महाराजा का दरबार नहीं, 140 करोड़ लोगों की आवाज है संसद
संसद वह सर्वोच्च संस्था है जो देश के 140 करोड़ लोगों का प्रतिनिधित्व करती है

- संदीप सिंह
आज संसद में खुलेआम सत्तापक्ष और विपक्ष में भेदभाव किया जाता है। अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान राहुल गांधी ने 37 मिनट का भाषण दिया लेकिन संसद टीवी के कैमरे ने उन्हें सिर्फ 14 मिनट 37 सेकेंड दिखाया, बाकी टाइम कैमरा लोकसभा अध्यक्ष को दिखाता रहा। इसके उलट, नरेंद्र मोदी या अमित शाह के भाषण के दौरान संसद टीवी ने ऐसा नहीं किया।
संसद वह सर्वोच्च संस्था है जो देश के 140 करोड़ लोगों का प्रतिनिधित्व करती है। इसका काम ये सुनिश्चित करना है कि देश संविधान के मुताबिक चले। देश और जनता के हित को सुरक्षित रखने के लिए संसद संविधान बदलने से लेकर हर तरह के फैसले ले सकती है। मौजूदा संसद सत्र खत्म होने के साथ यह सवाल पूछा जाना लाजिमी है कि क्या हमारी संसद ने देश की ज्वलंत समस्याओं को हल करने की पहल की? इसका जवाब बहुत निराशाजनक है।
चार महीने से जल रहे मणिपुर का मंजर, भयावह है। प्रधानमंत्री समेत केंद्र सरकार ने इसमें अब तक कोई हस्तक्षेप नहीं किया है। हत्या, बलात्कार, आगजनी और सामुदायिक विभाजन ने मणिपुर को लगभग चीरकर रख दिया है। संसद में विपक्ष ने प्रधानमंत्री से सदन में मणिपुर पर बयान की मांग की लेकिन इस मांग को ठुकरा दिया गया। मजबूरन विपक्ष को अविश्वास प्रस्ताव पेश करना पड़ा। प्रधानमंत्री को संसद में बयान देने आना पड़ा, लेकिन मणिपुर के लोगों को उन्होंने निराशकिया। दो घंटे के भाषण में उन्होंने सबसे अंत में मणिपुर का जिक्र किया, जिसमें भी ठोस कुछ नहीं था। इस सारी कार्रवाई से मणिपुर की जनता को क्या मिला?
संसद चाह ले और प्रधानमंत्री चाह लें तो मणिपुर की समस्या दो दिन में हल हो सकती है। संसद चाहे तो विभिन्न राज्यों में फैले सांप्रदायिक तनाव को तुरंत रोका जा सकता था। प्रधानमंत्री चाह लें तो दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों पर हो रहा अत्याचार तुरंत रोका जा सकता है। संसद चाह ले और प्रधानमंत्री चाह लें तो महंगाई कम हो सकती है। प्रधानमंत्री चाह लें तो बेरोजगारी दूर हो सकती थी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ।
मणिपुर तीन महीने तक जलता रहा। राज्य की भाजपा सरकार इसे रोकने में नाकाम रही। केंद्र सरकार मौन। हिंसा और बर्बादी के बीच प्रधानमंत्री की चुप्पी से उकताकर मणिपुर की सभी पार्टियों के नेता प्रधानमंत्री से मिलने दिल्ली आए थे। प्रधानमंत्री ने उन्हें मिलने का वक्त नहीं दिया और विदेश यात्रा पर चले गए। जब प्रधानमंत्री को अविश्वास प्रस्ताव के जरिये संसद में आकर बोलने के लिए मजबूर किया गया तब भी वे दायें-बायें की बातें करते रहे, हंसी-मजाक-तंज करते रहे, इतिहास बांचते रहे और झूठ बोलते रहे।
क्या देश के 140 करोड़ लोग संसद से इतनी भी उम्मीद नहीं रख सकते कि जिस समय वे कोई अभूतपूर्व संकट झेल रहे हों तो संसद उसमें सकारात्मक हस्तक्षेप करे? भाजपा को यह याद रखना चाहिए कि संसद किसी महाराजा का दरबार नहीं है। यह 140 करोड़ लोगों की प्रतिनिधि संस्था है जिसके पास सर्वोच्च शक्ति है और जनकल्याण के लिए फैसला लेने की ताकत है। लेकिन भाजपा सरकार ने संसद में मौजूद इस 140 करोड़ लोगों की सारी शक्ति को एक व्यक्ति के चरणों में डाल दिया है। 'जो तुमको हो पसन्द हो वही बात कहेंगे' अब संसद का तराना है। अन्यथा विपक्षी सांसदों को आवाज उठाने के जुर्म में निष्कासित कर दिया जाता है। मौजूदा सत्र के दौरान विपक्ष के कई सांसदों को अनुचित ढंग से निष्कासित कर दिया गया।
आज संसद में खुलेआम सत्तापक्ष और विपक्ष में भेदभाव किया जाता है। अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान राहुल गांधी ने 37 मिनट का भाषण दिया लेकिन संसद टीवी के कैमरे ने उन्हें सिर्फ 14 मिनट 37 सेकेंड दिखाया, बाकी टाइम कैमरा लोकसभा अध्यक्ष को दिखाता रहा। इसके उलट, नरेंद्र मोदी या अमित शाह के भाषण के दौरान संसद टीवी ने ऐसा नहीं किया। विपक्षी नेता लगातार इस तरह के भेदभाव की शिकायतें लोकसभा अध्यक्ष से करते रहे हैं लेकिन यह बंद नहीं हो रहा है।
फरवरी में जब राहुल गांधी ने संसद में अडाणी और मोदी सरकार की साठगांठ से चल रहे भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाया तो उनके खिलाफ एक बंद पड़े केस को खोल दिया गया और मात्र दो सुनवाई में दो साल की सजा दे दी गई। इस सजा के बाद लोकसभा की भूमिका बेहद चौंकाने वाली रही। सजा सुनाने के 24 घंटे के अंदर ही लोकसभा सचिवालय ने इसे आधार बनाकर राहुल गांधी की संसद सदस्यता रद्द कर दी, जबकि खुद कोर्ट ने राहुल गांधी को अपील करने के लिए 30 दिन का वक्त दिया था। जनप्रतिनिधित्व अधिनियम के अनुच्छेद-103 के अनुसार, किसी संसद सदस्य की सदस्यता पर सवाल उठने की स्थिति में यह मामला राष्ट्रपति को भेजा जाता है। राष्ट्रपति चुनाव आयोग की राय लेकर फैसला करते हैं। राहुल गांधी के मामले में लोकसभा सचिवालय ने ऐसा फैसला लिया जिसका उसे अधिकार ही नहीं है। भारत के संसदीय इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ।
ओम बिरला से पहले भाजपा सरकार ने सुमित्रा महाजन को लोकसभा अध्यक्ष बनाया था जो कि नरेंद्र मोदी के भाषण पर मेज थपथपाने लगती थीं। मंत्रियों के फंसने पर अपनी ओर से राय देने लगती थीं। वे इतना खुलकर पक्षपात करती थीं कि मीडिया में खबरें छपीं कि लोकसभा अध्यक्ष के रूप में सुमित्रा महाजन का व्यवहार भाजपा कार्यकर्ता की तरह है।
जीवी मावलंकर देश की पहली लोकसभा के अध्यक्ष थे। एक बार प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू बोलने के लिए खड़े हुए तो जीवी मावलंकर ने उन्हें टोक दिया क्योंकि यह नियम के विरुद्ध था। उनके टोकने पर नेहरू ने शालीनता से सिर झुकाया और बिना बोले ही बैठ गए। एक और घटना है जब पंडित नेहरू लोकसभा में एक अध्यादेश लाना चाहते थे। इस पर मावलंकर ने कहा, 'यह काम करने का लोकतांत्रिक तरीका नहीं है। सरकार को अपवाद की स्थिति में ही अध्यादेश का सहारा लेना चाहिए। यह तभी किया जाना चाहिए, जब ऐसा करना बहुत जरूरी हो।' पंडित नेहरू ने हमेशा लोकसभा अध्यक्ष के आदेश का सम्मान किया। इसका मतलब यह था कि संसद प्रधानमंत्री से बड़ी है। लेकिन आज लोकसभा अध्यक्ष पार्टी के कार्यकर्ता और एक व्यक्ति के गुणगान के लिए काम करते दिखते हैं।
पंडित नेहरू कहते थे, 'अध्यक्ष सदन की गरिमा तथा उसकी स्वतंत्रता का प्रतिनिधित्व करता है और चूंकि सदन राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है इसलिए अध्यक्ष एक प्रकार से राष्ट्र की स्वतंत्रता और स्वाधीनता का प्रतीक होता है।' आज हमारे लोकसभा अध्यक्ष और सत्ता में बैठी भाजपा मिलकर विपक्ष के साथ भेदभाव करके उस गौरवशाली संसदीय परंपरा को अपमानित करते हैं जिसकी शुरुआत पंडित नेहरू, सरदार पटेल, डॉ अंबेडकर और जीवी मावलंकर जैसे महापुरुषों ने की थी।
(लेखक कांग्रेस से हैं और जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष रहे चुके हैं। )


