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लोकतंत्र की रक्षा का विकल्प

महाराष्ट्र में जून 2022 से चल रहे राजनैतिक प्रहसन में 10 जनवरी को फिर एक नया मोड़ आया

लोकतंत्र की रक्षा का विकल्प
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महाराष्ट्र में जून 2022 से चल रहे राजनैतिक प्रहसन में 10 जनवरी को फिर एक नया मोड़ आया। विधानसभा स्पीकर राहुल नार्वेकर ने शिवसेना में दो फाड़ करने वाले एकनाथ शिंदे और उनके गुट के सभी विधायकों की अयोग्यता पर अपना फैसला सुना दिया। अनुमान के मुताबिक फैसला शिंदे गुट के पक्ष में ही आया। राहुल नार्वेकर ने 1999 के शिवसेना के संविधान को मान्य कहते हुए शिंदे गुट को ही असली शिवसेना माना है। इससे पहले शिवसेना के नाम और निशान लड़ाई में भी चुनाव आयोग ने भी शिंदे गुट के पक्ष में फैसला सुनाया था। महाराष्ट्र का मामला इससे पहले सुप्रीम कोर्ट भी पहुंच चुका है, जहां अदालत ने शिंदे सरकार को बने रहने के निर्देश दिए थे लेकिन विधानसभा अध्यक्ष को विधायकों की अयोग्यता पर फैसला सुनाने कहा था।

अदालत ने श्री नार्वेकर को 31 दिसंबर तक फैसला सुनाने का निर्देश दिया था, लेकिन फिर भी समय सीमा 10 दिन बढ़ा दी गई। इस फैसले को सुनाने में चाहे लंबा वक्त लिया गया हो, लेकिन सभी को अहसास था कि भाजपा के राज में किसी भी तरह उद्धव गुट को जीत नहीं मिलेगी। अब फैसले के पीछे चाहे जो तर्क दिए जाएं, यह तो जाहिर ही है कि भाजपा के सहयोग से एक पार्टी में फूट डालकर, उसके मंत्रियों और विधायकों को खरीदकर भाजपा को सत्ता में लाया गया। पिछले चुनावों में महाराष्ट्र में महाविकास अघाड़ी की सरकार बनी थी, जिसमें भाजपा को विपक्ष में बैठना पड़ा था, लेकिन 2022 में भाजपा ने आपरेशन लोटस चलाया और सत्ता में आ गई। उसके बाद से शिवसेना में नाम, निशान और सत्ता की लड़ाई चली, जिस पर बुधवार को उद्धव गुट को एक और मात मिली है। बुधवार का फैसला आने से पहले स्पीकर श्री नार्वेकर और मुख्यमंत्री श्री शिंदे की मुलाकात भी हुई थी, जिस पर उद्धव गुट ने सवाल उठाए थे, लेकिन अब इंसाफ की लड़ाई में नीयत और नैतिकता के सवाल हाशिए पर धकेले जा रहे हैं।

फ्रेंच भाषा का एक शब्द है-देजा वू, यानी ऐसी कोई घटना या बात जिसे देख-सुनकर महसूस हो कि ऐसा पहले भी हुआ है। बस याद नहीं आता कि कब और कहां। महाराष्ट्र के ताजा प्रकरण को देखकर देजा वू जैसा अनुभव तो हुआ है, लेकिन जरा सा याददाश्त पर जोर डालें तो याद आ जाएगा कि लोकतंत्र का मखौल उड़ाने वाली ऐसी एक नहीं कई घटनाएं पिछले 10 सालों में देश में हुई हैं। जैसे राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद में सुप्रीम कोर्ट ने माना कि बाबरी मस्जिद को तोड़ना गलत था, लेकिन फिर भी राम मंदिर उसी जगह बनाने की अनुमति भी दे दी।

गलती करने वालों को कोई सजा भी अब तक नहीं हुई और राम मंदिर का राजनैतिक उद्घाटन करने की तैयारी हो गई है। इसी तरह महाराष्ट्र मामले में भी 11 मई 2023 को अपने अहम फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने उद्धव ठाकरे की सरकार बहाल न करने का फैसला सुनाया था, क्योंकि श्री ठाकरे ने मुख्यमंत्री पद से खुद ही इस्तीफा दिया था। मगर इसके साथ ही इस पूरे प्रकरण में यह भी माना था कि शिवसेना के दूसरे गुट के व्हिप को मान्यता देकर विधानसभा अध्यक्ष ने गलत किया। शीर्ष अदालत ने यह भी कहा था कि राज्यपाल ने फ्लोर टेस्ट करने का जो आदेश सुनाया था, वह गलत था। विधानसभा अध्यक्ष और राज्यपाल ने जो गलत किया, वो सही कैसे होगा, इसका कोई सूत्र अदालत के फैसले से नहीं मिला। अलबत्ता उद्धव ठाकरे को अपने एक साथी द्वारा दिए गए धोखे के बाद इस्तीफा देने की सजा सत्ता से बाहर होकर चुकानी पड़ी।

अरुणाचल प्रदेश, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, गोवा, महाराष्ट्र, बिहार, पिछले 10 सालों में इन राज्यों में भाजपा का किसी न किसी तरह सत्ता में आना, राजनीति शास्त्र के विद्यार्थियों के लिए अध्ययन और शोध का विषय हो सकता है। विश्व में लोकतंत्र की सर्वाधिक प्रचलित परिभाषा है, जनता का, जनता के लिए, जनता द्वारा शासन। लेकिन भारत में भाजपा के छत्र चले एक नयी परिभाषा और अध्याय लोकतंत्र के नाम पर लिखा जा चुका है। जिसमें तंत्र गाढ़े अक्षरों में लिखा हुआ है, और लोक को हाशिए पर धकेल दिया गया है। महाराष्ट्र में शिवसेना के प्रकरण के बहाने देश की अदालत और चुनाव आयोग जैसी स्वायत्त संस्था के पास सुनहरा मौका था कि वे लिखे हुए नियमों और कानूनों पर आंख मूंदकर चलने की जगह नैतिकता पर बल देते हुए गलत और सही के बीच के भेद को उजागर करते। इससे आईंदा कोई भी राजनैतिक दल कानून की कमजोरियों और अपनी ताकत का इस्तेमाल कर लोकतंत्र के अपहरण की गुस्ताखी नहीं करता। मगर ऐसा नहीं हुआ।

अब महाराष्ट्र फिर उस मोड़ पर पहुंच गया है, जहां शिवसेना और समूचे लोकतंत्र के लिए एक नयी लड़ाई का रास्ता खुल गया है। उद्धव ठाकरे ने बुधवार को फैसला आने से पहले ही कह दिया था कि- 'यह वह मामला है जो साबित करेगा कि देश में लोकतंत्र बचेगा या नहीं।' यह देश में लोकतंत्र के लिए निर्णायक कारक बनने जा रहा है। उद्धव ठाकरे अब शायद सुप्रीम कोर्ट जाने का फैसला लें। क्योंकि उन्होंने पहले ही इसके संकेत दे दिए थे और बुधवार के फैसले के बाद अदालत से इस मामले में स्वत: संज्ञान की उम्मीद भी जताई थी। अब देखना दिलचस्प होगा कि इस लड़ाई का अंतिम अंजाम क्या होता है। क्या सुप्रीम कोर्ट लोकतंत्र की रक्षा करने के लिए कोई बड़ा कदम उठाता है, या फिर नियमों और कानूनों की आड़ में जनता से किए गए छलावे को जारी रखा जाता है।

वैसे महाराष्ट्र में इस साल के आखिर में चुनाव हैं और उससे पहले देश में आम चुनाव हो चुके होंगे। यानी जनता के पास अपने अधिकारों और अपने तंत्र की रक्षा का विकल्प तो खुला ही हुआ है।


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