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आंसू की राजनीति

देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदर दास मोदी का भावुक अवतार आज एक बार फिर देश को देखने मिला।

आंसू की राजनीति
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देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदर दास मोदी का भावुक अवतार आज एक बार फिर देश को देखने मिला। प्रधानमंत्री जी राज्यसभा में कांग्रेस सांसद गुलाम नबी आजाद की विदाई पर भाषण देते-देते रो पड़े। इससे पहले देश नहीं जानता था कि आजाद, मोदीजी के इतने करीबी हैं कि उनके सदन में न रहने के खयाल से उन्हें रोना आ जाएगा। वैसे देश ये भी कहां जानता है कि मोदीजी कब, किस बात पर रो पड़ें। उन्हें देश की सत्ता संभाले साढ़े छह साल हो चुके हैं और लगभग इतनी ही बार वो रो भी चुके हैं।

2014 में संसद के सेंट्रल ह़ॉल में लालकृष्ण आडवानी पर बोलते-बोलते वे रो पड़े थे, अब आडवानी जी राजनीतिक संन्यास पर जबरन भेजे जा चुके हैं। 2015 में फेसबुक के दफ्तर में अपनी मां को याद कर वे रो पड़े थे। फेसबुक उन आंसुओं का लाभ अब भी भारतीयों तक पहुंचा रहा है। इसके बाद 2016 में नोटबंदी के बाद वे रोए थे, देश अब तक उलझन में है कि वो आंसू किसके लिए थे, क्योंकि नोटबंदी से तबाह हुए लोग तो अब भी कराह रहे हैं। 2020 में मोदीजी जनधन योजना की एक लाभार्थी से बात करते हुए रोए थे, जिसने उनकी तुलना भगवान से की थी।

व्यक्तिपूजा वाले इस देश में ऐसी तुलनाएं अनोखी नहीं हैं और मोदीजी के प्रचारतंत्र का उद्देश्य ऐसी तुलनाओं से पूरा होता है। अब मोदीजी 2021 में गुलाम नबी आजाद की विदाई पर रोए हैं। उनकी आंखों से बार-बार निकलते ये आंसू बेशक उनके समर्थकों को भी भाव विह्वल कर देते हैं। वे ये देख कर निहाल हो जाते हैं कि एक ओर हमारे प्रधानमंत्री 56 इंच के फौलादी सीने के साथ मजबूती से खड़े हैं, दूसरी ओर उसी सीने में एक भावुक, नाजुक दिल है।

हर किसी का अपना स्वभाव होता है। हो सकता है मोदीजी इतने ही भावुक हों कि वे जरा-जरा सी बात पर रो पड़ें। लेकिन उनकी ये भावुकता, ये रुलाई उस वक्त क्यों नहीं नजर आती, जब देश में गरीब-लाचार-कमजोर लोगों पर सत्ता के फैसलों की मार पड़ती है।

नोटबंदी इसका पहला उदाहरण है, जब करोड़ों लोग दिन-रात लाइन में खड़े-खड़े अपने पैसों के लिए जूझ रहे थे और इसमें कई लोगों की मौत हो गई। जो जिंदा रह गए, उनकी जिंदगी भी कई सवालों में उलझ कर रह गई।

इसके बाद महंगाई, बेरोजगारी की मार आम जनता पर पड़ती रही, लोग तड़पते रहे। देश में अल्पसंख्यकों के लिए हालात और कठिन हो गए, जब सीएए जैसे फैसले सरकार ने लिए। उसके विरोध में भी लंबा आंदोलन चला और महिलाएं सारे कष्ट उठाकर सड़कों पर बैठी रहीं। उन्हें अपमानित किया गया, तब मोदीजी के आंसू नहीं बहे।

दिल्ली के एक हिस्से में सांप्रदायिक दंगे हुए, हजारों लोग उजड़ गए, मोदीजी तब भी नहीं रोए। चीन हमारी जमीन का कुछ हिस्सा हथिया चुका है और उसे रोकने में कई जवान शहीद हो गए, मोदीजी न चीन को सीधे-सीधे कुछ कह पाए, न उन जवानों की शहादत पर उनकी आंख से आंसू बहे।

देश में कई महिलाओं, बच्चियों के साथ बलात्कार की क्रूर घटनाएं हुईं, हाथरस जैसे मामले में अंतिम संस्कार के वक्त भी मानवीय गरिमा का ध्यान नहीं रखा गया, बल्कि पूरे मामले को गलत मोड देकर पीड़ित को ही अपराधी साबित करने की कोशिश हुई, कानून के इस खिलवाड़ पर मोदीजी की रुलाई नहीं फूटी। इस वक्त देश में ढाई महीने से किसान आंदोलन चल रहा है।

दिल्ली की कड़कती ठंड में हजारों लोग धरने पर बैठे रहे और इनमें से कम से कम डेढ़ सौ लोगों की मौत हो गई। कोई मौसम की मार सहन नहीं कर पाया, कोई सरकार की बेदर्दी से जिंदगी से निराश हो गया। मोदीजी के आंसू इन निर्दोषों की मौत पर भी नहीं निकले। बल्कि वे तो अब आंदोलनकारियों के लिए एक नया शब्द चला चुके हैं- आंदोलनजीवी, जो परजीवी की तरह होता है।

मोदीजी लोकतंत्र में अपने हक के लिए सड़क पर उतरने वालों को सीधे-सीधे अपमानित कर रहे हैं और उनके समर्थक इस पर ठहाके लगा रहे हैं। लोकतंत्र को ऐसी दुर्दशा तक पहुंचाने पर मोदीजी के आंसू नहीं निकलते। क्या उनके आंसू भी राजनीति समझते हैं और कब बहना है, कब आंखों में ही नजर आना है, ये कला जानते हैं।

काश देश का आम आदमी भी राजनीति की इस कला को जानता, तो यूं बार-बार अपने हक के लिए आवाज उठाने पर अपमानित नहीं होता। बल्कि कब रोना है और कब रुलाना है, इसकी समझ रख कर अपने अधिकार लेता।


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