रेवड़ी रिवाज की राजनीति, सरकारी खजानों पर भारी
वजनीतिक गलियारों में आजकल फ्री बीज की महंगी राजनीति यानि 'रेवड़ी कल्चर' पर चर्चा जोरों पर है

- डॉ. लखन चौधरी
क्या इस तरह के मुफ्त उपहारों यानि फ्री बीज योजनाओं से चुनाव दर चुनाव जीतना एक तरह से सरल या आसान है? क्या रेवड़ी कल्चर चुनाव जीतने की गारंटी है? सवाल यह भी है कि क्या बगैर मुफ्त घोषणाओं के चुनाव जीतना असंभव है? आखिरकार क्यों फ्री बीज चुनावी राजनीति की धुरी बनती जा रही हैं?
वजनीतिक गलियारों में आजकल फ्री बीज की महंगी राजनीति यानि 'रेवड़ी कल्चर' पर चर्चा जोरों पर है। 'गरीब की थाली में आजकल पुलाव आ गया है... लगता है कि जैसे देश में चुनाव आ गया है' भारतीय राजनीति की हकीकत है। ताज्जुब की बात है कि जनता को दी जाने वाली जिन 'मुफ्त योजनाओं' को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 'रेवड़ी कल्चर' कहकर सवाल उठाया गया था, आज उन्हीं की पार्टी बल्कि स्वयं चुनावों में भारी-भरकम मुफ्त सौगातों की घोषणाएं करते नजर आ रहे हैं। मंशा साफ है कि ऐन केन प्रकारेण चुनाव जीतना है। आज तमाम राजनीतिक दलों के चुनावी घोषणा पत्र इसी फ्री बीज यानि 'मुफ्त योजनाओं' वाली सियासी वादों एवं दावों से भरी पड़ी है।
छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, राजस्थान और तेलंगाना के विधानसभा चुनावों में लोक-लुभावनी घोषणाओं की जिस तरह से झड़ी लगी है, बल्कि कहा जाये कि बरसात हो रही है, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस तरह की नीतियां, योजनाएं या कार्यक्रमों का विरोध करने वाले इसे फ्री बीज यानि 'रेवड़ी कल्चर' कहते हैं, जबकि इसके समर्थक इसे 'कल्याणकारी योजनाएं' कहते हैं। 'मुफ्त योजनाओं' यानि 'रेवड़ी कल्चर' से असहमति रखने वालों का तर्क है कि इससे सरकारी खजाने पर भार पड़ता है, सरकार के ऊपर कर्ज का बोझ बढ़ता है, जो अंतत: अर्थव्यवस्था के लिए विनाशकारी, घातक और अहितकारी सिद्ध होता है। राजनीतिक पार्टियां अपनी सियासी नफा-नुकसान के लिए करती हैं। इसके समर्थकों का मानना है कि इससे गरीबों को मदद मिलती है।
हर एक राजनीतिक दल दूसरे दल पर आरोप लगा रहा है कि मुफ्त उपहार यानि फ्री बीज के लिए फलां, अमुक या दूसरे दल जिम्मेदार हैं, उनकी पार्टी तो केवल ठोस योजनाओं की बात करती है। राजनीतिक दल अपने दल की घोषणाओं को कल्याणकारी योजनाएं करार दे रहीं हैं, और दूसरे दलों की योजनाओं को रेवड़ी कहकर राज्य-देश हित के विपरीत और जनहित के लिए विनाशकारी करार दे रहीं हैं।
सवाल उठता है कि क्या इस तरह के मुफ्त उपहारों यानि फ्री बीज योजनाओं से चुनाव दर चुनाव जीतना एक तरह से सरल या आसान है? क्या रेवड़ी कल्चर चुनाव जीतने की गारंटी है? सवाल यह भी है कि क्या बगैर मुफ्त घोषणाओं के चुनाव जीतना असंभव है? आखिरकार क्यों फ्री बीज चुनावी राजनीति की धुरी बनती जा रही हैं? एक वक्त था जब चुनावी घोषणापत्रों में राजनीतिक दलों की विचारधारा, नीतियां और राजनीतिक दर्शन के झलक होते थे, आज चुनावी घोषणापत्र मुफ्त उपहारों की नुमाईशों यानि रेवड़ी बांटने की गारंटी का पुलिंदा बनकर रह गए हैं।
ज्ञातव्य है कि इसके पहले भी याचिका में चुनावों के दौरान राजनीतिक पार्टियों के वोटर्स से फ्री बीज या मुफ्त उपहार के वादों पर रोक लगाने की अपील की गई है। इसमें मांग की गई है कि चुनाव आयोग को ऐसी पार्टियों की मान्यता रद्द करनी चाहिए। इस पर केंद्र सरकार ने सहमति जताते हुए सुप्रीम कोर्ट से फ्री बीज की परिभाषा तय करने की अपील की है। केंद्र ने कहा कि अगर फ्री बीज का बंटना जारी रहा तो यह देश को 'भविष्य की आर्थिक आपदा' की ओर ले जाएगा, लेकिन यहां पर गौर करने वाली बात यह है कि क्या स्वयं केन्द्र सरकार भी यही नहीं कर रही है?
मध्यप्रदेश और राजस्थान सरकार अपनी कुल कर कमाई का 35 से 40 फीसदी हिस्सा फ्री बीज पर खर्च कर रहें हैं। आरबीआई की 31 मार्च 2023 तक की रिपोर्ट में सामने आया है कि मप्र, राजस्थान, पंजाब, पश्चिम बंगाल जैसे राज्य टैक्स की कुल कमाई का 35 फीसदी तक हिस्सा फ्री की योजनाओं पर खर्च कर देते हैं। पंजाब सरकार 35.4 फीसदी के साथ सूची में शीर्ष पर है। मप्र में यह हिस्सेदारी 28.8 फीसदी, राजस्थान में 28.6 फीसदी है। आंध्रप्रदेश अपनी आय का 30.3 फीसदी, झारखंड 26.7 फीसदी और बंगाल 23.8 फीसदी फ्री बीज के नाम पर खर्च कर रहे हैं।
इससे सरकारों का बजट घाटा बढ़ता है, जिससे राज्य ज्यादा कर्ज लेने को मजबूर हो जाते हैं। ऐसे में आय का बड़ा हिस्सा ब्याज अदायगी में चला जाता है। पंजाब, तमिलनाडु और पं. बंगाल अपनी कमाई का 20 फीसदी, मप्र 10 फीसदी और हरियाणा 20 फीसदी से अधिक ब्याज भुगतान पर खर्च कर रहे हैं। इस समय पंजाब सरकार पर जीएसडीपी का 48 फीसदी, राजस्थान पर 40 फीसदी, मध्यप्रदेश पर 29 फीसदी तक कर्ज है, जबकि यह 20 फीसदी से ज्यादा नहीं होना चाहिए। मप्र, राजस्थान, पंजाब, दिल्ली, कर्नाटक, राजस्थान और छत्तीसगढ़ आदि राज्यों ने पिछले सात सालों में करीब 1.39 लाख करोड़ की फ्री बीज दीं या घोषणाएं कीं है। रेवड़ी योजनाओं की वजह से पंजाब का घाटा 46 फीसदी बढ़ चुका है, और सबसे खराब स्थिति में है। पंजाब में बिजली सब्सिडी 1 साल में 50 फीसदी बढ़कर 20,200 करोड़ रूपए हो चुकी है।
'मुफ्त योजनाओं' अर्थात 'रेवड़ी कल्चर' के दुष्परिणामों की चर्चा करते हुए श्रीलंका की अर्थव्यवस्था की बदहाली का उदाहरण दिया जाता है। भारत में इसकी शुरूआत की बात की जाए तो 2006 वह साल था जब तमिलनाडु विधानसभा चुनाव से 'रेवड़ी कल्चर' का शुभारंभ हुआ है। उस समय डीएमके ने चुनाव जीतने यानि उनकी सरकार बनने पर राज्य के प्रत्येक परिवार को मुफ्त में रंगीन टेलिविजन सेट देने का वादा किया था, और इसके पीछे तर्क दिया था कि इससे महिला साक्षरता बढ़ेगी। इसका प्रभाव यह हुआ कि डीएमके पार्टी चुनाव जीत गई और इस पर 750 करोड़ खर्च हुआ। यह अलग बात है कि 2011 में इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई, लेकिन 2011 के ही तमिलनाडु विधानसभा चुनाव में एआईडीएमके ने इसी तरह के कई वादे किये और अन्नाद्रमुक की सरकार बन गई। इसका मतलब है कि 'मुफ्त योजनाएं' अर्थात 'रेवड़ी कल्चर' चुनाव जीतने की गारंटी हैं, और तब से लेकर अब तक तमाम विरोधों के बावजूद 'मुफ्त योजनाओं' अर्थात 'रेवड़ी कल्चर' की भरमार है।


