चरखों की पंचायत
ठाले री सखी पीढ़ा बतलावैंगे, सूत कातन नै चरखा चलावैंगे

- डॉ उमेश प्रताप वत्स
चल मेरे चरखे चकर-चूँ , गेल दहेज मै आया था क्यूँ।
या फिर....
ठाले री सखी पीढ़ा बतलावैंगे, सूत कातन नै चरखा चलावैंगे।
इस तरह के लोकगीत चरखों पर सूत कातते हुए हमारे घर की तरह ही गाँव के उन सब घरों में सामूहिक रुप से गूँजते रहते थे जहाँ घर के आँगन बड़े-बड़े होते थे या फिर आँगन में छायादार बकैण आदि के पेड़ हुआ करते थे।
मुझे याद है जब हमारे घर में ही पाँच चरखे हुआ करते थे। एक दादी का, एक माँ का, एक ताई का तो एक भाभी का और एक मेरी बड़ी बहन चलाती थी। फिर पड़ोस की चाची, ताई और लड़कियाँ भी दोपहर के खाने के बाद घर का चलू्हा-चौका निपटाकर अपने-अपने चरखे सिर पर उठाए हमारे घर आकर दालान में इकठ्ठी हो जाती थी।
चरखे सिर पर रखे होते हुए भी उनकी बातें चलती रहती थी । फिर जब वे चरखे नीचे रखकर अपने-अपने पीढ़े पर बैठ जाती तो माँ सबको पानी-वानी पिलाती और फिर शुरु हो जाती चरखों की चकर-चूँ, चकर-चूँ। इधर चरखे का पहिया चलता उधर बिना किसी झिझक , रोक-टोक के सबकी जुबान चलती। जब बातें करते हुए बहुत देर हो जाती तो किसी भी बात पर खिलखिलाकर हंसने लगती। दोपहर की धूप कम होने के बाद सारी पड़ोसने हमारे बड़े से आंगन में बकैण के नीचे छाया में चरखा रखकर अपनी पहले से ही निश्चित की गई जगह पर कब्जा करके बैठ जाती। एक ओर चरखें चकर-चूँ , चकर-चूँ करते तो इनकी चकर चूँ के साथ-साथ सभी महिलाएं मिलकर लोकगीत की मधुर लय से सारे आँगन में मधुरता का रस सा घोल देती और जब एक के बाद एक गीत गाते-गाते थक जाती तो फिर शुरु हो जाती थी चरखों की पंचायत, जिसमें गाँवभर की खट्टी-मीठी, अच्छी-बुरी और राजी-खुशी सभी प्रकार की बातें चलती। कुछ महिलाएं बोलने में बहुत वाकपटु थी तो कुछ हगूंरे देने में ही उस्ताद। उनकी आवाज बाहर गली से गुजरते लोंगो तक भी यह संदेश पहुँचा देती कि पटवारी के घर में चरखों की पंचायत शुरु हो गई है।
अक्सर गाँव में सभी घरों में रिवाज सा था कि बच्चों को नाश्ता-पानी करवाकर पाठशाला भेज दिया जाता और फिर दोपहर का खाना तैयार कर सबको परोसा जाता, खाना खाकर घर के आदमी तो बैठक या चौपाल में चले जाते और औरतें घर का सारा चुल्हे-चौके का काम निपटाकर कल वाली बात को पूरा करने के लिए आतुर हो चरखों की पंचायत का बेसब्री से इन्तजार करती।
चरखे को समाज में सम्मानित स्थान दिलाने वाले महात्मा गाँधी ने भी नहीं सोचा होगा कि एक दिन यह चरखा हिन्दुस्तान के गाँव-गाँव में महिलाओं की पंचायत के लिए सबसे बड़ा माध्यम बनकर उभरेगा। यह पंचायत लोकगीतों के माध्यम से मनोरंजन और सामूहिक चर्चा के माध्यम से ज्ञान का बहुत बड़ा भंडार भी थी। यह भी कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि कई बार इन्हीं चरखों की पंचायत में भविष्य गढ़ने का सकारात्मक मार्ग भी निकलकर आता था।
चरखों की यह पंचायत मात्र सूत कातने तक सीमिन न होकर आर्थिक स्वालंबन का माध्यम भी थी। हर बुधवार सभी महिलाएँ सप्ताह भर का सूत इक_ा कर एक साथ खादी आश्रम जाती और बदले में या तो घर के लिए खेस, तौलिये आदि ले आती या फिर जवान होती बिटिया अथवा पोती के लिए दरी, चादर बिस्तर आदि लेकर आती ताकि थोड़ा-थोड़ा सामान एकत्रित कर धीरे-धीरे आने वाले समय में विवाह में लड़की को देने के लिए कुछ प्रबंध भी हो जाए और परिवार के मुखिया कहे जाने वाले पुरुषों पर अधिक भार भी न पड़े। खादी आश्रम वाले साबुन तेल आदि घर के लिए जो कुछ भी जरूरत का सामान रखते वो भी सूत के बदले आसानी से मिल जाता। जो महिलाएं लगातार सूत कातकर घर का सभी आवश्यक सामान जुटा लेती वे अपनी जमापूंजी वाली कॉपी में सूत के बदले मिलने वाले पैसे जुड़वा लेती थी अर्थात् आदमी जो पैसे कमाता उससे अलग भी ये महिलाएँ घर की अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए घर के काम-काज के साथ-साथ अतिरिक्त श्रम करती थी।
अभी पिछले साल की ही तो बात है रामशरण चाचा केहरी जमींदार के खेतों के पास जंगल में ईंधन के लिए सूखी लकड़ियाँ लेने गए तो सहसा ही एक काले नाग ने ऐसा डंक मारा कि कुछ ही देर में रामशरण चाचा का पूरा शरीर नीला पड़ गया। चीखने-चिल्लाने पर जब खेत में काम कर रहे कुछ ग्रामवासी दौड़कर आए तो तब तक चाचा की जीवन लीला ही समाप्त हो गई थी। पीछे घर में तीन बच्चों के साथ चंपा चाची विधवा बेसहारा होकर रोटी के लिए भी मोहताज हो गयी।
एक दिन चाची हमारे घर आकर माँ के सामने अपने दु:खड़े सुनाती-सुनाती फफक-फफक कर रो पड़ी कि जब बिल्लू का बापू जमींदार के यहाँ काम करता था तो खाने को अनाज के दाने मिल जाते थे तथा तीज-त्यौहार पर कुछ कपड़े-लत्ते भी मिल जाया करते थे। अब तो उनके साथ-साथ सब कुछ उजड़ गया जीने का कोई सहारा न रहा। बहन जी दु:ख अपनी जगह और पेट अपनी जगह। भूखे पेट को तो रोटी चाहिए चाहे दु:ख हो या सुख। बहन मैं क्या करुँ और कहाँ जाऊँ ? कैसे चलाऊँ घर का सब खर्च? कैसे अपने बच्चों का पेट भरूं।
माँ ने कहा देख चंपा बहन मेरे होते हुए तुम बिल्कुल भी चिंता मत करो। माँ भीतर गई और अपना चरखा उठाकर लाई और बोली, आज के बाद यह चरखा तुम्हारा है और बहन तुम सूत कातकर अपने घर का खर्च चलाओ, अपने बच्चों का पेट भी भरो। माँ एक बोहिये में रुई भी लेकर आयी और कहा आज से ही तुम चरखा कातना शुरु कर दो। चंपा चाची का गला रुँध गया। शुक्रिया कहने के लिए उसके मुख से बोल ही नहीं निकल पा रहे थे। वह माँ के चरणों में बैठ गई और कृतज्ञता भरी दृष्टि से माँ को निहारने लगी।
चंपा - लेकिन...
माँ बोली - देख चंपा, परेशान होने की जरूरत नहीं जब तुम अपना चरखा बनवा लोगी तो मेरा चरखा वापिस कर देना। कहती हुई माँ चंपा चाची के लिए एक थाली में खाना लेकर आई बच्चों के लिए भी एक डिब्बे में पैक कर दिया ।
पति तो नहीं रहा किन्तु चरखे के कारण चंपा चाची को एक नया सहारा मिल गया था। वह इज्जत से दो रोटी खाने के और दो पैसे बचाने के सपने देखने लगी और एक उम्मीद के साथ अपने घर चली गई। दोपहर बाद सबके साथ चंपा चाची ने भी हमारे आँगन में ही चरखा चलाना शुरु कर दिया और सूत कातने के साथ-साथ कुछ दिनों में ही सबके साथ बोलने बतलाने से उसका दु:ख भी हल्का हो गया और सारा सूत लेकर जब वह
खादी आश्रम गई तो उसे सूत के अच्छे-खासे दाम भी मिल गए, जिससे वह घर की जरुरतों का सामान खरीद लाई फिर कुछ ही दिनों बाद सूत कातने से इक_े हुये पैसों से वह बढ़ई के पास जाकर एक चरखा भी बनवाकर लाई।
चंपा - ले बहन! तेरा यह चरखा और यह रुई। बुरे वक्त में थारी मदद से मैं अपने पैरों पर खड़ा हो पाई हूँ । भगवान थारे दूध-पूत फलावैं। थारे घर में भूले से भी कभी दु:ख की परछाई न पड़े। यह कहते हुए चंपा चाची की आखें भर आयी।
माँ को अपना चरखा वापिस लेने से अधिक खुशी इस बात की हो रही थी कि कुछ ही दिनों में चंपा चाची ने इतनी मेहनत से सूत काता कि घर का खर्च चलाने के साथ-साथ अपने लिए एक नया चरखा भी बनवा लिया। पति के जाने के बाद जो दु:खों का पहाड़ उस पर टूट पड़ा था अब सबके साथ बैठकर, सूत कातने के साथ-साथ कुछ गाकर कुछ सुनकर, राजी-खुशी बतलाकर वह अपने दु:ख से भी ऊभर रही थी। माँ ने उसे गले से लगा लिया।
नया चरखा आने से चंपा चाची अब अपने घर में भी सूत कातने लगी और फिर दोपहर बाद हमारे घर आकर भी सबके साथ हँसती-बोलती और तेजी से सूत कातती। चंपा चाची ने अब अपने बच्चों को भी पाठशाला भेजना शुरु कर दिया और घर का गुजारा भी ठीक-ठाक होने लगा।
इस पंचायत में पड़ोस की कुछ कम पढ़ी-लिखी वे लड़कियाँ भी आने लगी जो गाँव के विद्यालय की पढ़ाई पूरी कर आगे की पढ़ाई के लिए गाँव से बाहर नहीं भेजी गई थी। इन पढ़ी-लिखी लड़कियों के कारण महिलाओं की इस पंचायत में बहस के लिए कुछ नए विषय भी जुड़ने लगे। चरखे की पंचायत के बहाने युवतियाँ खुलकर अपने मन की बात रख देती जिससे वे एक-दूसरे के साथ अधिकाधिक निकट आ जाती और इसी निकटता के कारण पढ़ाई छोड़ चुकी लड़कियों का दर्द भी बाहर निकलकर आने लगता। चरखा चलाते-चलाते बहस होने लगती कि लड़कियों को पढ़ाई के लिए आगे भेजना चाहिए या नहीं। लगातार पाँच दिन चली बहस के बाद एकाएक माँ ने कहा कि देखो बहनों ऊषा को तो लोक लिहाज के दबाव में मैंने भी आठवीं दर्जे की पढ़ाई करवाकर स्कूल छुड़वा दिया था किन्तु रेखा को तो मैं बड़े स्कूल की पढ़ाई जरुर करवाऊँगी। जब लड़के पढ़ सकते हैं तो लड़कियाँ क्यों न पढ़ें। माँ की बात सुनकर पंचायत में एकदम सन्नाटा छा गया। एक-दो ने तो माँ की बात के पक्ष में अपनी बात रखी किंतु अधिकतर विपक्ष में ही बोलने वाली थी। कइयों ने कहा कि पढ़ाई तो ठीक है
किन्तु लड़कों के साथ पढ़ने भेजना मर्यादा की बात नहीं है। कइयों ने कहा कि हमारे घरवाले तो यह सनुते ही हमें जान से मार देंगे। दिन बीतते गए पंचायत नियमित चलती रही।
कुछ दिन बाद जब बापू जी फौज से एक महीने की छुट्टी में घर आए तो माँ ने रेखा की बड़े स्कूल में पढ़ाई के लिए बात की। उसका दाखिला पास के गाँव में बड़े स्कूल में करवा दिया गया। गाँव में चर्चा हुई, औरतों में कानाफूसी चली, चरखों की पंचायत में बहस का विषय रेखा का बड़े स्कूल में दाखिला बना। माँ के इस कदम से कई महिलाओं के सपनों को भी पंख लग गए और धीरे-धीरे एक-एक करके कई महिलाओं ने अपनी लाडली को आगे की पढ़ाई के लिए बड़े स्कूल में दाखिल करवाने हेतु गाँव से बाहर भेजना स्वीकार किया। कुछ समय बाद गाँव की लड़कियाँ इकठ्ठी होकर पढ़ने के लिए बड़े स्कूल जाने लगी। चंपा चाची के तीनों बच्चें भी स्कूल जाने लगे। बीच वाली लड़की तो बड़े स्कूल में पढ़कर अध्यापिका बन गई और पड़ोस के ही एक गाँव के छोटे स्कूल में बच्चों को पढ़ाने लगी। गाँव के कई बच्चें निकट-दूर नौकरियों पर जाने लगे । कई युवतियां डाकखाने , ऑफिस तथा बिजली विभाग में नौकरी करने लगी। गाँव में एक अलग सा बदलाव आ गया और चरखों की पंचायत सुनहरे भविष्य गढ़ने के लिए निरंतर यूँ ही घंटों चकर-चूँ , चकर-चूँ करती हुई चलती रही।


