प्रधानमंत्री की अमेरिका यात्रा का विरोध
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अमेरिका की राजकीय यात्रा को लेकर कई पिट्ठु पत्रकारों और मीडिया घरानों में जितना उत्साह देखा जा रहा था

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अमेरिका की राजकीय यात्रा को लेकर कई पिट्ठु पत्रकारों और मीडिया घरानों में जितना उत्साह देखा जा रहा था, वह तब चौगुना हो गया जब दुनिया के खरबपति व्यापारी, टेस्ला और ट्विटर के मालिक एलन मस्क ने खुद को मोदीजी का फैन यानी प्रशंसक बता दिया। ऐसा लगा मानो श्री मोदी की विश्व गुरु की छवि पर मस्क की टिप्पणी से आधिकारिक ठप्पा लग गया है। अभी प्रधानमंत्री के प्रवास के दिन जैसे-जैसे बीतते जाएंगे और इसमें उनके कार्यक्रमों की जो खबरें सामने आएंगी, उसके बाद विश्व गुरु का गुब्बारा और बड़ा होता जाएगा, यह तय है। निश्चित ही दुनिया का बड़ा कारोबारी अगर भारत में अपने व्यापार की संभावनाएं देखे और यहां निवेश के लिए सही समय की बात कहे, तो प्रसन्नता होगी।
लेकिन इस खुशी में हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अंग्रेजों ने भी भारत में व्यापार की संभावनाओं के साथ ही दरवाजे खटखटाए थे और उसके बाद यहां आकर ऐसे जमे कि 2 सौ साल तक हटे ही नहीं। एलन मस्क अगर भारत में निवेश करने की बात करते हैं, यहां अपनी कार का कारखाना खोलना चाहते हैं, तो यह सब वे अपना मुनाफा देखकर ही करेंगे।
परोपकार के इरादे से उन्हें निवेश करना होता, तो वे इसके लिए सही वक्त का इंतजार नहीं करते। प्रधानमंत्री मोदी से मुलाकात के बाद एलन मस्क ने पत्रकारों से चर्चा कर इस बैठक के बारे में बताया। इस दौरान जब उनसे ट्विटर के पूर्व सीईओ जैक डोर्सी के किसान आंदोलन के दौरान भारत सरकार द्वारा ट्विटर पर दबाव डालने वाले बयान को लेकर सवाल किया गया तो मस्क ने कहा कि स्थानीय नियमों का पालन करने के अलावा ट्विटर के पास कोई विकल्प नहीं है। अगर हम स्थानीय सरकार के क़ानून का पालन नहीं करेंगे तो हमें वहां काम बंद करना होगा। इस जवाब से एलन मस्क ने जैक डोर्सी के आरोपों की पुष्टि कर दी है। देखने वाली बात ये होगी कि क्या भाजपा के नेता अब एलन मस्क को भी विरोधी की तरह देखेंगे या उनके भारत में निवेश का इंतजार करेंगे।
गौरतलब है जैक डोर्सी ने एक यूट्यूब चैनल को दिए साक्षात्कार में शक्तिशाली लोगों के दबाव वाले सवाल पर किसान आंदोलन के दौरान ट्विटर पर पड़ रहे दबाव का जिक्र किया था। सवाल में भारत का नाम न होने के बावजूद ट्विटर के तत्कालीन सीईओ को भारत सरकार का नाम ही याद आया, जबकि ट्विटर दुनिया के बहुतेरे देशों में चलाया जाता है। इससे समझा जा सकता है कि भारत में अभिव्यक्ति की आजादी और लोकतंत्र के क्षरण को लेकर अब वैश्विक स्तर पर सवाल उठने लगे हैं। अमेरिका भी सवाल उठाने वालों में शामिल रहा है। अभी श्री मोदी की राजकीय यात्रा के दौरान ही कम से कम 75 डेमोक्रेट्स सांसदों ने राष्ट्रपति जो बाइडेन को पत्र लिखकर उनसे भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ मानवाधिकार के मुद्दों को उठाने का आग्रह किया है।
अमेरिकी सांसदों ने कहा कि वे भारत में धार्मिक असहिष्णुता, प्रेस की आजादी, इंटरनेट पर बारंबार प्रतिबंध और सिविल सोसाइटी समूहों को निशाना बनाने को लेकर चिंतित हैं। भाजपा इन डेमोक्रेट्स सांसदों की चिंताओं को एक झटके में खारिज भी नहीं कर सकती, क्योंकि इस वक्त मणिपुर में जातीय, धार्मिक हिंसा और इंटरनेट प्रतिबंध चल ही रहा है, लेकिन श्री मोदी एक बार भी न वहां गए, न वहां के हालात पर कोई टिप्पणी की, न मणिपुर के राजनैतिक प्रतिनिधि मंडलों से मिले। भारत ही नहीं, अमेरिका में भी लोग इस अनदेखी को महसूस कर रहे हैं। समाचार एजेंसी रायटर्स के मुताबिक अमेरिकी सांसदों ने अपने पत्र में लिखा है- 'हम किसी विशेष भारतीय नेता या राजनीतिक दल का समर्थन नहीं करते हैं। यह भारत के लोगों का निर्णय है। लेकिन हम उन महत्वपूर्ण सिद्धांतों के समर्थन में खड़े हैं जो अमेरिकी विदेश नीति का एक प्रमुख हिस्सा होना चाहिए।'
इस पत्र की भाषा से समझ आता है कि जब नरेन्द्र मोदी ने 2019 में ह्यूस्टन में हाउडी मोदी कार्यक्रम में अबकी बार ट्रंप सरकार का प्रधानमंत्री की अमेरिका यात्रा का विरोध नारा देकर अमेरिका की अंदरूनी राजनीति में हस्तक्षेप की जो कोशिश की थी, उससे उनकी छवि बिगड़ी है। जो बाइडेन भी अगर ट्रंप सरकार के लिए नारा लगाने वाले श्री मोदी को राजकीय अतिथि बना रहे हैं, तो इसके पीछे अमेरिका के व्यापारिक, सामरिक स्वार्थ हैं। चीन की बढ़ती ताकत, रूस और चीन की घनिष्ठता, कई यूरोपीय देशों की डगमगाती आर्थिक स्थिति के बीच अमेरिका को अपने निर्यात और रक्षा सौदों के लिए बड़ा बाजार चाहिए। भारत उसकी इस जरूरत को पूरा करता है। वैसे भी जो बाइडेन ने मार्च में कनाडा की यात्रा के दौरान कहा था कि उनका 'रणनीतिक लक्ष्य' दुनिया के बाकी हिस्सों के साथ संबंध सुधारना है, क्योंकि चीन और रूस के खिलाफ लामबंदी करके ही अमेरिका अपना फायदा कर सकता है। जाहिर है भारत उनके इस लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक हो सकता है।
श्री मोदी की वाहवाही का काम भाजपा के प्रचार तंत्र को करते रहने देना चाहिए, लेकिन इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ना चाहिए कि भारत में लोकतंत्र, मानवाधिकार, संवैधानिक मूल्यों की गिरावट से उसकी छवि बिगड़ने का खतरा है। अगर 75 सांसद आपके प्रधानमंत्री के आगमन पर मानवाधिकारों का सवाल उठा रहे हैं, तो यह अच्छी बात नहीं है। इस महीने की शुरुआत में अमेरिका के सत्रह अल्पसंख्यक, दलित और मानवाधिकार संगठनों ने मिलकर श्री मोदी की यात्रा का विरोध किया है।
विरोध को दिखाने के लिए बीबीसी की डाक्यूमेंट्री का प्रदर्शन, न्यूयॉर्क में बड़े पैमाने पर 'हाउडी डेमोक्रेसी' नाम का आयोजन आदि शामिल है। इसके अलावा प्रधानमंत्री मोदी की अमेरिका यात्रा से ठीक पहले अमेरिकी विदेश विभाग के अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता कार्यालय ने अपनी रिपोर्ट में भारत में धार्मिक अल्पसंख्यकों के सरकारी मशीनरी द्वारा उत्पीड़न पर चिंता जताई थी। पिछले साल अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने भारत को एक ऐसा देश कहा था जहां 'धार्मिक स्वतंत्रता और धार्मिक अल्पसंख्यकों के अधिकार खतरे में हैं।' और अभी श्री मोदी के अमेरिका पहुंचने से एक दिन पहले व्हाइट हाउस में राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद में सामरिक संचार के समन्वयक जॉन किर्बी ने अपनी आधिकारिक टिप्पणी में कहा कि अमेरिकी प्रशासन 'चिंताओं को व्यक्त करने से कभी नहीं कतराता है जो कि दुनिया भर में किसी के साथ भी हो सकता है।'
इन तमाम बातों, टिप्पणियों के आलोक में ही प्रधानमंत्री मोदी की अमेरिका की राजकीय यात्रा की समीक्षा करना चाहिए। केवल उजले पक्ष को दिखाना या देखना अपने आप को धोखा देना होगा।


