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राजनीतिक दल लोकगीतों के जरिए जनता को लुभाने का प्रयास कर रहे हैं

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में इस बार लोकगीतों की बहार भी छाई हुई है। चुनाव का आगाज होने के साथ ही राजनीतिक दलों ने लोकगीतों के जरिए आम जनता को लुभाने का प्रयास शुरू कर दिया है।

राजनीतिक दल लोकगीतों के जरिए जनता को लुभाने का प्रयास कर रहे हैं
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लखनऊ। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में इस बार लोकगीतों की बहार भी छाई हुई है। चुनाव का आगाज होने के साथ ही राजनीतिक दलों ने लोकगीतों के जरिए आम जनता को लुभाने का प्रयास शुरू कर दिया है। लोकसभा चुनाव की तरह ही इस बार विधानसभा चुनाव प्रचार में भी भोजपुरी गीतों का तड़का लगाया जा रहा है।

पूर्वाचल में जहां भोजपुरी गायकों का सहारा लिया जा रहा है, वहीं पश्चिमी उप्र में देशभक्ति से जुड़े देहाती गीतों की मांग ज्यादा है। सोशल मीडिया के इस दौर में नामचीन लोकगायकों के सुरों से प्रचार करने का चलन बढ़ गया है। रिकॉर्डिंग कम्पनियों के पास अलबम बनाने के ढेरों प्रस्ताव आ रहे हैं।

एक रिकॉर्डिंग कम्पनी के मालिक नवीन श्रीवास्तव ने आईएएनएस के साथ बातचीत के दौरान इसकी जानकारी दी। उन्होंने बताया, "सोशल मीडिया के दौर में प्रचार के लिए ऐसे अलबम और जिंगल की मांग बढ़ गई है, जो वाट्सएप से लेकर ट्विटर तक आसानी से वायरल किए जा रहे हैं।"

उन्होंने यह भी बताया कि सोशल मीडिया के इस दौर में अलबम को वायरल करने के लिये फर्जी अकाउंट का भी सहारा खूब लिया जाता है।राजनीतिक दलों की बात करें तो भाजपा ने अपने पक्ष में माहौल बनाने के लिए बिहार की भोजपुरी गायिका खूशबु उत्तम का अलबम 'यूपी में बीजेपी की सरकार चाहिए' रिकॉर्डिंग कम्पनी द्वारा जारी कराया है। इस अलबम में इस बात का जिक्र किया गया है कि भाजपा की सरकार न होने के कारण गुंडागर्दी से लेकर भ्रष्टाचार किस कदर चरम पर पहुंच गया है।

इसी तरह भोजपुरी के मशहूर गायक नीरज सिंह से भी भाजपा ने अपने पक्ष में सियासी गीत गवाया है। वहीं, विपक्षी दलों की ओर से चुनाव में नोटबंदी को मुद्दा बनाया गया है। इसे देखते हुए उन्होंने इसके लिए गीत लिखवाए हैं।भाजपा नेताओं की मानें तो जल्द ही भोजपुरी के स्टार गायक पवन सिंह भी भाजपा के लिए लोकगीतों के जरिए वोट मांगते नजर आ सकते हैं।

मशहूर बिरहा गायक श्रीराम यादव इस चलन को गलत मानते हैं। उनका कहना है कि वोट के लिए राजनेताओं के सुर में सुर मिलाना गलत है। लोककला को सियासी रंग देने से कलाकार के स्वर पर जहां राजनीतिक दलों का धब्बा लग जाता है, वहीं उसकी सुर साधना पर भी इसका असर पड़ता है।

उन्होंने कहा, "पुराने समय में लोकगायक नेताओं के प्रचार के लिए नहीं, बल्कि जनता की समस्याओं को सामने लाने के लिए गीत बनाते थे। पैसे के लिए सियासी सुर अलापना अब फैशन बन गया है। मैं इससे दूर ही रहना बेहतर समझता हूं।"

इधर, चुनावी मौसम में गीतों की मांग बढ़ गई है। इससे गीत रिकॉर्ड करने वाली कम्पनियों को भी खासा मुनाफा हो रहा है। रिकार्डिंग स्टूडियो चलाने वाले जयराम कुमार की मानें तो एक महीने के भीतर ही उन्हें 20 से ज्यादा उम्मीदवारों की ओर से गीत रिकार्डिंग के आर्डर मिले हैं।

जयराम ने बताया कि अलबम तैयार करने में 50 हजार से लेकर दो लाख तक खर्च आता है। इसमें लोकगायक का खर्च भी शामिल होता है। गांव-देहात में इसकी मांग ज्यादा होती है।


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