राजनीति ठीक है पर ऐसा पक्षपात न हो
इतिहास की कहानियों को दोहराने का बहुत मतलब नहीं है क्योंकि नई स्थितियां नए रेस्पान्स की मांग करती हैं

- अरविन्द मोहन
डबल इंजन का जुमला तो इसी भाजपा और मोदी-शाह की जोड़ी का आविष्कार है (वैसे सुपरफास्ट गाड़ियों में डबल इंजन लालू राज में लगा)। और यह जुमला आज हर विधानसभा चुनाव में इस्तेमाल होता है-उन राज्यों में भी जहां भाजपा की सरकारें मोदी राज की पूरी अवधि में रही हैं। जाहिर है जहां भाजपा या एनडीए का शासन नहीं है उनको केंद्र की तरफ से गैर बराबरी और भेदभाव का व्यवहार मिलने की धमकी भी दी जाती है।
इतिहास की कहानियों को दोहराने का बहुत मतलब नहीं है क्योंकि नई स्थितियां नए रेस्पान्स की मांग करती हैं। जब पंडित नेहरू द्वारा चुनाव प्रचार में सरकारी विमान के इस्तेमाल का मुद्दा उठा करता था तब किसी ने यह थोड़े ही सोचा था कि हमारे एक प्रधानमंत्री की उनके घर में ही हत्या हो जाएगी और एक अन्य पूर्व प्रधानमंत्री की चुनाव प्रचार के दौरान हत्या कर दी जाएगी। वैसे इंदिरा गांधी के समय से ही सेना के विमान का इस्तेमाल और पार्टी द्वारा उसका भाड़ा देने का चलन शुरू हुआ था। आज की स्थिति उससे काफी आगे है और कहना न होगा कि आज खतरा और ज्यादा माना जाता है। लेकिन चुनाव में प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्रियों की सुरक्षा या केन्द्रीय मंत्रियों द्वारा किसी और बहाने सरकारी विमानों की सेवा लेने वाला मसला भर नहीं है। आज तो चुनावी वायदे, लोक लुभावन कार्यक्रम, कथित विकास योजनाओं की पक्षपाती सौगात और अब सबसे बढ़ाकर लाभार्थी जमात पर सरकारी धन लुटाने समेत काफी सारे ऐसे मामले सामने आते जा रहे हैं जो पहले के चुनाव और नेताओं को खुद ब खुद बहुत पाक साफ बताते हैं। स्थिति ऐसी हो गई है कि प्रधानमंत्री समेत सभी प्रमुख नेता इस खर्च का रोना रोते भी हैं और होड़ को आगे भी बढ़ाते जा रहे हैं।
डबल इंजन का जुमला तो इसी भाजपा और मोदी-शाह की जोड़ी का आविष्कार है (वैसे सुपरफास्ट गाड़ियों में डबल इंजन लालू राज में लगा)। और यह जुमला आज हर विधानसभा चुनाव में इस्तेमाल होता है-उन राज्यों में भी जहां भाजपा की सरकारें मोदी राज की पूरी अवधि में रही हैं। जाहिर है जहां भाजपा या एनडीए का शासन नहीं है उनको केंद्र की तरफ से गैर बराबरी और भेदभाव का व्यवहार मिलने की धमकी भी दी जाती है और इधर तो डबल इंजन के बाद ट्रिपल इंजन का नाम भी लिया जाने लगा है। इस बात पर मोदी जी की तरफ से भी किसी तरह की नाराजगी की खबर नहीं है कि स्थानीय निकाय या पंचायत चुनाव में उनका नाम और उनकी सरकार के इकबाल को क्यों दांव पर लगाया जा रहा है न नाम इस्तेमाल करने वालों को इस बात का कोई लिहाज है। कई राज्यों की यह शिकायत भी रही है कि केंद्र उनके साथ सौतेला व्यवहार करता है। आंकड़े और सबूत भी पेश किए जाते हैं। पर यह याद करना अप्रासंगिक नहीं है कि यह शिकायत डबल इंजन का जुमला प्रचलित होने के पहले से है और इस पक्षपात को दूर करने के लिए सरकारिया आयोग समेत अनेक आयोग भी बन चुके हैं। पहले ज्यादा शिकायत केंद्र द्वारा राजनैतिक धौंस दिखाने और अनुचित दखल देने के ही होते थे, संसाधनों के बंटवारे में भेदभाव के कम।
भाई अरविन्द केजरीवाल से पूछेंगे तो वे शिकायतों का अंबार लगा देंगे-राजनैतिक, प्रशासनिक दखल के साथ आर्थिक भेदभाव के भी। यह अलग बात है कि राजस्व के मामले में अव्वल दिल्ली में केजरीवाल सरकार को अपनी योजनाओं पर अमल के लिए कभी धन की कमी नहीं हुई। उलटे उन पर ही शराब की नदियां बहाकर धन जुटाने और अपने प्रचार पर बेइंतहा धन खर्च करने के आरोप रहे हैं। केजरीवाल हों या ममता बनर्जी, सिद्धारमैया हों या चंद्रशेखर राव अधिकांश विपक्षी दलों वाली राज्य सरकारों के मुखिया केजरीवाल को सही बताएंगे। और अभी तो पश्चिम बंगाल सरकार और राज्य चुनाव आयोग(जो कई बार केंद्र के एजेंट की तरह भी व्यवहार करता रहा है) एक दिलचस्प कानूनी लड़ाई में उलझे हैं-पंचायत चुनाव में केन्द्रीय सुरक्षा बलों की तैनाती के सवाल पर। इस मामले में हाई कोर्ट ने आयोग को सुरक्षा बल तैनात करने की अनुमति दे दी है। राज्य सरकार इस सवाल को सुप्रीम कोर्ट ले गई है। पश्चिम बंगाल में चुनाव का हिंसक इतिहास रहा है लेकिन पंचायत चुनाव में केन्द्रीय बल की तैनाती का मतलब तो ककड़ी के चोर को तोप से उड़ाना है। ऐसे 'अपराध' के लिए तो कनैठी ही काफी होती है।
बंगाल इससे भी ज्यादा साफ पक्षधरता को झेल रहा है। केंद्र ने हाल में उसके मिड-डे मिल के बजट में से 180 करोड़ रुपए काट लिए हैं। ऐसे स्कूलों में दोपहर का भोजन करने और बताए जाने वाली संख्या के अंतर के चलते किया गया है जिसकी शिकायत विपक्ष के नेता शुभेन्दु अधिकारी ने की थी। एक तो बच्चों के दाखिले और उपस्थिति की संख्या में, उनके ड्राप आउट होने के कारण और करोड़ों भोजन बनाने-खिलाने के हिसाब की गिनती में फर्क आना स्वाभाविक है। दूसरे इस भोजन का हिसाब तो महत्व का है पर बच्चों का दाखिला बढ़ाना और उनके ड्राप-आउट होने की संख्या कम होना ज्यादा महत्व का है। किसी एक तिमाही की रिपोर्ट में संख्या कम दिखने पर केंद्र ने दन से पैसे काट ले यह तो कुछ ज्यादा ही सख्त सजा है और यह स्वस्थ केंद्र-राज्य संबंध का आधार नहीं बन सकता। दाखिला बढ़े, बच्चे पढ़ाई न छोड़ें, नियमित स्कूल आएं और दोपहर का भोजन करते रहें, इन सब पर ध्यान दिया जाना चाहिए।
एक और तथ्य है जो इस केंद्र सरकार के फैसले पर सवाल खड़े करता है। दो दिन पहले उसने यह साफ किया कि वह अनाज बाजार में कीमतों को नियंत्रित रखने के लिए दखल देगी अर्थात अपने भंडार से खुले बाजार में अनाज उतारेगी लेकिन इस अनाज की खरीद में राज्य सरकारें हिस्सा नहीं ले सकतीं। यह सिर्फ उन चालीस-पचास करोड़ उपभोक्ताओं के हितों को ध्यान में रखकर किया जा रहा है जो केंद्र की मुफ़्त राशन योजना के लाभ से बाहर हैं। मुफ़्त राशन योजना के दायरे में अस्सी करोड़ लोग आते है(जबकि सरकार का दावा गरीबों की संख्या बीस करोड़ से भी नीचे हो जाने का है)। उल्लेखनीय है कि कर्नाटक में कांग्रेस ने हर व्यक्ति को प्रतिमाह दस-दस किलो मुफ़्त चावल देने का वायदा किया था और इसके बारे में नई सरकार ने फैसला भी कर लिया है। बल्कि उसने 13,879 टन चावल खरीदने की प्रक्रिया भी शुरू की। ठीक उसी समय केंद्र का यह फैसला आया है। और हर आदमी मान्यता है कि चार राज्यों के चुनाव के मद्देनजर सरकार खाद्यान्न की कीमतें बढ़ाने देने का जोखिम मोल नहीं ले सकती जबकि बाजार में निर्यात पर पाबंदी और की तरह के स्टाक लिमिट के बावजूद चावल ही नहीं गेहूं की कीमतें भी बढ़ती जा रही है। केंद्र अपनी जिम्मेदारी निभाए लेकिन खुले बाजार की बिक्री में भी किसी खास जमात पर रोक की भावना का समर्थन नहीं किया जा सकता।


