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साहित्य का वर्तमान

साहित्य वर्तमान की आलोचना है तो वर्तमान समय में हमारे साहित्यकार उसकी आलोचना करने से क्यों झिझक रहे हैं

साहित्य का वर्तमान
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- सूरज पालीवाल

इन दिनों दिल्ली में विश्व पुस्तक मेला लगा हुआ है, जिन लेखकों की किताबें पैस देकर, सिफारिश पर, पद के दबाव में या अन्य किसी समझौते के तहत प्रकाशित हुई हैं, उनमें से अधिकांश लेखक पुस्तक मेले में उपस्थित होकर प्रसन्न भाव से विमोचन क्रिया में संलग्न हैं।

साहित्य वर्तमान की आलोचना है तो वर्तमान समय में हमारे साहित्यकार उसकी आलोचना करने से क्यों झिझक रहे हैं ? अपने वर्तमान की समझ के अभाव में कोई भी रचना कैसे जीवित रह सकती है, इस प्रश्न पर विचार करते हुए मुझे 'गोडसे /गांधी: एक युध्द' फ़िल्म की याद आई। यह फ़िल्म जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष असगर वजाहत के नाटक के आधार पर बनाई गई है, जिसके संवाद स्वयं असगर वजाहत और नाम के लिये राजकुमार संतोषी ने लिखे हैं।

फिल्म ऐसे समय बनाई गई है, जब दक्षिणपंथी ताकतें गोडसे और सावरकर को नायक बनाने की तमाम कोशिश कर रही हैं। जब गांधी के गुजरात में सरदार पटेल की मूर्ति की स्थापना के माध्यम से गांधी को छोटा करने की कोशिश की जा रही है। ऐसे समय मे वाम संगठन और उसकी वैचारिकता से जुड़ा लेखक गोडसे को आत्मविश्वास से लबरेज और गांधी को दयनीय बनाकर प्रस्तुत करने की चालाकी करे, तो बात साफ़ हो जाती है कि आप किसके पक्ष में खड़े हैं। फ़िल्म की टाइमिंग इसलिये भी ग़लत है कि यह 'कश्मीर फाइल्स' क बाद बनवाई गई है। इस फ़िल्म की शूटिंग मध्यप्रदेश में की गई है और इसके लिये वहां के मुख्यमंत्री और गृहमंत्री को धन्यवाद भी दिया गया है।

फ़िल्म बन गई तो उसे कश्मीर फाइल्स की तरह कर मुक्त करने की मांग भी उसी खेमे से आ रही है, जो गोडसे और सावरकर के नायकत्व का पक्षधर है। असगर वजाहत नासमझ नहीं हैं इसलिये यह मान लेना कि इस फिल्म से दक्षिणपंथी ताकतें मजबूत नहीं होंगी और उन्हें गांधी के बरक्स गोडसे को नायक बनाने में सहूलियत नहीं होगी, ग़लत है और आगे भी ग़लत ही साबित होगा।

इन दिनों दिल्ली में विश्व पुस्तक मेला लगा हुआ है, जिन लेखकों की किताबें पैस देकर, सिफारिश पर, पद के दबाव में या अन्य किसी समझौते के तहत प्रकाशित हुई हैं, उनमें से अधिकांश लेखक पुस्तक मेले में उपस्थित होकर प्रसन्न भाव से विमोचन क्रिया में संलग्न हैं। पुस्तक के प्रचार-प्रसार का काम प्रकाशक का है, लेकिन अब लेखकों ने इसे भी अपन कंधे पर ले लिया है। मैंने देश विदेश के जितने भी बड़े लेखकों के चित्र देखे हैं, वे सब अपन चिंतन में डूबे हुए उदास जैसे दिखते हैं।

प्रेमचंद ने कहा था कि 'लेखक इस व्यवस्था से हार थक लोगों के साथ खड़ा रहता है।' यही कारण है कि 'गोदान' में वे राय अमरपाल सिंह के साथ नहीं, बल्कि होरी के साथ खड़े हैं। इसलिये बड़ी रचना पढ़ने के बाद दुखी करती है, यदि जीवन इतना ही सजा संवरा है तो फिर लिखने की क्या ज़रूरत है ? लेखक अपने लेखन से सत्ता का प्रतिपक्ष रचता है, और प्रतिपक्ष का काम उस अंधेर और उसके कारणों को खोजकर चित्रित करना है, जो लोगा के उजाले को छीन रहा है।

यह काम ज़िम्मेदारी भरा है, जो कई बार जीवन को जोखिम में भी डालता है। इस जोखिम को उठाने के लिये यदि लेखक तैयार नहीं है, तो वह किसके लिये लिख रहा है। यह जोखिम उसकी हंसी छीनकर उदास भी बनाता है क्योंकि यदि समाज हमारे हिसाब नहीं बदला है, हमें उसमें गड्ढे दिखाई दे रहे हैं तो हम उन्हें देखकर प्रसन्न कैसे हो सकते हैं ?

केवल मैं ही नहीं आप सब पाठकों का एक बड़ा वर्ग भी देख रहा है कि अब लेखक सजे-संवरे अट्टहास कर रहा है, उसके अंदर की खुशी चेहरे पर टपक-टपक पड़ रही है। और दूसरी ओर सत्ता की तानाशाही लोकतंत्र का लगातार गला दबा रही है। क्या कारण है कि हिन्दी का लेखक इन सब ख़तरों से बचकर केवल लिखता है चाहे किसानों का आंदोलन हो, स्त्रियों पर बलात्कार हो रहे हों, बेराजगारी दर लगातार बढ़ रही हो, शिक्षा के निजीकरण के राजमार्ग और चौड़े किये जा रहे हों, बड़े और ऐतिहासिक शहरों के नाम बदले जा रहे हों, इतिहास को अफवाहों में बदलने का शातिराना काम किया जा रहा हो, हमारे लेखकों को कुछ दिखाई नहीं देता।

वह अपने आरामगाह में सुरक्षित अनुभव करते हुए केवल लिखता है। और उस लिखे को भुनाने के लिये शिक्षा के माफिया से लेकर सत्ता के दलालों के १दरबार में हाजिरी बजाता है और इच्छित पाकर प्रसन्नभाव से अपन घर लौटता है।


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