राहुल की अमेरिकी यात्रा के सम्भावित फलितार्थ
राहुल गांधी बतौर नेता प्रतिपक्ष अमेरिका दौरे पर हैं। वहां के कुछ भारतीयों के संगठनों ने उन्हें बुलाया है

राहुल गांधी बतौर नेता प्रतिपक्ष अमेरिका दौरे पर हैं। वहां के कुछ भारतीयों के संगठनों ने उन्हें बुलाया है। ओवरसीज़ इंडियन कांग्रेस के प्रमुख सैम पित्रोदा इस आयोजन के केन्द्र में हैं। राहुल की पिछली विदेश यात्राओं की ही तरह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी को इस यात्रा से भी दिक्कतें होंगी। खासकर इसलिये कि राहुल दो महत्वपूर्ण परिघटनाओं की पार्श्वभूमि में अमेरिका जा रहे हैं। दूसरे, स्वयं मोदी इसी देश की यात्रा करने वाले हैं। कहें तो राहुल व मोदी दोनों ही अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के पहले उस देश में जा रहे हैं।
मोदी के लिये इस बार की अमेरिकी यात्रा कठिन होने जा रही है। वह इस लिहाज़ से कि रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार एवं पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प लोकप्रियता के मामले में डोमोक्रेटिक पार्टी की तथा भारत से जिनके अनुवांशिकी नाते हैं- कमला हैरिस से बहुत नीचे हैं। उनका राष्ट्रपति बनना तय माना जा रहा है। पिछली बार ट्रम्प को चुनाव में सीधे समर्थन का ऐलान कर मोदी ने अपनी फजीहत तो कराई ही थी, डेमोक्रेट्स के मन में वह बात अभी भी चुभी हुई है। इतना ही नहीं, देश में भी मोदी कमजोर हुए हैं- इसका भी एहसास वहां के भारतीय समुदाय को है। राहुल की लोकप्रियता दुनिया भर में बढ़ी है।
राहुल जिस दिन अमेरिका पहुंचे वह उनकी भारत में निकाली गयी 'भारत जोड़ो यात्रा' की दूसरी वर्षगांठ थी। इस यात्रा से देश के साथ विदेश में भी भारत, खासकर राहुल व मोदी दोनों के प्रति वैचारिक बदलाव आया है। अब राहुेल अमेरिका में हैं, तो उसके बारे में पित्रौदा का कहना है कि 'जब से वे लोकसभा में प्रतिपक्ष के नेता बने हैं, उनसे मिलने, सुनने और बात करने की बड़ी इच्छा अमेरिका के लोगों ने दिखलाई है। खासकर वहां रहने वाले भारतीय मूल के अमेरिकी लोगों ने इसे लेकर बड़ा आग्रह किया था।' निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार, जब स्थानीय समय के अनुसार राहुल टेक्सास के डलास पहुंचे तो उनका बहुत गर्मजोशी से स्वागत किया गया। गुलाब की पंखुड़ियां बिखेरी गयीं और उनकी आरती उतारी गयी। डलास के अलावा वाशिंगटन डीसी में भी उनके लोगों से संवाद के कार्यक्रम हैं। राहुल ने अपनी यात्रा का मकसद दोनों देशों के बीच सम्बन्धों को मजबूत करना बताया है। बात यहीं तक होती तो न मोदी को परेशानी थी और न ही भारतीय जनता को। राहुल की पिछली दो विदेश यात्राएं- अमेरिका और ग्रेट ब्रिटेन की, मोदी को परेशान कर चुकी थी। भारत में तानाशाही के बढ़ते खतरों के बारे में उन्होंने लोगों को आगाह किया था तथा पश्चिम जगत को अवगत भी कराया। इसे लेकर भाजपा के आईटी सेल ने काफी हाय-तौबा मचाई थी और यह कहकर राहुल की आलोचना की थी कि वे विदेश में भारत की छवि को खराब कर आये हैं। हालांकि लोगों पर इसका कोई खास प्रभाव नहीं पड़ा था।
राहुल की पहली दोनों यात्राओं ने यह संदेश दिया था कि राहुल की जो छवि भाजपा तथा उसके संगठनों ने बनाई थी, लोगों ने इसके विपरीत उन्हें अत्यंत परिपक्व और समझदार नेता बताया था। खुद पित्रौदा ने कहा है कि 'राहुल अपने पिता से कहीं अधिक समझदार नेता है।' इसका कारण यह हो सकता है कि राजीव को कमान उनकी मां इंदिरा गांधी की बनाई जमीन पर मिली थी जबकि राहुल पिछले दस वर्ष से अधिक समय से मोदी का मुकाबला विषम परिस्थितियों में कर रहे हैं। उन पर लोगों ने अब यह आरोप लगाना भी छोड़ दिया है कि वे यह सब पीएम बनने के लिये कर रहे हैं। लोगों को अब भी याद है कि 2004 में वे मंत्री बन सकते थे और 2009 में तो उनके पास प्रधानमंत्री बनने का तक अवसर था। इसलिये अब आईटी सेल का यह अस्त्र भोंथरा हो गया है। लोकसभा में विपक्ष के नेता बनने का उनका सफर कठिन रहा है। तमाम तरह के भीतरघातों एवं विरोधी दलों के विषैले प्रचार के बीच उन्होंने सकारात्मक राजनीति की मशाल जलाये रखी। उनका मखौल उड़ाया गया लेकिन नफरत के बाजार में मुहब्बत की दूकान ने लोगों को आकर्षित ही किया।
राहुल को इस अमेरिका दौरे में कैपिटल हिल पर कई लोगों से निजी संवाद का मौका मिलेगा। इस दौरान वे राष्ट्रीय प्रेस क्लब के सदस्यों से भी बातचीत करेंगे। जॉर्जटाउन विश्वविद्यालय और टेक्सास यूनिवर्सिटी के छात्रों, प्रोफेसरों बुद्धिजीवियों आदि से वे बातचीत करेंगे। दूसरी तरफ मोदी की यात्राओं से क्या हासिल होगा यह तो अब तक अज्ञात है। यह भी समझ में नहीं आ रहा है कि चुनाव के ठीक पहले वे अमेरिका कौन सा एजेंडा लेकर जा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्रसंघ की बैठक को वे 26 सितम्बर को सम्बोधित करेंगे। इसके पहले 22 सितम्बर को मोदी प्रवासी भारतीयों से लॉंग आइलैंड के नासाउ कोलेजियम में मुलाकात करेंगे। देखना यह होगा कि मोदी को वहां कैसा प्रतिसाद मिलता है क्योंकि लोग जान गये हैं कि वे पहले जैसे मजबूत नहीं रह गये हैं। उनकी सरकार भी बैसाखियों पर है। ज़ाहिर है कि इस बाबत राहुल तो लोगों को बतला सकेंगे परन्तु मोदी शायद ही कुछ कह सकेंगे। प्रेस से तो वे मिलते ही नहीं।


