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शिक्षा ही मुसलमानों का भविष्य बनाएगी

51 मुस्लिम स्टूडेंट का यूपीएससी में चयन कई तरीके से देखा जा रहा है। मुसलमान इस समय सबके निशाने पर हैं और समस्या यह है कि उसे संभालने वाला दिशा देने वाला कोई नहीं है

शिक्षा ही मुसलमानों का भविष्य बनाएगी
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- शकील अख्तर

निराशा मुसलमान के स्वभाव में नहीं है। मगर उसे अब अपने बच्चों की शिक्षा पर पूरा ध्यान लगाना चाहिए। समस्या यही है कि उसका धार्मिक नेतृत्व उसे इस बारे में बिल्कुल ही जागृत नहीं करता है। मदरसा तालीम मार्डन एजुकेशन का विकल्प नहीं है। और उन्हें याद रखना चाहिए कि सर सैयद ने एएमयू बनाते समय केवल एजुकेशन की बात नहीं की थी।

51 मुस्लिम स्टूडेंट का यूपीएससी में चयन कई तरीके से देखा जा रहा है। मुसलमान इस समय सबके निशाने पर हैं और समस्या यह है कि उसे संभालने वाला दिशा देने वाला कोई नहीं है।

राजनीतिक नेतृत्व है नहीं। सामाजिक कभी रहा नहीं। और धार्मिक उसे पीछे की तरफ खींचने वाला है। ऐसे में यही इन छात्रों का अपनी व्यक्तिगत मेहनत, परिवार के सपोर्ट से आगे निकलना दिशा दिखलाता है।

हर समाज की अपनी समस्याएं हैं अंदरूनी। और उनसे लड़ना उसका अपना काम है। भारत में बाकी लोगों ने काफी हद तक सफलता पाई है। खासतौर से दलित ओबीसी ने। मगर मुसलमान की खुद अपनी कमियों से लड़ाई शुरु हो ही नहीं पाई है।

शिक्षा, आधुनिक शिक्षा ही वह एक मात्र तरीका है जिससे वह आगे बढ़ सकता है। आज हालत क्या है शिक्षा की? बहुत ही खराब। प्राथमिक स्कूल जो एजुकेशन की पहली सीढ़ी है। वहां 10 प्रतिशत मुस्लिम बच्चे पहुंच ही नहीं पाते। मतलब कभी गए ही नहीं। यह आयु वर्ग 6 से 14 साल के बच्चों का है। इसमें जो स्कूल गए उनमें से 15 प्रतिशत की प्राथमिक स्कूल से ही शिक्षा छूट जाती है। कुल आंकड़ा ऐसे आता है कि 25 प्रतिशत 6 से 14 साल की उम्र वाले मुस्लिम बच्चे या तो कभी स्कूल गए नहीं हैं या 14 साल की उम्र तक स्कूल से बाहर हो गए हैं। समझने के लिए बता दें कि एससी एसटी समुदाय में यह आंकड़ा केवल 6 प्रतिशत है।

2006 में आई सच्चर कमेटी की रिपोर्ट का यही अंश सबसे ज्यादा प्रचारित हुआ था कि मुसलमानों की हालत दलितों से बदतर है। दरअसल सच्चर कमेटी की रिपोर्ट एक बड़ी चेतावनी थी मुस्लिम समुदाय के लिए मगर वह अनसुनी रह गई। बात आगे ले जाने से पहले यहां यह और बता दें कि उपर दिए आंकड़े सच्चर कमेटी के बाद के हैं। यह रिपोर्ट 2023 के अंत में आई है। यह नेशनल यूनिवर्सिटी आफ एजुकेशन एंड एडमिनिस्ट्रेशन की रिपोर्ट है। जिसे शैक्षिक प्रबंधन सूचना प्रणाली विभाग के प्रो अरुण मेहता ने तैयार और विश्लेषित किया है।

बहुत ही चिंताजनक है यह रिपोर्ट। आकंड़ों के द्वारा समझना थोड़ा मुश्किल होता है। मगर वही सही तस्वीर बताते हैं। रिपोर्ट बताती है कि कक्षा 6 से 8 तक देश भर में 6. 67 करोड़ छात्र होते हैं। यहां मुस्लिम छात्रों का प्रतिशत 14.42 होता है।

अब देखिए इसके बाद गिरावट आना शुरू होती है। माध्यमिक स्तर पर कक्षा 9-10 में मुस्लिम छात्रों का प्रतिशत कम होता है। और यह 12. 62 रह जाता है। कक्षा 11-12 जिसे उच्च माध्यमिक स्तर कहते हैं यह और गिरकर 10.76 प्रतिशत रह जाता है। मतलब कुल पढ़ने वालों में मुस्लिम बच्चे 10. 76 प्रतिशत ही होते हैं। और विश्वविध्यालयों में केवल 4.9 प्रतिशत ही पहुंचते हैं।

आबादी मुसलमानों की देश में 15 प्रतिशत के करीब है। और उच्च शिक्षा में पहुंच रहे हैं केवल 4.9 प्रतिशत। और नौकरियों में जाते-जाते तो प्रतिशत बहुत ही कम रह जाता है। बात यूपीएससी से शुरू की थी तो उसी का आंकड़ा बताते हैं कि आईएएस केवल तीन प्रतिशत हैं। आईपीएस चार फीसदी और विदेश सेवा में केवल 1.8 प्रतिशत।

तो इससे आप समझ सकते हैं कि इस साल सफल यूपीएससी उम्मीदवारों में जब 51 मुस्लिम लड़के और लड़कियों के नाम आए तो यह बड़ी खबर क्यों बनी। यूपीएससी में लगातार मुस्लिम उम्मीदवारों का चयन कम होता जा रहा था। और जब थोड़ी सी इसमें वृद्धि हुई तो बहुत ही शत्रुतापूर्ण मानसिकता के साथ इसे आईएएस जिहाद कहा गया। यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया था। एक टीवी चैनल ने गलत आंकड़ों पर आंकड़े देकर बताया था कि सरकार ने मुसलमानों को फायदा पहुंचाया। यहां तक झूठ कहा गया कि मुसलमानों को आयु में छूट है। उन्हें ज्यादा बार परीक्षा देने दी जा रही है। उनके कट आफ मार्क्स कम हैं। और यहां तक कि मुसलमानों के लिए फ्री कोचिंग सेंटर है। यह सारे आरोप झूठे थे। और झूठे साबित हुए। मगर उद्देश्य तो माहौल बनाना था। हिन्दु-मुसलमान करना था। और यह किया गया। 2020 में 42 मुस्लिम उम्मीदवार चुने गए थे। यह संख्या कोई ज्यादा नहीं थी। कुल चयनित लोगों में से 5 प्रतिशत से कम। मगर 2018 में केवल 28 ही चुनकर आए थे। तो इसे अचानक बढ़ी हुई बता दिया गया। जबकि इस बीच 2017 में 52 और 2016 में 55 थी। मगर वह आंकड़े न बताकर सीधे 2018 के 28 और 2020 में 42 क्यों कैसे के टीवी पर प्रोग्राम पर प्रोग्राम दिखाना शुरू कर दिए। सारे कारण गलत बताए गए थे। मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया। आईपीएस एसोसिएशन ने इसे सांप्रदायिक और गैरजिम्मेदाराना पत्रकारिता कहा।

खैर वह तो सारे आरोप कहानियां झूठे थे। मगर यहां एक बात फ्री कोचिंग की। इस फ्री कोचिंग ने इस बार भी 31 उम्मीदवारों को यूपीएससी क्लियर करवाया है। मगर इसमें हिन्दू-मुसलमान दोनों हैं। हर साल यही होता है। यह है जामिया मीलिया इस्लामिया में। रेजिडेंशल कोचिंग अकादमी ( आरसीए)। अभी तक 300 से ज्यादा स्टूडेंट यहां रहकर तैयारी करके यूपीएससी क्लीयर कर चुके हैं। हर धर्म के, हर जाति के।

मुसलमान की लड़ाई थोड़ी मुश्किल है। कुछ अपने कारणों से कुछ सांप्रदायिक राजनीति के कारण से। 2014 के बाद से उन्हें दूसरे दर्जे का नागिरक बनाने की कोशिशों में कोई कसर नहीं छोड़ी गई है। अब तो उदाहरण देने की भी जरूरत नहीं। इतनी लंबी लिस्ट होगी कि किताब बन जाए। प्रमुख में यही कहा जा सकता है कि जब प्रधानमंत्री श्मशान और कब्रिस्तान की तुलना करें। होली, दीवाली और रमजान में फर्क बताएं। मंदिर के नाम पर वोट मांगे जाएं। और मोदी योगी का नाम लेकर ट्रेन में ड्यूटी पर तैनात पुलिस वाला मुसलमानों की हत्या करे और दूसरी तरफ लोकसभा के भाजपा उम्मीदवार पूर्व केन्द्रीय मंत्री भी महेश शर्मा भी मोदी योगी का नाम लेकर सबको बाप की गाली दे तो समझ सकते हैं कि हालत कितनी खराब कर दी गई है।

लेकिन उसका फैसला चुनाव करेगा जो चल रहा है कि जनता क्या चाहती है। जनता जाहिर है कि जिसमें बहुसंख्यक हिन्दू हैं ज्यादा परेशान हैं। उनके युवाओं को नौकरी नहीं मिल रही। मिल तो मुसलमान युवा को भी नहीं रही। मगर नौकरी में उसका प्रतिशत पहले से ही बहुत कम था।

लेकिन अपनी तरक्की की जिम्मेदारी खुद मुस्लिम समुदाय पर भी है। जैसा की शुरू में लिखा कि यूपीएससी में 51 मुस्लिम स्टूडेंट अपनी मेहनत और लगन से आए हैं। साथ में परिवार का सपोर्ट था। उसी को आगे बढ़ना होगा।

शिक्षा, शिक्षा और आधुनिक शिक्षा ही एकमात्र रास्ता है। अभी जामिया का जिक्र किया। उससे बहुत पहले 1875 में 150 साल पहले सर सैयद ने मोहम्मडन एंग्लो ओरिएंटल कालेज की स्थापना की थी। वही बाद में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी बना। अब उस पर भी सवाल है। और खुद केन्द्र सरकार द्वारा।

उसका माइनरटी दर्जा खत्म करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में मामला है। जबकि अल्पसंख्यकों के लिए माइनरटी शिक्षा संस्थान की व्यवस्था संवैधानिक है। तो यह समय मुसलमानों के लिए बहुत निराशाजनक है। लेकिन सबसे अच्छी बात यह है कि वे खुद ऐसा नहीं मानते। इस बारे में जब भी किसी आम मुसलमान से बात होती है वह कहता है नहीं बुरा समय तो हमारे हिन्दू भाईयों के लिए ज्यादा है। उनके बच्चों को नौकरी नहीं मिल रही। ओवर एज हो रहे हैं। अस्पताल, स्कूल जो सरकारी थे वह खतम हो गए। महंगाई तो देखो आसमान छू रही है। हम तो कर रहे हैं मेहनत मजदूरी। हो रही गुजर। मगर हिन्दू भाई की परेशानी देखकर दु:ख होता है।

अच्छी सोच है। निराशा मुसलमान के स्वभाव में नहीं है। मगर उसे अब अपने बच्चों की शिक्षा पर पूरा ध्यान लगाना चाहिए। समस्या यही है कि उसका धार्मिक नेतृत्व उसे इस बारे में बिल्कुल ही जागृत नहीं करता है। मदरसा तालीम मार्डन एजुकेशन का विकल्प नहीं है। और उन्हें याद रखना चाहिए कि सर सैयद ने एएमयू बनाते समय केवल एजुकेशन की बात नहीं की थी। मार्डन एजुकेशन की बात कही थी। आज एएमयू, जामिया अगर निशाने पर हैं तो इसीलिए कि इन्होंने मुसलमानों की शिक्षा में अहम रोल निभाया।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)


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