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पुनि-पुनि गांधी हत्या!

अमृतकाल-पूर्व का भारत होता तो बेशक, इसके भोंडेपन पर आम तौर पर हंसा ही जा रहा होता

पुनि-पुनि गांधी हत्या!
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- राजेन्द्र शर्मा

इस सब की पृष्ठïभूमि में वर्तमान शासन द्वारा, जो गांधी के उस समावेशी राष्टï्रवाद को पलटकर, जिसका वर्तमान सत्ताधारी विचार परिवार आजादी की लड़ाई के पूरे दौर में बड़ी हिकारत से 'भौगोलिक राष्टï्रवाद' कहकर विरोध करता आया था, सांप्रदायिक हिंदुत्ववादी राष्टï्र थोपने में जुटा हुआ है, एक हिंदुत्ववादी संस्था को गांधी की शांति निष्ठïा से जुड़ा सम्मान देना, सहज ही यह शंका पैदा करता है।

अमृतकाल-पूर्व का भारत होता तो बेशक, इसके भोंडेपन पर आम तौर पर हंसा ही जा रहा होता। प्रधानमंत्री मोदी की अध्यक्षता में, उनकी सरकार के संस्कृति मंत्रालय के अंतर्गत काम करने वाली समिति, गोरखपुर के 'गीता प्रेस' को वर्ष 2021 के लिए 'गांधी शांति पुरस्कार' देने का ऐलान करती है। प्रधानमंत्री, ट्विटर पर एक संदेश के जरिए, गीता प्रेस को यह सम्मान प्राप्त होने के लिए बधाई देते हैं। और फिर, गीता प्रेस का न्यासी मंडल, यह सम्मान दिए जाने के लिए वर्तमान सरकार को और विशेष रूप से प्रधानमंत्री मोदी को धन्यवाद देता है! लेकिन, यही तो मोदी राज में आया संघ-भाजपा का अमृतकाल है, जहां इस तरह का भोंडापन ही नया सामान्य है—सब कुछ प्रधानमंत्री का, प्रधानमंत्री द्वारा और प्रधानमंत्री के लिए! लेकिन, चूंकि यह संघ-भाजपा का अमृतकाल है, इसीलिए इस तरह की निर्लज्जता के भोंडेपन पर तो शायद ही कोई उंगली उठाने में अपनी ऊर्जा बर्बाद कर रहा होगा। हां! 'गीता प्रेस' को न सिर्फ पुरस्कृत किए जाने बल्कि उसे 'गांधी शांति पुरस्कार' दिए जाने के अर्थ पर, जरूर अनेक सवाल उठे हैं। बहरहाल, कांग्रेस पार्टी की यह टिप्पणी तो एक प्रकार से मोदी सरकार के इस निर्णय के वास्तविक संदेश की कील पर, सीधे हथोड़ा ही जड़ देती है कि यह तो 'सावरकर और गोडसे को गांधी शांति पुरस्कार देेने' जैसा ही है!

यह किसी से छुपा नहीं है कि संघ परिवार का हमेशा से सावरकर ही नहीं गोडसे से भी गहरा लगाव रहा है। बेशक, महात्मा गांधी की हत्या के बाद, तत्काल सामने आई तीखी जन-प्रतिक्रिया और खासतौर पर तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल द्वारा इस स्पष्ट समझ के आधार पर कि सीधे हत्या में लिप्त अगर नहीं भी हों तब भी हिंदू महासभा और आरएसएस, नफरत का वह वातावरण बनाने के मुख्य अपराधी थे, जिसने अनेक जानें ली थीं, जिनमें सबसे अमूल्य महात्मा गांधी की जान भी शामिल थी; आरएसएस पर पाबंदी लगाए जाने के बाद, संघ ने गोडसे से अपने लगाव को छुपाना और उससे अपने किसी भी तरह के संबंध को नकारना जरूरी समझा था। फिर भी भीतर-भीतर उसने गोडसे प्रेम और गांधी द्वेष की अपनी अंतर्धारा को सायास सुरक्षित रखा था; जिसका पता 'गांधी वध क्यों?' जैसी किताबों के आरएसएस से जुड़े प्रकाशनों द्वारा लगातार छापे जाने और आरएसएस के प्रचार नेटवर्क पर हमेशा उपलब्ध रहने से चलता है।

जाहिर है कि इसी दबे-छुपे अनुमोदन की शह पर, संघ परिवार के हाशिए के संगठनों की मार्फत गोडसे को शहीद बताने, गोडसे का मंदिर बनाने, गोडसे का जन्मदिन मनाने आदि के रूप में, प्रकट गोडसे भक्ति भी चलती रही है। मोदी राज के नौ साल में, इस सब को काफी फूलने-फैलने का मौका मिला है और सोशल मीडिया में तो जैसे संघ से शहप्राप्त गांधी-घृणा और गोडसे प्रेम का विस्फोट ही हो गया है। इसमें गांधी के नाम से जुड़ी संस्थाओं पर कब्जा करने तथा उन्हें गांधी के मूल्यों से जुड़े अपने घोषित उद्देश्यों से उल्टी दिशा में धकेलने की वर्तमान सत्ताधारियों की लगातार जारी कोशिशों को और जोड़ लीजिए।

इस सब की पृष्ठïभूमि में वर्तमान शासन द्वारा, जो गांधी के उस समावेशी राष्टï्रवाद को पलटकर, जिसका वर्तमान सत्ताधारी विचार परिवार आजादी की लड़ाई के पूरे दौर में बड़ी हिकारत से 'भौगोलिक राष्टï्रवाद' कहकर विरोध करता आया था, सांप्रदायिक हिंदुत्ववादी राष्टï्र थोपने में जुटा हुआ है, एक हिंदुत्ववादी संस्था को गांधी की शांति निष्ठïा से जुड़ा सम्मान देना, सहज ही यह शंका पैदा करता है कि यह कहीं गांधी के नाम की ओट में, उनके मूल्यों को नकार, उनकी हत्या को ही तो आगे बढ़ाने का प्रयास तो नहीं है।

सामान्य रूप से भी यहां गांधी से जुड़े पुरस्कार से गोडसे को सम्मानित करने की उपमा लागू होती है। लेकिन, वर्तमान संघ-भाजपा निजाम ने, इस मामले में भी इस तरह की व्यंजनाओं की गुंजाइश तक नहीं छोड़ी है। नये संसद भवन का उद्ïघाटन, गांधी की हत्या के षड़यंत्र में शामिल होने के आरोप में अदालत के कटघरे मेें खड़े हुए, विनायक दामोदर सावरकर की जयंती पर करने के बाद, उसने गांधी शांति पुरुस्कार एक ऐसे हिंदुत्ववादी संगठन को दिया है, जिसके मुख्य कर्ताधर्ता, 'गीता प्रेस' के संस्थापक, जयदयाल गोयंदका और उसकी पत्रिका, 'कल्याण' के तत्कालीन संपादक, हनुमान प्रसाद पोद्दार को भी गांधी की हत्या से किसी न किसी रूप में जुड़े होने के संदेह में, गिरफ्तार किया गया था। बेशक, बाद में दूसरे बहुत से लोगों की तरह उन्हें भी छोड़ दिया गया। यहां तक कि 1955 में राष्टï्रपति राजेंद्र प्रसाद ने गोरखपुर में गीता प्रेस के विशाल परिसर का उद्ïघाटन भी किया था। लेकिन, इस पूरे प्रसंग से कम से कम इसका तो भलीभांति अंदाज लगाया ही जा सकता है कि गीता प्रेस और उसके प्रमुख प्रकाशन, कल्याण के कर्ताधर्ताओं और गांधी के रिश्ते, कम से कम ऐसे किसी भी तरह नहीं थे कि उनके काम को, किसी भी प्रकार से गांधी की परंपरा से जोड़ा जा सके। वे अगर किसी परंपरा में आते हैं, तो गांधी की हत्या करने वालों की ही परंपरा में आते हैं। गांंधी के नाम से जुड़ा पुरस्कार, गीता प्रेस को देकर वर्तमान सरकार ने, गांधी की हत्या की इस परंपरा को ही बल देने का प्रयास किया है।

बेशक, 1923 से शुरू हुए, गीता प्रेस का सौ साल पूरे करना एक महत्वपूर्ण मुकाम हासिल करना है। उसने खासतौर पर हिंदी भाषी क्षेत्र में नये-नये बनते हुए मध्यवर्ग के परिवारों की बड़ी संख्या तक, सस्ते दाम में रामायण, गीता तथा अन्य हिंदू धार्मिक पुस्तकें पहुंचाई हैं। उसकी पत्रिका, 'कल्याण' ने भी कुछ हद तक ऐसा ही काम किया है। करीब पौने दो हजार किताबें और नब्बे करोड़ से ज्यादा प्रतियां लोगों तक छापकर पहुंचाना, बेशक एक उल्लेखनीय उपलब्धि है, जिसके बल पर अपने इन सौ वर्षों में गीता प्रेस ने ङ्क्षहदीभाषी क्षेत्र में मध्य वर्ग की पूरी पहली पीढ़ी को कहीं न कहीं छुआ है।

वैसे गीता प्रेस के वेबसाइट पर ही स्पष्टï कर दिया गया है कि, 'इसका मुख्य उद्देश्य गीता, रामायण, उपनिषद, पुराण, प्रख्यात संतों के प्रवचन और अन्य चरित्र निर्माण पुस्तकों को प्रकाशित करके सनातन धर्म के सिद्घांतों को आम जनता के बीच प्रचारित करना और फैलाना है। साथ ही पत्रिकाओं को अत्यधिक रियायती कीमतों पर बेचना है।' तो क्या इस प्रकाशन को पुरस्कृत किए जाने का इसलिए विरोध किया जा रहा है कि यह हिंदू धर्म या कथित सनातन धर्म की पुस्तकों का, प्रकाशन तथा प्रसार करता रहा हैै। बेशक, ऐसी संस्था को जो किसी खास धर्म या उसके धार्मिक ग्रंथों का प्रचार-प्रसार करती हो, जिसकी हमारा धर्मनिरपेक्ष पूरी आजादी देता है, शासन द्वारा पुरस्कृत या प्रमोट किया जाना भी, अपने आप में समस्यापूर्ण है। और यह समस्या तब और बढ़ जाती है जब वर्तमान शासन की तरह नंगई से एक धर्म विशेष के धार्मिक ग्रंथों के प्रचार-प्रसार को प्रमोट करने वाली संस्थाओं को ही प्रमोट किया जाने लगा हो। फिर भी बात सिर्फ एक धर्म विशेष से जुड़ी संस्था को, एक खास अवसर पर शासन द्वारा पुरस्कृत किए जाने तक ही रहती, तब तो फिर भी गनीमत थी।

आखिरकार, गीता प्रेस के शताब्दी समारोह में तत्कालीन राष्टï्रपति, रामनाथ कोविंद गोरखपुर में शामिल होने पहुंचे ही थे और उस पर शायद ही कोई बहस हुई थी।
मोदी सरकार के प्रवक्ता और संघ परिवार, जो दिखाने की कोशिश कर रहे हैं, उसके विपरीत मुद्दा एक हिंदू धार्मिक प्रकाशन संस्थान की कामयाबी सेलिब्रेट किए जाने या नहीं किए जाने का दूर-दूर तक नहीं है। मुद्दा है, गांधी के नाम पर स्थापित शांति पुरुस्कार, मोदी सरकार द्वारा एक ऐसी संस्था को दिए जाने का, जिसका गांधी के साथ रिश्ता सहयोग से ज्यादा विरोध का ही रहा था और विरोध भी इतना उग्र कि उसने गांधी के संगियों के मन में उनकी हत्या में ही इस संस्था के कर्ताधर्ताओं का हाथ होने तक का संदेह पैदा किया था। और मुद्दा है ऐसी संस्था को यह कहकर गांधी के नाम से जुड़ा सम्मान दिए जाने का कि उसका 'अहिंसक और गांधीवादी तरीकों के माध्यम से सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन के लिए...उत्कृष्टï योगदान' रहा है और उसने 'लोगों के बीच सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन को आगे बढ़ाने की दिशा में, पिछले 100 वर्षों में सराहनीय काम किया है।' इस दावे का इस संस्था की वास्तविक भूमिका से दूर-दूर तक कुछ लेना-देना नहीं है। यह तो अपने हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक आग्रहों के हिसाब से इतिहास का वैसा ही पुनर्लेखन है, जिसके जरिए कितने ही क्षेत्रों में वास्तविक इतिहास को प्रतिस्थापित करने को, मौजूदा शासन ने अपना एजेंडा ही बना लिया है। बेशक, सावरकर और गोडसे के इतिहास का पुनर्लेखन भी, इस परियोजना का एक जरूरी हिस्सा है।

अक्षय मुकुल ने अपनी शानदार शोध-आधारित पुस्तक, 'गीता प्रेस एंड मेकिंग ऑफ हिंदू इंडिया' में विस्तार से इसका जिक्र किया कि किस तरह, इस ग्रुप के मुख्य विचारक रहे, हनूमान प्रसाद पोद्दार, शुरू में गांधी के हिंदू आचार-व्यवहार की ओर आकर्षित जरूर हुए थे, लेकिन उन्नीस सौ तीस के दशक के शुरू होते-होते, गांधी के अपनी सनातनी हिंदू आस्था को, हिंदू-मुस्लिम एकता के आग्रह और दलितों के मंदिर प्रवेश के आंदोलन और पूना पैक्ट के जरिए, जातिव्यवस्था के उत्पीड़ितों के अधिकारों के पक्ष में पुनर्परिभाषित करने ने, उन्हें गांधी के सक्रिय विरोध की ओर धकेल दिया गया। निजी व्यवहार में यह विरोध जितना तीखा था, उससे ज्यादा उग्र पोद्दार द्वारा संपादित पत्रिका के पन्नों पर नजर आता था। दूसरी ओर, गीता प्रेस और 'कल्याण' हिंदू महासभा और आएसएस जैसी हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक राष्टï्रवाद की ताकतों के साथ जुड़ते गए।

1946 में जब हिंदू महासभा का वार्षिक अधिवेशन गोरखपुर में हुआ, पोद्दार ने उसके मुख्य आयोजनकर्ता की जिम्मेदारी संभाली। इसी सब का नतीजा था कि गांधी की हत्या के बाद, जब शक की सुई हिंदू महासभा तथा आरएसएस की ओर घूमी, गीता प्रेस और कल्याण के कर्ताधर्ता भी पुलिस के राडार पर आ गए। दिलचस्प है कि जी डी बिड़ला ने उस समय, पोद्दार और गोइंदका के पक्ष में हस्तक्षेप करने से यह कहकर इंकार कर दिया था कि उनका काम 'सनातनी नहीं शैतानी' था। सनातन के नाम पर ऐसी शैतानी भूमिका को मोदी सरकार का 'अहिंसक और गांधीवादी तरीकों के माध्यम से सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन के लिए...उत्कृष्टï योगदान' बताना, गांधी की पुनि-पुनि हत्या करना नहीं तो और क्या है!
(लेखक साप्ताहिक पत्रिका लोक लहर के संपादक हैं।)


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