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ऑपरेशन सिंदूर : संसद से क्यों भाग रही है मोदी सरकार?

मोदी निजाम और उसके अंतर्गत संसद के अब तक के आचरण को देखते हुए, यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि सरकार ने अपनी तरफ से तो, पहलगाम की घटना और उसके बाद के घटनाक्रम पर फोकस्ड या विशेष रूप से केंद्रित बहस का रास्ता रोकने का मन बना लिया है

ऑपरेशन सिंदूर : संसद से क्यों भाग रही है मोदी सरकार?
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- राजेंद्र शर्मा

मोदी निजाम और उसके अंतर्गत संसद के अब तक के आचरण को देखते हुए, यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि सरकार ने अपनी तरफ से तो, पहलगाम की घटना और उसके बाद के घटनाक्रम पर फोकस्ड या विशेष रूप से केंद्रित बहस का रास्ता रोकने का मन बना लिया है। विशेष सत्र की मांग खारिज कर, सामान्य संसदीय सत्र को आगे किए जाने का, ठीक यही अर्थ है।

आखिरकार, मोदी सरकार ने पहलगाम के आतंकवादी हमले और उसके बाद, 'आपरेशन सिंदूर' समेत पूरे घटनाक्रम पर संसद में अलग से चर्चा कराए जाने की मांग को खारिज कर दिया है। बेशक, मोदी सरकार ने सीधे-सीधे इस मांग को नहीं ठुकराया है। सच तो यह है कि आधिकारिक रूप से तो उसने इस समूचे घटनाक्रम पर संसद का विशेष सत्र बुलाए जाने की विपक्ष की लगभग पूरी तरह से एकजुट मांग को दर्ज तक करना जरूरी नहीं समझा है, तब इस मांग को स्वीकार किए जाने का तो सवाल ही कहां उठता था।

मोदीशाही ने संसद के विशेष सत्र की मांग को ठुकराया है, संसद के आगामी मानसून सत्र की तारीखों की समय से पहले घोषणा करने के जरिए। सरकार के फैसले के अनुसार, संसद का मानसून सत्र 21 जुलाई से होने जा रहा है। कहने की जरूरत नहीं है कि संसद के विशेष सत्र तथा पूरे घटनाक्रम पर संसद में बहस की बढ़ती मांगों की ही काट करने के लिए, अभी से अगले सामान्य सत्र की तारीखों की घोषणा कर दी गयी है। प्रस्तावित सत्र से डेढ़ महीने से भी ज्यादा पहले, 4 जून को इन तारीखों के ऐलान से इसमें किसी शक की गुंजाइश नहीं रह जाती है कि संसद के विशेष सत्र की मांगों को खारिज करने के लिए ही, इतने पहले से प्रस्ताविक सामान्य सत्र की तरीखों का ऐलान किया गया है। सामान्यत: सत्र के शुरू होने की तारीख के ज्यादा से ज्यादा दो-तीन सप्ताह पहले ही, आगामी सत्र की तारीखों की घोषणा की जाती रही है।

मोदी निजाम और उसके अंतर्गत संसद के अब तक के आचरण को देखते हुए, यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि सरकार ने अपनी तरफ से तो, पहलगाम की घटना और उसके बाद के घटनाक्रम पर फोकस्ड या विशेष रूप से केंद्रित बहस का रास्ता रोकने का मन बना लिया है। विशेष सत्र की मांग खारिज कर, सामान्य संसदीय सत्र को आगे किए जाने का, ठीक यही अर्थ है। इस तिकड़म के जरिए, न सिर्फ इस चर्चा के तत्काल आवश्यक होने को नकार दिया गया है, इसके सहारे इसे सामान्य संसदीय सत्र के अनेक अन्य मुद्दों में से एक बनाकर, मामूली बनाने की ही कोशिश की जाएगी। इस खेल को मणिपुर के घटनाक्रम पर संसद में बहस का जो हश्र हुआ था, उसके उदाहरण से समझा जा सकता है।

केंद्रित बहस के बजाय, ज्यादा से ज्यादा एक सामान्य विस्तृत बहस की इजाजत दी जाएगी और हैरानी की बात नहीं होगी कि उसे भी खींच-खींचकर सत्र के अंत पर धकेल दिया जाए, जिससे सत्र का समापन इस विषय पर प्रधानमंत्री मोदी के लफ्फाजी भरे भाषण के साथ कराया जा सके। जिस तरह मणिपुर के मामले में संसद के किसी भी हस्तक्षेप का विफल होना सुनिश्चित किया गया था और यहां तक केंद्र सरकार ने मणिपुर में राष्ट्रपति शासन लगाने का फैसला लिया भी तो, उक्त बहस से लंबे अंतराल के बाद, राष्ट्रधारी पार्टी के अपने ही तकाजों से इसका फैसला लिया था। उसी प्रकार, पहलगाम और उसके बाद के घटनाक्रम पर, किसी भी जवाबदेही से सरकार को बचाने की ही कोशिश की जा रही होगी।

ऐसा किसलिए किया जा रहा है, यह जानना मुश्किल नहीं है। इसके पीछे औपचारिक रूप से तो कोई तर्क ही नहीं है क्योंकि जैसा कि हमने पहले ही कहा, सरकार ने विशेष सत्र बुलाने की मांग को सुना-अनसुना ही कर दिया है। बहरहाल, अनौपचारिक रूप से इसके पीछे जो तर्क काम कर रहा है, उसकी झलक हमें मोदीशाही की ट्रोल सेना से लेकर सत्ताधारी पार्टी के प्रवक्ताओं तक के अलग-अलग बयानों में दिखाई दे जाती है। इस तर्क का सार यही है कि विपक्ष को और जाहिर है कि उसके माध्यम से आम जनता को, सरकार द्वारा जो कुछ कहा-बताया गया है, उसके अलावा कुछ भी जानने की जरूरत ही क्या है? इसी तर्क का विस्तार है कि संसद में विपक्ष के नेता, राहुल गांधी द्वारा साढ़े तीन दिन के ऑपरेशन सिंदूर के दौरान भारतीय पक्ष को हुए नुकसान के बारे में सवाल पूछे जाने पर, इस तरह के सवालों को 'पाकिस्तान की आवाज' करार देकर, दबाए जाने की ही कोशिशें की गयी हैं। और शस्त्रविराम के पूरे महीने भर बाद भी आधिकारिक रूप से इस सैन्य कार्रवाई में भारतीय पक्ष के नुकसान की, खासतौर पर विमानों के नुकसान की, कोई जानकारी देना ही जरूरी नहीं समझा गया है। हद से हद उच्च सैन्य अधिकारियों की ओर से गोल-मोल तरीके से यह स्वीकार किया गया है कि, 'लड़ाई में नुकसान तो होता ही है'। जाहिर है कि इसके लिए प्रधानमंत्री मोदी का यह ऐलान एक आसान बहाना बन गया है कि 'आपरेशन सिंदूर खत्म नहीं हुआ है, सिर्फ पॉज हुआ है।' शस्त्रविराम के बाद भी लड़ाई जारी रहने की यह मुद्रा, किसी भी वास्तविक जवाबदेही के तकाजों के खिलाफ एक बड़ी ढाल बन जाती है।

कहने की जरूरत नहीं है कि पहलगाम से लेकर ऑपरेशन सिंदूर तक, सरकार से जवाब लिए जाने के लिए थोड़ा नहीं, बहुत कुछ है। बेशक, पहलगाम की दरिंदगी के डेढ़ महीने से ज्यादा गुजर जाने के बाद भी ये सवाल अनुत्तरित ही बने हुए हैं कि इस घटना के पीछे की सुरक्षा चूक के लिए कौन जिम्मेदार था और इस हत्याकांड को अंजाम देने वाले आतंकवादी, कहां से आए थे और कहां गायब हो गए? लेकिन, पहलगाम की घटना से, उसकी जिम्मेदारी से संबंधित सवाल ही नहीं हैं, जो अनुत्तरित बने हुए हैं।

इस घटना के बाद से मोदी सरकार की जो प्रतिक्रिया सामने आई है और खासतौर पर 'आपरेशन सिंदूर' के नाम से जो सैन्य प्रतिक्रिया सामने आई है, उसे लेकर भी कोई कम सवाल नहीं हैं। इसमें, जिस प्रकार शस्त्र विराम हुआ है उससे जुड़े और खासतौर पर शस्त्रविराम कराने में अमरीकी प्रशासन की भूमिका से जुड़े सवाल भी शामिल हैं।

हम इसकी ओर से आंखें नहीं मूंद सकते हैं कि अमरीकी राष्ट्रपति ट्रंप ने अब तक एक दर्जन बार इसका दावा किया है कि उन्होंने भारत-पाकिस्तान के बीच युद्घ विराम कराया है, नाभिकीय टकराव के खतरे को टालने के लिए युद्घ विराम कराया है और व्यापार का लालच/धमकी देकर युद्घ विराम कराया है। और प्रधानमंत्री मोदी ने इन दावों पर चुप्पी ही साधी हुई है। और कुछ हो न हो, 'आपरेशन सिंदूर' के जरिए आतंकवाद के समर्थन के लिए पाकिस्तान को सजा देने के चक्कर में, भारत-पाकिस्तान के बीच के झगड़े में, अमेरिका के रूप में ताकतवर तीसरे पक्ष को ले आया गया है। इसने इसे भारत के लिए एक प्रकार से खुद अपने ही पाले में गोल करने का मामला बना दिया है।

लेकिन, सवाल सिर्फ तीसरे पक्ष को बीच में ले आए जाने का ही नहीं है। आतंकवादियों की कार्रवाई के जवाब के तौर पर इस तरह की सैन्य कार्रवाई का चुनाव भी, बड़े सवालों के घेरे में है। इस तरह के विकल्प को ही प्रधानमंत्री मोदी का 'नया नॉर्मल' घोषित करना तो और भी बड़े सवालों के घेरे में है। बेशक, भारत की ओर से शुरूआत में टकराव को सीमित रखने की और प्रहार को आतंकवादी ठिकानों पर सीमित रखने की कोशिश की गयी थी। विदेश मंत्री के अनुसार, इस संबंध में शुरूआत में ही पाकिस्तान को सूचित भी कर दिया गया था, जिससे वह जवाबी सैन्य कार्रवाई से दूर रहे। लेकिन, यह सब जिस पूर्वानुमान पर आधारित था कि पाकिस्तान अपनी सीमाओं में घुसकर सैन्य कार्रवाई किए जाने को बिना सैन्य जवाब के स्वीकार कर लेगा, न सिर्फ गलत साबित हुआ बल्कि उसे तो गलत साबित होना ही था। इस गलत पूर्वानुमान के आधार पर सैन्य विकल्प का चुनाव किया गया, जो वस्तुगत रूप से बहुत महंगा साबित होने के अर्थ में उल्टा ही पड़ा है।

एक ओर इन तमाम प्रश्नों पर देश की संसद का मुंह पहलगाम की घटना के पूरे तीन महीने बाद तक बंद ही रखने का इंतजाम कर दिया गया है और दूसरी ओर प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में सत्ताधारी संघ-भाजपा ने, 'आपरेशन सिंदूर' को राजनीतिक/चुनावी रूप से भुनाने की जबर्दस्त मुहिम छेड़ रखी है। यह मुहिम बेशक, बिहार के आने वाले विधानसभाई चुनाव पर केंद्रित है, जो इसी साल और कुछ ही महीनों में होने जा रहा है। लेकिन, यह मुहिम पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु, केरल आदि के चुनाव के लिए भी, है जो अगले साल के शुरू के महीनों में होने हैं। इसी के लिए, लड़ाई रुकने के महीने भर बाद भी, 'रगों में सिंदूर दौड़ता है' की लफ्फाजी के जरिए, युद्घोन्माद बनाए रखा जा रहा है। संसद को पंगु बनाकर, इस तरह की मुहिम का चलाया जाना, बेशक मोदीशाही के तानाशाहाना मिजाज की ही गवाही देता है। इसे देखते हुए, हैरानी की बात नहीं है कि शेष दुनिया आज, आतंकवाद का शिकार होने के बावजूद, भारत के साथ खड़े होने से कतरा रही है। धर्मनिरपेक्षता और जनतंत्र, देश के अंदर दोनों को दफ्न करने पर तुली मोदीशाही की नीयत पर, बाहरी मामलों में भी कोई भरोसा करेगा भी तो कैसे?
(लेखक साप्ताहिक पत्रिका लोक लहर के संपादक हैं।)


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