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राजनीति के परमहंस अटल जी ने कर्म को ही धर्म माना

राजनीति के परमहंस, भारतरत्न, पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी देश के सर्वाधिक लोकप्रिय जननेता के रूप में सदैव अमर रहेंगे

राजनीति के परमहंस अटल जी ने कर्म को ही धर्म माना
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राजनीति के परमहंस, भारतरत्न, पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी देश के सर्वाधिक लोकप्रिय जननेता के रूप में सदैव अमर रहेंगे। वर्ष 2004 के आम चुनाव में हार के बाद सत्ता की राजनीति से संन्यास ले लेने वाले अटलजी ने अपने लोक जीवन में जो मिसाल कायम की, वह दुर्लभ है।

सक्रिय राजनीति के दौर में अटलजी का कभी कोई व्यक्तिगत विरोधी नहीं रहा। विपरीत राजनीतिक विचारधारा के लोग भी उनका सदा सच्चे हृदय से सम्मान करते रहे। एक जमाने में राजनीतिक अछूत सी समझी जाने वाली भारतीय जनता पार्टी को देश के बहुत सारे दलों के बीच सिरमौर बनाने का श्रेय उन्हीं के खाते में दर्ज है।

देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू उनकी प्रतिभा को बहुत पहले की जान गए थे। अटलजी की उदारवादी सोच ही उनकी आत्मिक शक्ति रही। वे भारत की आशाओं के प्रतीक बने। भारतीय जनसंघ के संस्थापक सदस्यों में शामिल अटलजी सबको साथ लेकर विकास पथ पर देश को आगे बढ़ाने के पक्षधर थे। धुर राजनीतिक विरोधियों से उनकी अंतरंगता, सौजन्यता, सम्मान भावना ने अटलजी को राजनीति के संत के तौर पर प्रतिष्ठापित किया।

'हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा..!' अटलजी ने न कभी चुनौतियों से हार मानी, न कभी किसी से रार ठानी। उदारमना अटलजी की तेजस्विता ने राजनीति के जिस युग का शंखनाद किया, उसकी गूंज सारी दुनिया में सुनाई दी। अटलजी का नाता देश से रहा, किसी भी विवाद को उन्होंने अपने निकट आजीवन नहीं फटकने दिया। अटल जी के लिए अपना-पराया कोई नहीं।

अटल जी के लिए कर्म ही प्रधान रहा। उन्होंने कर्म को ही धर्म माना। उनकी सर्व स्वीकार्यता का इससे बड़ा उदाहरण क्या होगा कि 'सांप्रदायिक ताकत' का नाम देकर बदनामी का शिकार बनाई जाने वाली भाजपा के शिखर नेता का लखनऊ की जनता ने कभी साथ नहीं छोड़ा। यह तो उस क्षेत्र की बात है, जहां का प्रतिनिधित्व वे करते रहे। लेकिन देश का नेतृत्व करने की क्षमता भी उन्हें उत्तरप्रदेश ने दी।

वजह स्पष्ट है कि अटल जी राजनीति में होते हुए भी राजनीति से ऊपर थे। जैसे सरोवर में कीचड़ से ऊपर रहने वाला कमल। याद आता है, वह प्रसंग, जब अटलजी को लोकसभा पहुंचने से रोकने के लिए ग्वालियर में उनके खिलाफ माधवराव सिंधिया को चुनाव मैदान में उतार दिया गया था। अटलजी वह चुनाव ग्वालियर में हार गए, लेकिन लखनऊ ने उन्हें दिल्ली भेजा।

वह दौर भी याद आता है, जब लोकसभा में भाजपा के दो ही सदस्य अटल व लालकृष्ण आडवाणी थे। इन्हीं दोनों ने भाजपा को दो से सौ पर पहुंचाया। गठबंधन राजनीति का दौर शुरू हुआ तो अटलजी ने भाजपा का जनसंघ के जमाने से देखा जा रहा सपना साकार कर दिया। पहले तेरह दिन, फिर तेरह माह और फिर बहुमत वाली गठबंधन सरकार के मुखिया बनकर उन्होंने भारत को नई दिशा दी।

विश्व में भारत की विश्वसनीयता बढ़ी। भारत ने पड़ोसी दुश्मन से भी रार नहीं ठानी। दोस्ती का हाथ बढ़ाया, लेकिन वक्त आने पर कड़ा सबक भी सिखा दिया। भारत को वैश्विक बिरादरी में आज जो सम्मान प्राप्त है, उसके पीछे अटलजी के कूटनीतिक चातुर्य का अद्वितीय योगदान है। अटलजी की कूटनीतिक क्षमता का अहसास तो अपने प्रधानमंत्रित्वकाल में राजीव गांधी को भी हो गया था, इसीलिए उन्होंने देश का प्रतिनिधित्व करने के लिए अटलजी का सहयोग लिया था।

अटलजी ने सुदीर्घ राजनीतिक जीवन में कभी भी क्षण मात्र की कटुता अथवा नैराश्य को पनाह नहीं दी। वे भारत के ऐसे इकलौते राजनेता रहे हैं, जिन्हें विपरीत राजनीतिक विचारधारा के नेताओं ने भी अपनापन दिया। अटलजी सर्वदा इसके अधिकारी थे। उन्होंने राजनीति और समाजनीति को अलग-अलग संज्ञाएं दे रखी थीं। किंतु अभीष्ट यही था कि राजनीति अपनी जगह और समाज अपनी जगह।

राजनीति को समाजपरक होना चाहिए। न तो समाज आधारित राजनीति हो और न ही राजनीति पर आधारित सामाजिकता। यही वजह है कि अटल बिहारी वाजपेयी का कोई राजनीतिक विरोधी नहीं हुआ। वे देश के सर्वमान्य जननेता बने और राजनीति से संन्यास लेने के बाद भी सर्वप्रिय नेता। अटलजी ने आजीवन मूल्यों की राजनीति की और राजनीति को मूल्यांकित किया।

अब स्मृति शेष है, चिर स्मृति शेष है। अटलजी की एक कविता के माध्यम से ही उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि :

मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं

जिंदगी सिलसिला, आज कल की नहीं

मैंने जीभर जिया, मैं मन से मरूं

लौटकर आऊंगा, कूच से क्यों डरूं?


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