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आप की राजनीति का आपातकाल

राजनीति की भाषा और परिभाषा बदल गई है। मतदाता विचारधारा की खूंटी से नहीं बंधा रहना चाहता, वह बेहद जागरूक और खुद के भविष्य को लेकर सतर्क हो चला है।

आप की राजनीति का आपातकाल
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राजनीति की भाषा और परिभाषा बदल गई है। मतदाता विचारधारा की खूंटी से नहीं बंधा रहना चाहता, वह बेहद जागरूक और खुद के भविष्य को लेकर सतर्क हो चला है। उसे अब पंथ, जाति की संजीवनी पिला बहलाया फुसलाया नहीं जा सकता है। देश की लोकतांत्रिक शक्ति ताकतवर, बौद्धिकता संपन्न और सोच समझ वाली हो चली है। 65 फीसदी युवा अपने अच्छे-बुरे का फैसला लेने में खुद सक्षम हैं।

अभी तक राजनैतिक दल और नेता राजनीति करते थे, लेकिन बदले वक्त में आम आदमी खुद राजनीति करने लगा है। अब वह इतना परिपक्व और जागरूक हो गया कि अपनी भलाई की दिशा खुद तय करने लगा है। लोकतंत्र स्थायित्व की मांग करने लगा है। वह अपनी जरुरतों के अनुसार सरकार चुनना पंसद करता है। आठ राज्यों की 10 विधानसभाओं के लिए हुए उपचुनाव कम से कम यहीं साबित करते हैं।

उपचुनावों में भी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में विजय अभियान जारी रखे है। भाजपा ने आधी सीटों पर कब्जा जमा लिया है। कांग्रेस भी कुछ बेहतर स्थिति में दिखती है। लेकिन आम आदमी की राजनीति करने वाली आप और उसके मुखिया अरविंद केजरीवाल के लिए शुभ संकेत नहीं है। नतीजे आम आदमी पार्टी और उसकी राजनीति के लिए आपातकाल जैसे हैं। क्योंकि उपचुनाव के जितने भी नजीजे आएं हैं उनके परिणाम आशा के अनुरूप हैं। लेकिन दिल्ली के राजौरी गार्डन का चुनाव कुछ अलग संदेश देता है।

आम तौर पर उपचुनावों में सत्ताधारी दल की जीत होती है। कर्नाटक, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, हिमाचल प्रदेश, असम, मध्यप्रदेश के परिणाम यही साबित करते हैं कि जहां जिसकी सरकार है उप चुनावों में उसकी जीत हुई है। मप्र के अटेर को छोड़ दें तो स्थिति वही है लेकिन सबसे अधिक चौंकाने वाला परिणाम दिल्ली का रहा है जहां से आप का सफाया हुआ है। जबकि भाजपा के लिए अच्छे दिन हैं, दीदी के गढ़ पश्चिम बंगाल में वह जीत तो नहीं हासिल कर सकी है लेकिन उसके वोट फीसदी में काफी वृ़िद्ध हुई है जो नौ फीसदी से 31 पर पहुंच गई है।

उप चुनाव परिणामों के बाद सबसे अधिक चर्चा में आम आदमी पार्टी और उसकी राजनीति है। क्या यह नतीजे आपकी विचारधारा और उसकी राजनीति के लिए खतरे की घंटी है। आपकी राजनीतिक स्थिरता में क्या गिरावट आ रही है, उसका जनाधार क्या गिर रहा है। दिल्ली में होने वाले एमसीडी चुनावों में क्या आप का सूपड़ा साफ हो जाएगा। आपकी आदर्शवादी और विकासवादी नीति का किला क्या ढह रहा है। इन तामाम सवालों और कयासों का जबाब कम से कम राजौरी गार्डन सीट देती दिखती है।

2015 में इस सीट पर आप के जनरैल सिंह ने 54 हजार से अधिक मतों से जीत हासिल की थी, लेकिन उसी सीट पर हुए उपचुनाव में आप की जमानत जब्त हो गई और वह 10,243 वोटों पर सिमट गई। इस सीट की पराजय केजरीवाल की गलत नीतियों का ही नतीजा है। जिसकी वजह से पार्टी की पराजय हुई और पार्टी को आम आदमी के गुस्से का परिणाम भुगतना पड़ा। यहां से विधायक चुने गए जनरैल सिंह को केजरीवाल ने पंजाब चुनावों के लिए त्यागपत्र दिलवाया था और उन्हें पंजाब विधानसभा चुनावों में प्रकाश सिंह बादल के खिलाफ चुनाव मैदान में उतरा था, जहां उनकी जमानत जब्त हो गई। जबकि आम आदमी पार्टी पंजाब और गोवा में किस तरह धराशायी हुई यह किसी से छुपी नहीं। पंजाब में सरकार बनाने का दावा करने वाले केजरीवाल को 20 सीट मिली जबकि 25 पर जमानत नहीं बचा पाए। यही हाल कुछ गोवा में भी हुआ।

जनरैल सिंह के त्यागपत्र से वहां की जनता नाखुश थी। जिसकी वजह रही कि लोकतंत्र और जनादेश को जेब में रखने वाले केजरीवाल की नीति पर पानी फेर दिया। उसकी नाराजगी लाजमी भी थी। यह जनादेश का अपमान था। राजौरी की जनता ने उन्हें एक उम्मीद के साथ चुना था, उसकी अपेक्षाएं थी जब वह धूल में मिलती दिखी जनता ने फैसला भी सुना दिया। इस सीट पर 47 फीसदी वोट हासिल करने वाली आम आदमी पार्टी 13 फीसदी पर अटक गई जबकि भाजपा को 52 फीसदी वोट हासिल हुए।

आम आदमी पार्टी का अंकुरण 2011 में अन्ना हजारे के जनलोकपाल आंदोलन से इसी दिल्ली के रामलीमैदान से हुआ था। वह दृश्य याद होगा आपको जब केजरीवाल हाथों में तिरंगा लिए इंकलाब जिंदाबाबाद का नारा लगाते थे और रामलीला मैदान में जुटी भीड़ में बदलाव की एक नई उम्मीद जगाई थी। सत्ता संभालते वक्त शपथ के दौरान उन्होंने देशभक्ति का जो गीत गाया था वह भी आपको याद होगा। देश को यह भरोसा हुआ की आम आदमी राजनीति की दशा और दिशा बदलने में कामयाब होगी।

दिल्ली वालों और देश के लोगों को लगा कि दिल्ली से अब राजनीति की नई शुरुआत हो रही है। लेकिन पहली बार दिल्ली की सत्ता संभालने के बाद अरविंद केजरीवाल मैदान छोड़ कर भाग गए। हालांकि दोबारा वह जनता की अदालत में गए दिल्ली की जनता ने उन पर दूसरी बार भरोसा जताया और 2015 में सत्ता की कमान सौंपी। लेकिन आप मुखिया आम आदमी की उम्मीदों पर इन सालों में खरे नहीं उतर पाए।

आखिर दिल्ली वालों को बिजली, पानी की राजनीति में कब तक उलझाए रखा जाता। जनता से जितने वादे किए गए थे उस पर केजरीवाल खरे नहीं उतर पाए। सबसे बड़ी बात रही कि उन्होंने अपनी छवि को एक विवादित नेता के रूप में बनाई। केंद्र शासित प्रदेश का मुख्यमंत्री होने के बाद भी वह एक स्वतंत्रराज्य के मुख्यमंत्री की तरह व्यवहार करने लगे। राजनीतिक सफलता के उच्छवाह में वह बह गए। संवैधानिक नियमों और अधिकारों का अतिक्रमण किया। जिसकी वजह रही की पूर्व राज्यपाल नजीब जंग से उनके जाने तक उनकी जंग जारी रही। दिल्ली पुलिस और वहां की कानून-व्यवस्था को लेकर हमेशा केंद्र सरकार और गृहमंत्रालय से लेकर तनातनी चलती रहती है।

दिल्ली की कमान संभालने के बाद उन्होंने लोगों से कहा था कि वह दिल्ली से बाहर की राजनीति नहीं करेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उन्होंने लोकसभा चुनाव 2014 में पंजाब में अपने उम्मीदवार उतारे। इसके बाद पीएम मोदी को चुनौती देने के लिए उन्होंने वाराणसी से उनके खिलाफ चुनाव लड़ा। बाद में पंजाब और गोवा में चुनाव लड़ने का फैसला किया। बाद की स्थिति क्या हुई आप से छुपी नहीं है। नोटबंदी, सर्जिकल स्टाइक और ईवीएम पर उन्होंने सवाल उठाए। जिससे उनकी एक दिग्भ्रमित राजनेता की छवि बन गई। वह राजनीति के भ्रम रोग के शिकर हुए।

दिल्ली में जीत के बाद वह पीएम की कुर्सी का सपना देखने लगे। उनकी हरकतों ने उन्हें हल्का बनाया और उनकी छवि जो आम आदमी में बनी थी वह ताश के पत्तों की तरह बिखरने लगी है। दिल्ली के राजौरी गार्डन में पार्टी की बुरी पराजय इसी का नतीजा है। यह आपकी राजनीति और अरविंद केजरीवाल की राजनीति के लिए शुभ संकेत नहीं है।

दिल्ली की जनता ने आप को 70 सीटों में 67 पर विजय दिलाई थी। सरकार के कई मंत्री और विधायक भ्रष्टाचार और अन्य आरोपों में घिरे हैं। जिसका नतीजा रहा कि आप आदमी का भरोसा उस पर टूटा और दिल्ली में उसकी पराजय हुई। आप और केजरीवाल के पास अब भी वक्त है वह नकारात्मकता की नीति से बाहर आएं और जनादेश का सम्मान करते हुए उसके विश्वास पर खरा उतरने की कोशिश करें और झाडू की जान बचाएं।


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