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ईवीएम आंदोलन में विपक्ष अनुपस्थित

पिछले करीब 5 वर्षों से इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) को लेकर देश भर में संशय का माहौल है

ईवीएम आंदोलन में विपक्ष अनुपस्थित
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पिछले करीब 5 वर्षों से इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) को लेकर देश भर में संशय का माहौल है। बड़ी संख्या में लोगों का मानना है कि ये मशीनें सही नतीजे नहीं देतीं और इसे हैक किया जा सकता है। उनका आरोप है कि जबसे भारतीय जनता पार्टी की सरकार केन्द्र में आई है तभी से इनका जमकर दुरुपयोग हो रहा है। इसे लेकर विपक्ष के कई संगठन व नेता आवाज़ें तो उठाते रहे हैं परन्तु इसे लेकर कोई बड़ा आंदोलन नहीं हुआ, जिसकी ज़रूरत इसलिये महसूस की जाती है क्योंकि सरकार, निर्वाचन आयोग तथा सुप्रीम कोर्ट विपक्ष के या अन्य संगठनों की ओर से इस पर उठाये गये सवालिया निशानों का संतोषजनक उत्तर नहीं देती। अब इस मुद्दे पर दिल्ली में वरिष्ठ वकील सड़कों पर उतर आये हैं। कुछ सिविल सोसायटियों के लोग भी हैं पर इन आंदोलनों में जिनकी मुख्य शिरकत होनी चाहिये, वे सिरे से नदारद हैं- यानी विपक्षी दल।

सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील भानुप्रताप सिंह, महमूद प्राचा, सत्यप्रकाश गौतम आदि निर्वाचन आयोग से मांग कर रहे हैं कि उन्हें कोई भी 50 वोटिंग मशीनें दिलाई जायें ताकि वे उन्हें हैक करने का प्रत्यक्ष प्रदर्शन कर सकें और इस धारणा को मिटा सकें कि ऐसा नहीं किया जा सकता। आयोग को इस विषय पर एक पत्र भी लिखा गया था जिसके जवाब में आयोग ने साफ किया कि मशीनें विश्वसनीय हैं।

आंदोलनकारी आयुक्त से मिलने का समय भी मांगते रहे जो उन्हें दिया ही नहीं गया। वैसे तो ईवीएम की गड़बड़ियों पर लम्बे समय से शक होता रहा परन्तु वह तब गहराता और पुख्ता होता गया जब बहुत से राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजे अप्रत्याशित निकलते गये। जमीनी स्तर पर हालात कुछ और दिखते थे जबकि परिणाम इतने अलग निकले कि स्वयं जीतने वाले उम्मीदवार चौंक पड़ते थे। नवम्बर, 2023 के छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश एवं राजस्थान के चुनाव उदाहरण हैं। सारे विश्लेषक, पत्रकार, यहां तक कि आम जनता भी मानकर चल रही थी कि तीनों राज्यों में कांग्रेस जीतेगी। नतीजे एकदम विपरीत निकले। पिछले कुछ समय के अनेक राज्यों के चुनाव भी गिनाये जा रहे हैं जहां समझा जाता था कि भाजपा की जीत असम्भव है। फिर भी उसे विजय मिली। उत्तर प्रदेश में 2022 के प्रारम्भ में हुए चुनाव में उन इलाकों में भी भाजपा के प्रत्याशी जीते जहां विभिन्न कारणों से माहौल उसके खिलाफ था। लखीमपुर खीरी, हाथरस, उन्नाव आदि ऐसी ही सीटें थीं।

भाजपा की केन्द्र सरकार ईवीएम के पक्ष में डटकर खड़ी है। उसका दावा है कि मशीनें एकदम ठीक हैं और प्रतिपक्ष अपनी हार का ठीकरा ईवीएम पर फोड़ने का आदी है। इसके लिये हर चुनाव के पहले ईवीएम का विमर्श स्वयं भाजपा यह कहकर छेड़ देती है कि 'अगर भाजपा जीती तो विपक्षी दल ईवीएम का रोना रोएंगे।'
इसके बावजूद कई लोगों की दृढ़ मान्यता है कि भाजपा की लगातार जीत के पीछे इन्हीं मशीनों का हाथ है जिसे इस प्रकार से प्रोग्राम किया जाता है कि ज्यादातर वोट भाजपा के पक्ष में ही जाते हैं। कई भाजपा नेता तक कहते पाये गये हैं कि वोट किसी को भी दीजिये, मिलेगा तो भाजपा को ही। भाजपा की नीयत पर शक इसलिये होता है क्योंकि भाजपा के ही एक नेता जीएल नरसिम्हा राव ने 2010 में ईवीएम पर एक किताब लिखी थी 'डेमोक्रेसी एट रिस्क', जिसमें उन्होंने लिखा था कि ईवीएम से चुनाव कराना गलत है। पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने इसकी भूमिका में लिखा था कि 'ईवीएम पर बैन लगाना लोकतंत्र को मजबूत करना है।' वहीं भाजपा अब इसके खिलाफ सुनने के लिये तैयार नहीं है।

इस दौरान एक और बात उठती रही है। वह है 19 लाख ईवीएम की गुमशुदगी। कहा जाता है कि विभिन्न राज्यों में ये मशीनें ही भाजपा की मर्जी के नतीजे देती है। इसमें कितनी सच्चाई है, कह नहीं सकते लेकिन इस पर सरकार का स्पष्टीकरण अपेक्षित है। अगर मशीनें वाकई गायब हैं तो उसे खोज निकालना होगा। इतनी तादाद में गुम मशीनें कोई भी निर्णय पलट सकती हैं। इसमें वीवीपैट का पक्ष भी अहम है। यह वह रसीद होती है जो बतलाती है कि वोट किसे दिया गया है। वह एक पर्ची के रूप में मतदाता को दिखता है। पहले यह पर्याप्त अवधि तक दिखलाई पड़ता था, परन्तु अब वह 6-7 सेकंड के लिये दिखता है और उसकी पारदर्शिता घटा दी गयी है। ईवीएम विरोधियों का तर्क है कि अगर मशीनों से ही चुनाव कराना हो तो पर्ची वोटर के हाथ में आये जिसे वह खुद बॉक्स में डाले और इसी की गिनती हो। आयोग को यह इस आधार पर मंजूर नहीं कि इससे परिणाम 3-4 दिन देर से निकलेंगे। यह तर्क इसलिये हास्यास्पद है क्योंकि कई बार नतीजे महीने भर बाद निकलते हैं। मशीनों का इस्तेमाल कई देश बन्द कर चुके हैं। भाजपा का इसके प्रति मोह व आग्रह शंकाओं को गहराता है।

असली सवाल यह है कि इन आंदोलनों में विपक्ष कहां है? ईवीएम की कथित गड़बड़ियों का सर्वाधिक नुकसान उसे है। वकीलों व सामाजिक कार्यकर्ताओं को चुनाव लड़ना नहीं है फिर भी वे सड़कों पर हैं। फिर, विरोधी दल इस आंदोलन में क्यों नहीं हैं? कुछ नेताओं ने बयानबाजी की है पर वह नाकाफी है।


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