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प्रधानमंत्री के सपने और देश की हकीकत

जनता को सवाल पूछने के लिए तैयार करने में अहम भूमिका शिक्षा संस्थानों, संवैधानिक संस्थाओं और मीडिया की रहती है

प्रधानमंत्री के सपने और देश की हकीकत
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- सर्वमित्रा सुरजन

जनता को सवाल पूछने के लिए तैयार करने में अहम भूमिका शिक्षा संस्थानों, संवैधानिक संस्थाओं और मीडिया की रहती है। खेद है कि इस वक्त ये खुद सवाल पूछना भूल रही हैं। पढ़ाई के नाम पर बंधुआ मजदूरी तैयार करने वाला बड़ा वर्ग तैयार किया जा रहा है। वैज्ञानिक सोच, तर्क की आजादी, सवाल पूछने की हिम्मत ऐसे माहौल को देने वाले शिक्षा संस्थानों को किसी न किसी तरह बंद करने की कोशिशें हो रही हैं।

सोमवार को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हरियाणा के गुरुग्राम में कहा कि मैं न छोटा सोच सकता हूं, न मैं मामूली सपने देखता हूं और न ही मैं मामूली संकल्प करता हूं। मुझे जो चाहिए... विराट चाहिए, विशाल चाहिए और तेज गति से चाहिए क्योंकि 2047 में मुझे देश को 'विकसित भारत' के रूप में देखना है।

बात बिल्कुल सही है कि श्री मोदी के सपने बिल्कुल मामूली नहीं हैं। उन्होंने तीन बार मुख्यमंत्री रह कर संतोष नहीं किया, देश से फिर अपने लिए 60 महीने मांगे। मांगने का कारण वही पुराना था कि उन्हें देश का विकास करना है। पांच साल यानी 60 महीने बाद फिर से पांच साल और मांगें, क्योंकि पहले पांच साल तो विकास की तैयारियों में ही लग गए और उन्हें देश का विकास अब भी करना था। इस तरह दस साल गुजर जाने के बाद अब नरेन्द्र मोदी के सपने इतने बड़े हो गए हैं कि उन्हें पांच साल का मामूली जनादेश नहीं चाहिए, वे अब 2029 तक की बात नहीं करते, सीधे 2047 की बात करते हैं। नरेन्द्र मोदी के नामामूली संकल्पों का ही नतीजा है कि लालकिले से उन्होंने ऐलान कर दिया था कि तीसरी बार भी वही यहां आकर झंडा फहराएंगे। अब तक के प्रधानमंत्रियों ने लोकतंत्र को लेकर जितना लिहाज बरता था, प्रधानमंत्री मोदी के विराट, विशाल और तेज गति वाले सपनों ने उन तमाम लिहाजों को रौंद दिया और बता दिया कि लोकतंत्र में अधिनायकतंत्र का सिक्का कैसे जमाया जाता है।


जिस हरियाणा में सोमवार को श्री मोदी ने अपने सपनों और संकल्पों के बारे में जनता को बताया, वहां जनता से नहीं पूछा कि उनके सपने और आकांक्षाएं क्या हैं।

प्रधानमंत्री मोदी हरियाणा क्या, किसी भी राज्य की जनता से कुछ पूछना जरूरी नहीं समझते। बस अपने मन की सुना देते हैं। जनता के साथ अब उन्होंने अपने नेताओं की बात भी संभवत: सुनना बंद कर दिया है। इसलिए अपने दौरे के अगले ही दिन मंगलवार को उनकी पार्टी की हरियाणा सरकार में बड़ा फेरबदल हो गया। भाजपा और जेजेपी के बीच का गठबंधन टूट गया, मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने अपनी केबिनेट समेत इस्तीफा दे दिया और कुरुक्षेत्र के सांसद नायब सैनी मुख्यमंत्री बना दिए गए। भाजपा में अब यही चलन हो गया है। कभी भी किसी को उसके पद से हटाकर नए को लाकर बिठा दिया जाता है। गुजरात, कर्नाटक, उत्तराखंड में पहले यही प्रयोग हो चुका है कि अचानक मुख्यमंत्री बदल दिए गए। अनुशासन या अन्य कारणों की वजह से पद से हटाए गए नेता सवाल भी नहीं करते कि आखिर उनकी गलती क्या थी या फिर उन्हें बलि का बकरा क्यों बनाया जा रहा है। अब यह भाजपा का आंतरिक मसला है कि वह अपने नेताओं को सवाल पूछने की छूट दे या न दे। लेकिन जनता अगर सवाल पूछने की आदत भूल जाए, तो यह देश के लिए बहुत घातक साबित हो सकता है। जनता के सवाल लोकतंत्र में असली सेंगोल का काम करते हैं। आजादी के बाद से 2014 तक इस सेंगोल का दम देश ने देखा, लेकिन फिर जनता के सवाल कम हो गए और अब नए संसद भवन में सोने का सेंगोल स्थापित कर दिया गया है, जो उस सोने के हिरण की तरह प्रतीत होता है, जिसके पीछे राम भागते जाएंगे, लेकिन वो कभी हाथ नहीं आएगा।

जनता को सवाल पूछने के लिए तैयार करने में अहम भूमिका शिक्षा संस्थानों, संवैधानिक संस्थाओं और मीडिया की रहती है। खेद है कि इस वक्त ये खुद सवाल पूछना भूल रही हैं। पढ़ाई के नाम पर बंधुआ मजदूरी तैयार करने वाला बड़ा वर्ग तैयार किया जा रहा है। वैज्ञानिक सोच, तर्क की आजादी, सवाल पूछने की हिम्मत ऐसे माहौल को देने वाले शिक्षा संस्थानों को किसी न किसी तरह बंद करने की कोशिशें हो रही हैं या फिर उन्हें इतना बदनाम किया जा रहा है, जिससे युवा वर्ग वहां जाना ही न चाहे। चुनाव से पहले जेएनयू नाम की फिल्म प्रदर्शित हो रही है, इसका एक पोस्टर आया है, जिसमें लिखा है जेएनयू: जहांगीर नेशनल यूनिवर्सिटी' । पोस्टर पर भगवा रंग का भारत का नक्शा देखने को मिल रहा है, जिसे एक हाथ जकड़े हुए है, पोस्टर पर लिखा है, 'क्या एक एजुकेशनल यूनिवर्सिटी देश को तोड़ सकती है?

बड़े शातिराना तरीके से जेएनयू यानी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की छवि को बिगाड़ने की कोशिश की जा रही है, यह इस फिल्म के पोस्टर से ही समझ आ रहा है। टुकड़े-टुकड़े गैंग जैसी शब्दावली पहले-पहल 2016 में जेएनयू में हुए विवाद के बाद ही प्रयोग में आई थी। जब कन्हैया कुमार को देशद्रोही कहा गया, लेकिन उन पर देशद्रोह का कोई मामला साबित नहीं हो सका। इसके बाद कई और विवाद जेएनयू को लेकर खड़े किए गए और अब श्री मोदी के बड़े सपनों की खातिर फिल्मों के सहारे चुनाव में इन विवादों को ताजा किया जा रहा है। जेएनयू से पहले आर्टिकल 370 भी प्रदर्शित हो चुकी है। मुख्यधारा के मीडिया में ये सवाल होने चाहिए कि चुनाव के वक्त ही ऐसी फिल्मों का प्रदर्शित होना क्या किसी बड़ी रणनीति का हिस्सा है। लेकिन इसकी जगह मीडिया में भाजपा के मास्टर स्ट्रोक दिखाए जा रहे हैं कि कैसे हरियाणा में एक सांसद को मुख्यमंत्री बना कर भाजपा ने कई समीकरण एक साथ-साध लिए। मीडिया यह सवाल नहीं करता कि इसी हरियाणा में महिला पहलवानों और किसानों के साथ सरकार खड़ी नहीं हुई, क्या इस बात से जनता नाराज थी और क्या इसलिए श्री खट्टर को हटाकर भाजपा ने नुकसान को संभालने की कोशिश की है।

इसी मीडिया ने महिला पहलवानों के संघर्ष में भी उनका साथ देते हुए कभी प्रधानमंत्री से सीधे सवाल नहीं किया कि क्या आपके सपनों में न्याय के लिए जगह है या नहीं। क्यों आपने ब्रजभूषण शरण सिंह को बाहुओं का दम दिखाने की छूट दी, क्यों उन्हें अपने परिवार का हिस्सा बनने दिया। बल्कि पेरिस ओलंपिक में भागीदारी के लिए राष्ट्रीय महिला कुश्ती ट्रायल में महिला पहलवान विनेश फोगाट 53 किग्रा वाली श्रेणी में हार गईं, लेकिन 50 किग्रा वाली श्रेणी में जीत गईं, तो इसे एक न्यूज चैनल ने विनेश फोगाट की करारी हार के तौर पर प्रस्तुत किया, मानो विनेश फोगाट की हार में मोदी सरकार की जीत छिपी है। यही शायद श्री मोदी के सपनों का सच है कि उनमें उत्पीड़ित, शोषित और वंचित लोग वैसे ही नजर नहीं आते, जैसे दरभंगा में एम्स की इमारत नहीं दिखती।

राहुल गांधी अभी भारत जोड़ो न्याय यात्रा लेकर निकले हुए हैं, पिछले दिनों जब वे मध्यप्रदेश में थे तो वहां बुंदेलखंड इलाके की दलित महिलाओं ने अपने जीवन की कड़वी सच्चाई बताई कि उन्हें ऊंची जाति के लोग चप्पल नहीं पहनने देते, कुएं से पानी नहीं लेने देते। एक महिला ने रोते हुए राहुल गांधी से कहा कि देश आजाद है लेकिन हम बहुत दुखी हैं। बुंदेलखंड़ जैसे भेदभाव से जकड़े हुए कई खंड देश में हैं, जहां लोग आजादी का अनुभव नहीं कर पा रहे हैं, ऊंचे सपने देखना तो दूर की बात है। इन लोगों के दुख न मोदीजी के सपनों में हैं, न मीडिया के सवालों में। चुनावी बॉंड पर स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की आंकड़े दिखाने की आनाकानी, सीएए को चार साल बाद अचानक लागू करने की याद आना, लद्दाख में पूर्ण राज्य के दर्जे को लेकर अनशन पर बैठ सोनम वांग्चुक, चुनाव में नए आयुक्तों की नियुक्ति पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई ऐसे तमाम मुद्दे हैं, जो चुनाव को नया मोड़ दे सकते हैं, जिन पर जनता के बीच विमर्श होना चाहिए। उसे सवाल पूछने के लिए तैयार करना चाहिए। लेकिन यहां अलग ही खेल चल रहा है।

पिछले सप्ताह तक मीडिया खरबपति मुकेश अंबानी के बेटे की शादी के कवरेज में लगा था। अभी मीडिया में लेडी डॉन अनुराधा चौधरी और गैंगस्टर काला जठेड़ी की शादी सुर्खियों में थीं। ये खेल महज टीआरपी का नहीं है, बल्कि जनता को खबरों से दूर करने का है। अब यह जनता को समझना है कि क्या ध्यान भटकाने का यह सारा उपक्रम किसी के सपनों को पूरा करने के लिए है।


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