परिपक्वता, धैर्य और संयम दिखाई देने चाहिए थे, लेकिन फिलहाल लग रहा है कि हमें संसदीय तकाजे का ककहरा फिर से सीखना पड़ेगा।

गौरतलब है कि इस शीतकालीन सत्र में संसद पर एक और हमले की कोशिश की गई थी। एकबारगी यह हमला मौजूदा सरकार की नीतियों और फैसलों के खिलाफ दिखाई देता है। लेकिन अगर देश के एक तबके में भाजपा के शासन को लेकर इतनी अधिक नाराजगी व्याप्त है कि उसके लिए संसद पर हमले का दुस्साहस किया जाए, तो फिर यह नाराजगी चुनावी नतीजों में क्यों नहीं दिखाई देती। क्या संसद पर हमला करने वाले जानते नहीं थे कि इसका अंजाम क्या होने वाला है। क्या कानून की कड़ाई का अंदाज होने के बावजूद उन्होंने इस जोखिम को उठाया और अपना भविष्य, जीवन सब कुछ खतरे में डाला। कुछ लोगों का पूरे योजनाबद्ध तरीके से संसद के बाहर और भीतर आकर विरोध दिखाना किसी नजरिए से मामूली घटना नहीं है, लेकिन इस पर सरकार का रवैया देखकर यह लग ही नहीं रहा कि उसे किसी बात की चिंता हुई हो। क्या भाजपा अपने बहुमत को कवच इस कदर अभेद्य मानने लगी है कि उसे इस बात से भी फर्क नहीं पड़ रहा कि दो लोग संसद के भीतर आकर धुआं छोड़ गए।

संसद पर हमले को लेकर भाजपा सरकार का रवैया जितना आश्चर्यजनक रहा, उससे कहीं अधिक आश्चर्य यह देखकर हुआ कि गृहमंत्री से सदन में जवाब की मांग कर रहे विपक्ष के 146 सांसदों को दो-तीन दिन के भीतर निलंबित कर दिया गया। सदन पर हुए हमले का जवाब अगर सदन में नहीं मांगा जाएगा, तो फिर उसके लिए कौन सी अन्य जगह उपयक्त है, यह भी भाजपा को बता देना चाहिए। लगभग डेढ़ सौ सांसदों का निलंबन काफी नहीं था कि संसद के दोनों सदनों की सूची से उन 264 सवालों को भी हटा दिया गया, जो विपक्षी सांसदों ने पूछे थे। सरकार से पूछा जाना चाहिए कि क्या इन सवालों से भी सदन की कार्रवाई में व्यवधान पड़ रहा था। उल्लेखनीय है कि सांसदों के निलंबन के बाद लोकसभा सचिवालय द्वारा जारी एक परिपत्र में कहा गया है कि निलंबन अवधि के दौरान सांसदों के नाम के तहत सूचीबद्ध किसी भी कार्य या उनके द्वारा पेश किए गए नोटिस पर विचार नहीं किया जाएगा। संसद के प्रश्नकाल और शून्यकाल सांसदों को प्रश्न पूछने और सरकार के खिलाफ विचार व्यक्त करने की अनुमति देते हैं। इससे पहले भी विभिन्न सत्रों में सांसदों के निलंबन होते रहे हैं, लेकिन ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि निलंबन के साथ ही सांसदों के सवाल उठाने के संवैधानिक अधिकार को भी खत्म कर दिया गया है।

ऐसा नहीं है कि खारिज किए गए सभी 264 सवाल संसद की सुरक्षा के मसले से ही जुड़े थे, अगर जुड़े होते तब भी सरकार को इनका जवाब देना चाहिए था। लेकिन ये सवाल जनता के हित से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर आधारित थे। जैसे राजद सांसद मनोज झा ने शिक्षा मंत्रालय से दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षकों के 'बड़े पैमाने पर हटानेÓ संबंधी सवाल किए थे। माकपा के सांसद जॉन ब्रिटास ने समान नागरिक संहिता के कार्यान्वयन पर कानून मंत्रालय से जानकारी मांगी थी। मगर अब इनका जवाब देने से मौजूदा सरकार बच गई है। सांसदों के निलंबन की कार्रवाई तो बाद में हुई, लेकिन संसद के नियमानुसार ये सवाल लगभग दो सप्ताह पहले ही लिखित में दिए जा चुके थे। फिर इन्हें सूची से हटाना क्या न्यायोचित कहा जा सकता है।

कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने जंतर-मंतर पर किए गए प्रदर्शन के दौरान कहा था कि 146 सांसदों को निलंबित करके लगभग 60 प्रतिशत जनता की आवाज को खामोश कर दिया गया है। संसद की सूची से सवालों को हटाना इस आरोप की ही पुष्टि करता है। शीतकालीन सत्र में उठे इन सुलगते सवालों के जवाब तलाशना इसलिए जरूरी है क्योंकि दांव पर जनता और देश का हित जुड़ा है। अब प्रश्न ये है कि अगर कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका और इनका संगी बन चुका मीडिया भी अगर इन सवालों से मुंह मोड़ ले तो फिर विपक्ष को क्या करना चाहिए।

क्या विपक्ष लोकतंत्र बचाने के लिए केवल जुबानी जमा-खर्च करता रहेगा या राहुल गांधी जैसे दो-चार लोगों पर सड़कों पर उतरने का जिम्मा छोड़ देगा। अगर विपक्ष सड़क पर आता भी है तो क्या वह जनता तक अपनी बात पहुंचाने की तैयारी कर चुका है, या अब भी वो इंतजार में बैठा है कि कोई और आकर उसके हिस्से के काम करेगा। कायदे से अब विपक्षी सांसदों को अपने-अपने संसदीय क्षेत्र जाकर जनता से जुड़ने का काम शुरु कर देना चाहिए। संसद के पटल से जिन सवालों को हटा दिया गया है, उन्हें जनता के बीच जाकर उठाना चाहिए, वहां तो निलंबन की कार्रवाई का कोई परिपत्र असरकारी नहीं रहेगा। विपक्षी नेताओं को भाजपा के सांसदों और मंत्रियों के क्षेत्रों में जाकर उन सवालों को उठाना चाहिए, जिनके जवाब संसद में दिए जाने चाहिए थे, मगर नहीं दिए गए। विपक्ष जब तक अपने अस्तित्व का अहसास जनता को नहीं कराएगा, तब तक सारे विरोध-प्रदर्शन और सवाल बेकार रहेंगे।


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