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जमीनी मुद्दों के साथ धर्मनिरपेक्षता पर लौटता राजनीतिक विमर्श

जिन पांच राज्यों की विधानसभाओं के लिये चुनाव निर्धारित हुए हैं उनमें से अंतिम तेलंगाना में गुरुवार को मतदान सम्पन्न हो जायेगा

जमीनी मुद्दों के साथ धर्मनिरपेक्षता पर लौटता राजनीतिक विमर्श
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- डॉ. दीपक पाचपोर

ध्रुवीकरण की काट तो सशक्तिकरण ही है। जातिगत जनगणना, न्याय योजनाएं, कर्ज माफी, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, न्याय योजनाएं आदि ऐसे अनेक मुद्दे हैं जो कांग्रेस के हाथ मजबूत कर सकते हैं। कर भी रहे हैं। इन्हीं के बल पर कांग्रेस राजस्थान, मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ के अलावा तेलंगाना भी जीत सकती है। कर्नाटक के चुनावी नतीजों ने कांग्रेस का ठोस मुद्दों की राजनीति में जो विश्वास मजबूत किया है, उसे आगे बढ़ाने में इन पांच राज्यों के परिणाम मदद करेंगे।

जिन पांच राज्यों की विधानसभाओं के लिये चुनाव निर्धारित हुए हैं उनमें से अंतिम तेलंगाना में गुरुवार को मतदान सम्पन्न हो जायेगा। मिजोरम, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश एवं राजस्थान सभी में मतदान पहले ही हो चुका है। इन सभी प्रदेशों के नतीजे एक साथ 3 दिसम्बर को आयेंगे। इन प्रादेशिक चुनावों का महत्व केवल सत्ता पर काबिज होने का नहीं रह गया है। उसके फलादेश को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखे जाने की ज़रूरत है। इसका महत्व सिर्फ इसलिये भी नहीं है कि ये चुनाव अगले साल के मध्य में होने जा रहे लोकसभा चुनाव के ऐन पहले हुए हैं। कायदे से तो जम्मू-कश्मीर के भी दिसम्बर में किये जाने थे परन्तु निर्वाचन आयोग एवं केन्द्र सरकार की न तो तैयारी दिखती है और न ही मंशा। हर बार की तरह सियासत की मुख्य धारा से अलग और बिलकुल भिन्न तरह के मुद्दों पर लड़ा जाने वाला जम्मू-कश्मीर का चुनाव जब भी होगा, इन राज्यों के मुकाबले अलग तासीर वाला रहेगा।

पिछले करीब साल भर से जो राजनीतिक परिदृश्य निर्मित हुआ है, उससे साफ है कि ये चुनाव लोकसभा-2024 के लिये जो विमर्श रचेंगे, उनमें जमीनी मुद्दों के साथ धर्मनिरपेक्षता का आयाम भी लौटेगा। भावी भारत किस राह चलेगा, यह भी इन्हीं 5-6 महीनों में तय हो जायेगा। वैसे जनसरोकार हो या धर्मनिरपेक्षता- दोनों को ही बेपटरी करने का काम नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में 2014 में बनी केन्द्र सरकार और भारतीय जनता पार्टी ने किया है। पहले कार्यकाल (2014-19) में उसकी शुरुआत हुई और 2019 में प्रारम्भ हुई उनकी दूसरी कार्यावधि के दौरान उसमें प्रगाढ़ता आई। ऐसे में जब तीसरी बार पीएम बनने मोदी को जनादेश लेने के लिये जनता के बीच जाने में आधा साल भी नहीं बचा है, ऐसे कोई चिन्ह दिखलाई नहीं देते कि वे किसी नयी राह पर चलकर लोगों से वोट मांगेंगे।

इसका कारण यही है कि इस बीच उन्होंने न तो यथार्थवादी मुद्दों पर काम किया और न ही साम्प्रदायिक सौहार्द्र व सामाजिक सद्भाव को महत्ता दी।इसके उलट उन्होंने सामजिक विभाजन तथा ऊर्ध्वाधर व क्षैतिज दोनों ही तरह से समाज को बांटने का काम किया है। इसके भरपूर दृष्टांत पिछले नौ-साढ़े नौ साल के दौरान देखने को मिले। इसलिये यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है कि क्या अगले चुनावों में ऐसा एजेंडा निर्धारित हो पायेगा जिससे देश अपनी खोई हुई लय को पा जाये? यूं तो दोनों ही मसले समान महत्व के हैं परन्तु कह सकते हैं कि जनहित के मुद्दों से हटने के कारण लोगों का जो आर्थिक नु

कसान हुआ है उसकी तो बड़े प्रयासों से भरपायी हो सकती है, लेकिन लोगों के बीच जो विभाजन और सामाजिक विखंडन हुआ है, उसको ठीक करने में लम्बा समय लगेगा। वैसे भी आने वाली सरकारें अगर जमीनी मुद्दों पर नये सिरे से पहल करती है तो उसका कोई विरोध न होगा क्योंकि आर्थिक लाभ सभी को सुहाता है- वैचारिक मतभेदों के बावजूद; परन्तु लोगों को फिर से जोड़ने एवं समाज को एक सूत्र में पिरोने की अगर कोशिशें होती हैं तो उसका विरोध उन्हीं शक्तियों द्वारा जारी रहेगा जो पिछली करीब एक शताब्दी से सक्रिय रही हैं और जिन्होंने देश को कभी एक न होने देने के लिये एड़ी-चोटी का जोर लगाये रखा।

इन पांच राज्यों के चुनावों के परिणामों के जैसे अनुमान लगाये जा रहे हैं, अगर वैसा हुआ तो धर्मनिरपेक्षता के भी केन्द्र में लौटने की आशा बंधती है। इसका कारण यह है कि इन चुनावों में मतदाताओं की दिलचस्पी केवल आर्थिक मुद्दों पर नहीं थी। यह सच है कि लोग शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, महंगाई, भ्रष्टाचार, केन्द्रीकृत पूंजीकरण पर बातें करने लगे हैं और अब इन्हें जीवन के ज़रूरी हिस्से मानने लगे हैं। फिर भी, कर्नाटक चुनाव से जनता के बीच जो हिलोरें उठी थीं वे इन राज्यों तक पहुंचते-पहुंचते बड़ी लहरें बन चुकी हैं जिनमें भाजपा की नाव डूबती नज़र आ रही है- पांचों राज्यों में। मिजोरम तथा तेलंगाना में तो वह वैसे भी मैदान से बाहर हो चुकी है। राजस्थान, मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ में वह विकास पर कोई बात नहीं कर पाई, जबकि उसके तीनों मुख्यमंत्रियों ने इन सूबों पर लम्बा वक्त राज किया है- क्रमश: वसुंधरा राजे सिंधिया, शिवराज सिंह एवं डॉ. रमन सिंह। इसकी बजाय उसने धु्रवीकरण को ही आजमाना तय किया।

राजस्थान में कन्हैयालाल की हत्या को उठाया तो छत्तीसगढ़ में कवर्धा व बीरनपुर (बेमेतरा) के मामलों को केन्द्र में रखा। बीरनपुर कांड में मारे गये भुनेश्वर साहू के पिता ईश्वर साहू को उसने साजा विधानसभा क्षेत्र में कद्दावर नेता रवींद्र चौबे के खिलाफ चुनावी मैदान में उतारा। मध्यप्रदेश में कोई घटना विशेष का इसलिये ज़िक्र नहीं किया क्योंकि वहां उसी की सरकार है। तो भी साम्प्रदायिकता का विषय कभी पीछे नहीं छूटा। वहां ध्रुवीकरण की जो भी कोशिशें हुईं वे अपनी सरकार को बचाने, उसे निर्दोष साबित करने और कांग्रेस को दोषी साबित करने वाली थीं। हालांकि वहां भ्रष्टाचार, एक आदिवासी युवक के सिर पर सवर्ण द्वारा पेशाब करने जैसे मामले अधिक मुखर रहे।

दरअसल राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा से धर्मनिरपेक्षता का विमर्श शुरू हुआ था। नफरत के खिलाफ निकाली गई मोहब्बत की इस यात्रा का मकसद उसी वैमनस्यता को खत्म करना था जो हिदुओं-गैर हिंदुओं तथा हिंदुओं के भीतर अगड़ों-पिछड़ों के बीच भाजपा ने घुसाया है। सवाल अब यह है कि ऐसे में जब मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस और उसके अन्य 27 सहयोगी दल, जो अब संयुक्त प्रतिपक्ष यानी इंडिया के हिस्से हैं तथा वे भी जन सरोकारी राजनीति पर उतरे हुए हैं, उन्हें सकारात्मक जवाब देने भाजपा अपनी राह बदलेगी? सम्भवत: नहीं। इसका कारण यह है कि अब भी पार्टी का प्रमुख या कहें तो एकमात्र चेहरा मोदी ही हैं जिनकी लोकप्रियता का आधार ही उनका ध्रुवीकरण की राजनीति में पारंगत होना है।

विकास के मामले में उनका ट्रैक रिकार्ड बेहद खराब है। इसलिये दरकती छवि के बावजूद भाजपा व मोदी अब भी ध्रुवीकरण के ही एजेंडे पर कायम हैं। राममंदिर के शिलान्यास की तिथि नज़दीक आ रही है- 22 जनवरी, 2024 और इसमें मुख्य अतिथि (शायद अकेले) मोदी रहेंगे और पार्टी इस संदेश को देश के घर-घर तक पहुंचाने की तैयारी कर चुकी है। न करती तो आश्चर्य होता। राजस्थान का चुनाव जिस शाम खत्म हुआ, मोदी का मथुरा में मीरा जन्मोत्सव और उस स्थान पर जाना जहां कृष्ण का जन्म हुआ था, संकेत देता है कि अयोध्या के बाद अब बारी मथुरा की है। अगले दिन तिरुपति बालाजी मंदिर में मोदी का पहुंचना बतलाता है कि भाजपा के पास कोई अन्य मुद्दा शेष नहीं है और 2024 का चुनाव अंतत: इन्हीं तरीकों से लड़ा जाएगा।

इसके बावजूद कहा जा सकता है कि ध्रुवीकरण की काट तो सशक्तिकरण ही है। जातिगत जनगणना, न्याय योजनाएं, कर्ज माफी, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, न्याय योजनाएं आदि ऐसे अनेक मुद्दे हैं जो कांग्रेस के हाथ मजबूत कर सकते हैं। कर भी रहे हैं। इन्हीं के बल पर कांग्रेस राजस्थान, मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ के अलावा तेलंगाना भी जीत सकती है। कर्नाटक के चुनावी नतीजों ने कांग्रेस का ठोस मुद्दों की राजनीति में जो विश्वास मजबूत किया है, उसे आगे बढ़ाने में इन पांच राज्यों के परिणाम मदद करेंगे। भाजपा की दिक्कत यह है कि अब अगर वह अपना एजेंडा बदलना भी चाहे तो उसके पास इस मोर्चे पर साख बनाने का वक्त नहीं है। फिर उनके अपने समर्थक ही उनसे मुंह मोड़ लेंगे।
(लेखक देशबन्धु के राजनीतिक सम्पादक हैं)


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