विपक्षी एकता की राह में हैं कई 'अगर-मगर' और 'किन्तु-परन्तु'
देश जैसे-जैसे 2024 के बेहद अहम लोकसभा चुनाव की ओर बढ़ रहा है और जैसा राजनैतिक घटनाक्रम जारी है

- डॉ. दीपक पाचपोर
राहुल द्वारा निकाली गयी 'भारत जोड़ो यात्रा' की कामयाबी ने कांग्रेस को अपने पैरों पर न सिर्फ खड़ा कर दिया है वरन दौड़ा भी दिया है। राहुल ने यात्रा के दौरान भाजपा को बेनकाब किया। उसकी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा पर लगातार हमले किये। उन्होंने पूंजी के कुछ हाथों में संचयन और मोदी द्वारा अपने मित्रों- पर देश की पूंजी लुटाये जाने को लेकर बखिया उधेड़ी।
देश जैसे-जैसे 2024 के बेहद अहम लोकसभा चुनाव की ओर बढ़ रहा है और जैसा राजनैतिक घटनाक्रम जारी है, विपक्षी एकता की ज़रूरत पहले के मुकाबले हर रोज अधिक महसूस हो रही है। उसके प्रयास बढ़ भी रहे हैं। इस दिशा में अनेक सकारात्मक पहल भारतीय जनता पार्टी विरोधी सियासी दलों की ओर से हो रही हैं और यह माना जा रहा है कि 2019 के मुकाबले अगले साल का आम चुनाव बहुत कठिन रहेगा- केन्द्र के सत्ताधारी दल भाजपा ही नहीं, वरन उसकी विरोधी पार्टियों के लिये भी। भाजपा को प्रमुख रूप से चुनौती दे रही कांग्रेस के लिये भी भाजपा से मुकाबला करने के साथ उन दलों से भी पार पाना होगा जो अप्रत्यक्ष तौर पर भाजपा के साथ हैं या फिर वे पार्टियां जो गठबन्धन से विलग होकर चुनावी मैदान में उतरेंगे। जनता यह सब देख भी रही है और वह विपक्षी एकता चाहती भी है। इसके बावजूद यह इतना भी आसान नहीं है। संगठित प्रतिपक्ष की रचना के मार्ग में अब भी अनेक अड़चनें हैं।
पहले तो यह देखें कि वे कौन से तत्व हैं जो एकता की राह पर विपक्षी दलों को ठेल रहे हैं। कुछ समय पहले तक इस विषय पर बात न करने वाले विपक्षी नेता एवं दल अब इस मार्ग पर या तो अपने आप चल पड़े हैं या फिर घटनाक्रम ऐसी दिशा में चल पड़ा है, जहां उन्हें एका की ज़रूरत महसूस होने लगी है। पिछले वर्ष के सितम्बर से पहले यह विषय एक तरह से त्याज्य सा था। 2019 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में जब भाजपा केन्द्र में लौटी, तो विरोधी दलों ने इस विषय पर चर्चा लगभग छोड़ दी थी। बिहार में जनता दल यूनाईटेड के नीतीश कुमार ने भाजपा गठबन्धन से अलग होकर तेजस्वी यादव (राष्ट्रीय जनता दल) के साथ हाथ मिलाकर अपनी सरकार को बनाये रखा। दूसरी ओर महाराष्ट्र का उदाहरण है जहां सरकार से हटने के बाद भी महाविकास आघाड़ी के नाम से शिवसेना (उद्धव ठाकरे), कांग्रेस एवं राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी का गठबंधन जारी रहा। ये दो राज्य ऐसे हैं जिन्होंने संयुक्त विपक्ष की अवधारणा को जिलाये रखा।
एकता के प्रयासों की संभावनाओं को टटोलते हुए विपक्ष का जो प्रमुख लक्ष्य है वह है आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा को परास्त कराना। बगैर किसी न्यूनतम साझा कार्यक्रम को बनाये या एकता के लिये ठोस संवाद किये। यह विचित्र है पर स्वाभाविक भी है कि विपक्ष तभी सरकार बना पायेगी। इसके लिये जब भी गणना होती है तो यह हिसाब लगाया जाता है कि 2014 के चुनाव में भाजपा को 31 प्रतिशत वोट मिले थे, जबकि शेष गैर भाजपायी दलों को। 2019 में उसे 37 फीसदी वोट प्राप्त हुए थे क्योंकि वह चुनाव के ऐन पहले हुए पुलवामा कांड को भुना ले गयी थी जिसमें बड़ी संख्या में भारतीय जवान शहीद हुए थे।
2014 के चुनाव में भाजपा चैलेंजर की मुद्रा में थी और 2019 तक सरकार विरोधी वातावरण (एंटी इनकम्बेंसी) वैसा नहीं था जैसा अब है। बेरोजगारी, महंगाई, कोरोना के दौरान कुप्रबंधन, केन्द्रीय योजनाओं की असफलताएं आदि मोदी-भाजपा सरकार के पल्ले आ चुकी है। इसके अलावा अब विपक्षी एकता का हल्का सा इंडेक्स भी बन गया है। आपातकाल उठने के बाद 1977 में हुए आम चुनाव का संदर्भ फिर से उलटा-पलटाकर सामने लाया जा रहा है। यह अलग बात है कि उस वक्त विपक्ष का धु्रवीकरण कांग्रेस के खिलाफ हुआ था और अबकी सारी विपक्षी पार्टियां कांग्रेस की छतरी तले एकत्र हो रही हैं या होना चाहती हैं अथवा यूं कहें कि अपेक्षित है- भाजपा के विरूद्ध। अन्य पार्टियों की इस मामले में कांग्रेस पर निर्भरता इतनी अधिक है कि वे उसके द्वारा किसी पहल का इंतज़ार कर रही हैं। यहां तक कि भाजपा से लड़ने के लिये सारे दलों ने अकेले कांग्रेस को ही मैदान में छोड़ दिया है।
वैसे यह अलग बात है और क्षेत्रीय दलों का समीकरण भी कुछ ऐसा है कि कांग्रेस की कमजोरी से ही कई दल उभरे हैं और कइयों को लगता है कि अगर कांग्रेस मजबूत हुई तो वह उन्हीं के वोट बैंक को खा जाएगी। आम आदमी पार्टी हो या समाजवादी पार्टी, या फिर तृणमूल कांग्रेस। इन सभी की यही आशंका उन्हें कांग्रेस के पास जाने नहीं देती। यह भी अनुमान व्यक्त किया जाता है कि 'अगर' कांग्रेस भाजपा को हराने के लायक ताकतवर दिखेगी, तो इन दलों के वोट उसके (कांग्रेस) पक्ष में जा सकते है। इसी आशंका में जीते अनेक क्षेत्रीय दल ऐसा कोई गठबंधन करने से डरते हैं जो कांग्रेस को मजबूती प्रदान करे। कई राज्यों में भाजपा फिलहाल कमजोर है।
सरकार समर्थक मीडिया की बात न करें तो यही वास्तविकता है। अडानी मुद्दे को लेकर जिस प्रकार से राहुल गांधी ने भाजपा व मोदी पर जमकर हमला बोला है, उससे वह बचती फिर रही है। इसलिये उसे कभी बीबीसी डाक्यूमेंट्री पर प्रतिबंध लगाना पड़ रहा है तो कभी राहुल गांधी द्वारा विदेश में दिये गये भाषण को देश विरोधी या लोकतंत्र विरोधी बतलाकर संसद को ठप किया जा रहा है ताकि वहां अडानी का मुद्दा ही न उठाया जा सके। यह अलग बात है कि इसके बाबजूद कांग्रेस द्वारा सोशल मीडिया एवं प्रेस कांफ्रेंसों के जरिये इस बात को जिंदा रखा गया है। उलटे, अब तो कांग्रेस विमर्श गढ़ रही है और मोदी व भाजपा जवाब देते फिर रहे हैं।
इधर करीब आधा साल पहले तक जो कांग्रेस कमजोर निरूपित होती थी वह कई कारणों से सतत मजबूत हो रही है। 7 सितम्बर, 2022 को राहुल द्वारा निकाली गयी 'भारत जोड़ो यात्रा' की कामयाबी ने कांग्रेस को अपने पैरों पर न सिर्फ खड़ा कर दिया है वरन दौड़ा भी दिया है। राहुल ने यात्रा के दौरान भाजपा को बेनकाब किया। उसकी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा पर लगातार हमले किये। उन्होंने पूंजी के कुछ हाथों में संचयन और मोदी द्वारा अपने मित्रों- पर देश की पूंजी लुटाये जाने को लेकर बखिया उधेड़ी।
चूंकि मोदी, भाजपा व गुजरात मॉडल को पहली बार झटका मिला है, इसलिये पहली बार भाजपा संसद के बजट सत्र-2 की कार्यवाही को सत्तारुढ़ होकर भी रोक रही है। पहले वह हमेशा विपक्ष पर आरोप लगाती थी कि वह रोकती है कार्यवाही, इस बार वह खुद वही यही काम कर रही है। इसके मूल में है अडानी मुद्दे का खौफ जो राहुल ने पैदा किया है। यह सीधा प्रहार ही तो है भाजपा पर। इस बीच बीबीसी की डाक्यूमेंट्री व हिंडनबर्ग की रिपोर्ट ने एक तरह से राहुल को नयी छवि प्रदान की क्योंकि उनमें वही सब है जो राहुल बोलते आये हैं। बौखलाई भाजपा ने यूके के कैंब्रिज विश्वविद्यालय में उनके दिये भाषण को भुनाने की कोशिश की जो अब तक जारी है। कुछ महिलाओं के कथित उत्पीड़न वाले यात्रा के दौरान के उनके द्वारा दिये बयान पर राहुल के घर भेजी पुलिस व नोटिस से राहुल और भी मजबूत बनकर उभरे हैं। अब वे न सिर्फ उनकी अपनी पार्टी बल्कि विपक्ष के लिये भी आशा के केन्द्र बन गये हैं।
अब सवाल यह है कि क्या बदली हुई राजनैतिक परिस्थितियों का वह फलादेश निकलेगा जिसकी अपेक्षा भाजपा से त्रस्त जनता, प्रतिपक्ष और लोकतंत्र के पक्ष में खड़े लोग कर रहे हैं? यानी क्या 2024 में भाजपा सत्ताच्युत हो सकेगी? सियासी चाल उस ओर बढ़ तो रही है परन्तु अब भी कई तरह के 'अगर-मगर' और 'किन्तु-परन्तु' हैं। असली बात यह है कि विपक्षी एकता का कोई खुला व सामूहिक संवाद शीघ्र प्रारम्भ होता हुआ नहीं दिखाई दे रहा है। सारे दल इस साल के बचे विधानसभा (6 या 7 राज्यों के) चुनावों के नतीजों का इंतज़ार कर रहे हैं। 'अगर' कांग्रेस मजबूत होती है और लोकसभा चुनाव में भाजपा से अच्छी टक्कर लेने की हालत में आती है तो ही कई विपक्षी दल उसके साथ गठबंधन कर चुनाव लडऩा चाहेंगे। 'मगर' ऐसा नहीं लगता कि वे कांग्रेस का भरोसा जीतने के लिये या भाजपा के साथ लड़ने में उसका साथ देने की हिम्मत जुटा पायेंगे। तृणमूल कांग्रेस की ममता बैनर्जी से समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव की मुलाकात हुई है 'किन्तु' देखना यह है कि क्या वे अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा को छोड़ पायेंगे? विपक्षी एकता की राह में कई 'अगर-मगर' और 'किन्तु-परन्तु' हैं। देखना यह है कि संयुक्त प्रतिपक्ष इनसे कैसे पार पाता है।
(लेखक 'देशबन्धु' के राजनीतिक सम्पादक हैं)


