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संविधान की रक्षा लोकसभा चुनावों में एक प्रमुख मुद्दा बनकर उभरा

विपक्ष के इस अभियान को कि यह चुनाव संविधान की रक्षा के लिए है

संविधान की रक्षा लोकसभा चुनावों में एक प्रमुख मुद्दा बनकर उभरा
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- पी. सुधीर

विपक्ष के इस अभियान को कि यह चुनाव संविधान की रक्षा के लिए है, भाजपा उम्मीदवारों के ऐसे बयानों से और मजबूती मिली। भाजपा नेताओं, खासकर नरेंद्र मोदी और अमित शाह को जल्द ही इस बारे में रिपोर्ट मिल गई कि संविधान को खतरा का संदेश जनता तक पहुंचाने वाले लोगों की संख्या बढ़ रही है, खासकर दलितों के बीच, जो संविधान के निर्माता डॉ. अंबेडकर का बहुत ही सम्मान करते हैं।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत का संविधान और इसकी सुरक्षा लोकसभा चुनाव में मुख्य मुद्दों में से एक रहा। शुरू से ही, इंडिया गठबंधन की घटक पार्टियों के नेताओं ने अपने चुनावी मंच पर संविधान की रक्षा को केंद्रीय विषय के रूप में पेश किया था।

इसका लोगों की एक बड़ी संख्या पर बड़ा प्रभाव पड़ा, जिन्होंने पिछले एक दशक में देश में सत्तावादी शासन के विभिन्न पहलुओं का कटु अनुभव किया था। विपक्ष का 'संविधान खतरे में' विषय मोदी के भाजपा के लिए 400 से अधिक सीटों के आह्वान के साथ मेल खाता था। संविधान बदलने की धमकी को भाजपा के विभिन्न नेताओं द्वारा यह तर्क दिये जाने से बल मिला कि संविधान बदलने के लिए 400 सीटें या बड़ा बहुमत चाहिए।

9 मार्च को ही भाजपा सांसद अनंत कुमार हेगड़े ने कहा कि-भाजपा लोकसभा में 400 से अधिक सीटें जीतने का लक्ष्य इसलिए रख रही है, क्योंकि संविधान बदलने के लिए संसद में उसे दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता है। फैजाबाद से भाजपा सांसद लल्लू सिंह, नागौर से भाजपा उम्मीदवार ज्योति मिर्धा और मेरठ से भाजपा उम्मीदवार अरुण गोविल ने भी इसी तरह के विचार व्यक्त किये।

विपक्ष के इस अभियान को कि यह चुनाव संविधान की रक्षा के लिए है, भाजपा उम्मीदवारों के ऐसे बयानों से और मजबूती मिली। भाजपा नेताओं, खासकर नरेंद्र मोदी और अमित शाह को जल्द ही इस बारे में रिपोर्ट मिल गई कि संविधान को खतरा का संदेश जनता तक पहुंचाने वाले लोगों की संख्या बढ़ रही है, खासकर दलितों के बीच, जो संविधान के निर्माता डॉ. अंबेडकर का बहुत ही सम्मान करते हैं। यही कारण है कि मोदी ने विपक्ष के आरोपों का आक्रामक तरीके से जवाब देना शुरू कर दिया। मतदान के पहले चरण से पहले ही मोदी ने घोषणा कर दी थी कि पार्टी के लिए संविधान पवित्र पुस्तक है, सरकार के लिए संविधान गीता, रामायण, महाभारत, बाइबिल और कुरान है, और यहां तक कह दिया कि 'बाबासाहेब अंबेडकर भी इसे नहीं बदल सकते'।

यह तीखी आवाज और जवाबी हमला कि कांग्रेस और इंडिया ब्लॉक ही संविधान को बदलेंगे, सरासर झूठा आरोप था। वास्तव में इंडिया ब्लॉक का आरोप भाजपा नेताओं को चुभ गया और इसलिए अपराधबोध वाली ऐसी तीखी प्रतिक्रिया हुई।

'संविधान खतरे में' का दूसरा पहलू जिसने मोदी को परेशान किया, वह यह आरोप था कि संविधान में बदलाव से एससी, एसटी और ओबीसी के लिए आरक्षण खत्म हो जायेगा। मीडिया से बात करते हुए मतदाताओं के एक समूह ने इस डर को व्यक्त किया। मोदी ने संविधान बदलने के मुद्दे को सांप्रदायिक मोड़ देकर जवाबी हमला करने की कोशिश की। एक के बाद एक भाषणों में मोदी ने घोषणा की कि इंडिया ब्लॉक संविधान बदलना चाहता है, ताकि एससी, एसटी और ओबीसी के लिए आरक्षण काटकर मुसलमानों को धर्म के आधार पर आरक्षण दिया जा सके। मोदी और अमित शाह दोनों ने कर्नाटक और तेलंगाना में ओबीसी श्रेणी के तहत मुसलमानों को दिये गये 4 प्रतिशत आरक्षण का हवाला दिया। लगातार यह कहा जा रहा था कि कांग्रेस और इंडिया ब्लॉक न केवल आरक्षण छीन लेंगे, बल्कि हिंदुओं की संपत्ति भी मुसलमानों को सौंप देंगे।

लेकिन पिछड़े घोषित किये गये और ओबीसी दर्जा दिये गये मुस्लिम समूहों को दिये गये आरक्षण को धर्म आधारित आरक्षण के रूप में चित्रित करने का प्रयास एक झूठा प्रयास था। ओबीसी के मामले में, संविधान के अनुच्छेद 15 (4) और 16 (4) ने धर्म के बावजूद पिछड़ेपन के मानदंड निर्धारित किये हैं। मुस्लिम समूह, जिन्हें वैज्ञानिक सर्वेक्षण के बाद राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग द्वारा सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े के रूप में पहचाना गया था, कई राज्यों में ओबीसी श्रेणी में शामिल किये गये थे। वास्तव में, मोदी ने खुद दो साल पहले एएनआई के एक साक्षात्कार में गुजरात में 70 मुस्लिम समूहों को ओबीसी दर्जा दिलाने का श्रेय लिया था।

वास्तविकता यह है कि लोगों का एक बड़ा वर्ग भाजपा के खिलाफ मतदान करने के लिए उत्साहित रहा क्योंकि उनका मानना है कि मोदी सरकार लोकतंत्र और संविधान के लिए खतरा है। इसीलिए इस चुनाव के परिणाम और उसके बाद क्या होगा, इस बारे में बेचैनी का माहौल है। मोदी शासन के दस वर्षों ने राज्य के सभी संवैधानिक निकायों और संस्थाओं को नष्ट कर दिया है।

चुनाव के दौरान चुनाव आयोग ने जिस तरह से खुदको संचालित किया है, उससे यह आशंका पैदा हुई है कि क्या वह निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित कर सकता है और स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव की निगरानी कर सकता है? प्रधानमंत्री की भड़काऊ सांप्रदायिक चुनाव प्रचार को रोकने में घोर विफलता; व्यापक मतदान के आंकड़े उपलब्ध कराने में दिखाई गई अनिच्छा और मामला सुप्रीम कोर्ट में जाने के बाद ही ऐसा करना और आदर्श आचार संहिता को लागू करने में सामान्य विफलता, इन सभी ने इन आशंकाओं को आधार प्रदान किया है।

मतदान के अंतिम चरण से कुछ ही दिन पहले सरकार ने सेना प्रमुख जनरल मनोज पांडे को एक महीने का विस्तार दिया है, जो 31 मई को सेवानिवृत्त होने वाले थे। यह एक अभूतपूर्व कदम है। किसी भी सेना प्रमुख को (1975 में एक बार को छोड़कर) विस्तार नहीं दिया गया था। तब तक के लिए एक कार्यवाहक चीफ ऑफ स्टाफ नियुक्त किया जाता है। इस मामले में, नये चीफ ऑफ स्टाफ की नियुक्ति नयी सरकार द्वारा की जायेगी। ऐसा क्यों किया गया है, इसका कोई स्पष्टीकरण नहीं है, न ही यह स्पष्ट है कि चुनाव आयोग ने इस विस्तार के लिए मंजूरी दी थी या नहीं। इसने चुनाव के बाद के परिदृश्य के बारे में सभी प्रकार की अटकलों को जन्म दिया है।

अंत में, नरेंद्र मोदी ने खुद संविधान के प्रति अपनी निष्ठा को सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया है। चुनाव प्रचार के अंतिम चरण में, मोदी ने यह अजीबोगरीब दावा किया है कि उन्हें पूरा विश्वास है कि यह परमात्मा ही हैं जिन्होंने उन्हें देश और लोगों की सेवा करने के लिए भेजा है। उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया है कि वे किसी और के प्रति उत्तरदायी नहीं हैं, बल्कि ईश्वर के प्रति हैं। अब जबकि उन्होंने मतदान के अंतिम चरण के दौरान कन्याकुमारी में विवेकानंद शिला पर 48 घंटे ध्यान में बिताने का फैसला किया है, तो यह देखना बाकी है कि उनके भविष्य के कार्य संवैधानिक रूप से अनिवार्य होंगे या ईश्वर द्वारा निर्धारित।


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