विकल्प खोजने वाले विचारक थे ओमप्रकाश रावल
मध्यप्रदेश में इन्दौर जब भी जाना होता है, मेरा मन श्रद्धा व सम्मान से भर जाता है। इस शहर का मेरे जीवन में खास महत्व है

- बाबा मायाराम
मध्यप्रदेश में इन्दौर जब भी जाना होता है, मेरा मन श्रद्धा व सम्मान से भर जाता है। इस शहर का मेरे जीवन में खास महत्व है, इसलिए नहीं कि मैंने वहां पढ़ाई की है और वर्षों रहा हूं। बल्कि इसलिए कि वहां मैं ऐसी हस्तियों से मिला, जिनका न केवल मुझे सानिध्य प्राप्त हुआ, प्रभावित किया, बल्कि बहुत स्नेह भीमिला।आज इस कॉलम में मैं ओमप्रकाश रावल जी के बारे में बताना चाहूंगा,जो एक शिक्षक, राजनेता, चिंतक और लेखक थे। वे कभी आदर्श, सिद्धांतों से नहीं डिगे, ईमानदारी व सादगी की मिसाल पेश की, और उन्होंने पर्यावरण के सवाल को न केवल सबसे पहले पहचाना, बल्कि उनके संघर्षों में शामिल भी रहे।
सोचता हूं उन पर कुछ लिखूं,फिर यह भी कि क्या? यह दोहराऊ कि उनका जन्म 4 जनवरी. 1928 को हुआ था । साल 1949 से स्कूलों में कुछ वर्षों तक अध्यापन किया था। वे इंदौर के परसरामपुरिया स्कूल के प्राचार्च थे, जेपी, लोहिया, गांधी से प्रभावित होकर मास्टरी छोड़ दी थी,मीसा में जेल गए थे,विधानसभा चुनाव में जीत गए थे, शिक्षामंत्री भी बने थे,लेकिन जल्द ही समझ गए कि व्यवस्था में एक व्यक्ति की सीमाएं हैं। शिक्षा में बुनियादी बदलाव न कर पाने के कारण मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था और मुख्यधारा की राजनीति से नाता तोड़ जन संगठनों और जन आंदोलनों से जुड़ गए थे।
रावल जी का जब मुख्यधारा की राजनीति से मोहभंग हुआ, तो वे एक नई वैकल्पिक शक्ति को खड़ा करने के लिए जुट गए। वे छोटे-छोटे संगठनों और समूहों को ताकत और समर्थन देने के लिए तत्पर रहने लगे। चाहे वह नर्मदा बचाओ आंदोलन की बड़े बांधों के खिलाफ लड़ाई हो या फिर भोपाल गैस पीड़ित संगठन की, चाहे वह छत्तीसगढ़ के खदान मजदूरों की लड़ाई हो या फिर होशंगाबाद व झाबुआ के आदिवासियों की, वहां अपना समर्थन देते, कार्यकर्ताओं की हिम्मत बंधाते और लौटकर उन मुद्दों पर अखबारों मेंलिखते, जिससे उन मुद्दों को लोगों को जानकारी मिलती और समूहों को ताकत भी।असल में रावल जी छोटे-छोटे जन संगठनों से ही एक वैकल्पिक शक्ति के निर्माण का सपना देख रहे थे। वे एक बेहतर का सपना देख रहे थे। इसी को वे रियल पॉलिटिक्स कहते थे।
रावल जी से मेरा परिचय साल 1988 में हुआ, उस समय मैं इन्दौर में महाविद्यालय में पढ़ाई कर रहा था। इसके साथ ही नईदुनिया अखबार में काम कर रहा था। मैंने उनसे हॉस्टल में एडमिशन की सिफारिश चाही थी,उन्होंने और उनकी पत्नी कृष्णा रावल जी ने मुझे उनके घर में रहने की अनुमति दी । इसके बाद मैं उनके घर दो साल तक रहा। इस बीच रावल जी से बहुत कुछ जाना, समझा, पढ़ा और सीखा।
लंबी कद काठी, खादी का सफेद कुर्ता पायजामा, चेहरे पर मोटी फ्रेम का चश्मा और स्मित मुस्कान ही उनकी पहचान थी।रावल जी की एक खासियत और थी, वे बहुत ही सादगी पसंद व्यक्ति थे। सहज और मिलनसार तो थे ही। वे मितभाषी होते हुए भी दूसरों को लंबी-चौड़ी बातें सुनने का धीरज रखते थे। नपे-तुले शब्दों में कही गई उनकी बातें व टिप्पणी सीख की तरह होती थी।
रावल जी बहुत ही जिज्ञासु व नम्र व खुले विचारों के व्यक्ति थे। किसी भी मुद्दे की तह में जाने के लिए वे सवाल करते रहते थे, और दूसरों को सुनते रहते थे। वे एक पत्रकार की तरह खोज-बीन करते दिखते थे। और फिर अंत में किसी राय पर पहुंचते थे।उनकी एक छोटी लाइब्रेरी थी। कई पत्र-पत्रिकाएं आती थी। वे खासतौर पर पर्यावरण के मुद्दे पर अखबारों में छपी खबरों को चिन्हांकित कर काटते थे, उनको फाइल में सहेजकर रखते थे। जब कोई लेख लिखते थे, तो संदर्भ के लिए उन्हें देखते थे।
सुबह-सवेरे मैं रावल जी के साथ बैठकर चाय के साथ अखबार पढ़ता था। देश-दुनिया की घटनाओं पर उनसे बातें होती थीं। बड़े बांध और पर्यावरण पर उन दिनों उनकी खास नजर रहती थी। यह वह समय था जब नर्मदा बांध का मुद्दा उभरकर सामने आ रहा था। नर्मदा बचाओ आंदोलन का उभार इन्हीं दिनों हो रहा था।
रावल जी ने अपने लंबे राजनैतिक व सामाजिक जीवन के अंतिम वर्षों में पर्यावरण के सवालों को समझने में और उन्हे जनता के सामने लाने में लगाए। वे युवा सामाजिक कार्यकर्ताओं में संभावनाएं देखते थे। उनके घर ऐसे लोगों का आना- जाना लगा रहता था। उन्होंने कई सामाजिक कार्यकर्ता बनाए और प्रशिक्षित किए। उनमें से कई पत्रकार व अन्य क्षेत्रों में कार्यरत हैं।
मुझे याद है उस समय कल्पवृक्ष संस्था के और पर्यावरणविद् अशीष कोठारी के नेतृत्व में नर्मदा का एक अध्ययन हुआ था। इसके लिए इन युवाओं ने नर्मदा की यात्रा की थी, तब रावल जी के सहयोग से एक पत्रकार वार्ता की गई थी, जिसमें उन्होंने नर्मदा की व्यथा गाथा व उनके अनुभव सबके सामने रखे थे। इसी तरह पर्यावरण पर उन्होंने कई कार्यक्रम करवाए।
इसी प्रकार, उनके साथ मुझे साल 28 सितंबर, 1989 में हरसूद रैली में जाने का मौका मिला। वहां कर्नाटक के साहित्यकार शिवराम कारंत, मेधा पाटकर और बाबा आमटे से लेकर सिने तारिका शबाना आजमी, स्वामी अग्निवेश जैसे लोग उपस्थित थे। घाटी के लोगों के लोगों का तो सैलाब उमड़ पड़ा था। नर्मदा पर बांध बनाने के खिलाफ यह बड़ी घोषणा थी। इस पूरे आयोजन से रावल जी बहुत उत्साहित थे।
नर्मदा बचाओ आंदोलन का इंदौर में एक समर्थक समूह था, जिसमें ओमप्रकाश रावल जी, महेन्द्र भाई ( सर्वोदय प्रेस सर्विस के महेन्द्र भाई), कलागुरू विष्णु चिंचालकर जैसे दिग्गज लोग शामिल थे। इंदौर में मेधा पाटकर, बाबा आमटे, सुंदरलाल बहुगुणा जैसे लोग आते रहते थे। नईदुनिया के संपादक राहुल बारपुते की पर्यावरण में गहरी दिलचस्पी थी, और उनके अखबार में ऐसी खबरों व लेखों को प्राथमिकता देते थे।
आज हम जब नेताओं के तामझाम, दिखावे, गाड़ी-बंगले वाली जिंदगी को देखते तो रावल जी याद आ जाती है। उनकी सादगी, ईमानदारी और गरीबों के प्रति गहरी संवेदना की मिसालें याद आ जाती हैं। वे न केवल स्वभाव में सहज थे, बल्कि व्यवहार में भी सरल थे। जनसाधारण से बहुत आत्मीय से मिलते थे। एक बार की बात है। उनके घर दूध देने वाला आया, वे बर्तन लेने घर के अंदर गए, और किसी और काम में व्यस्त हो गए। तब तक दूध वाला खड़ा रहा। जब उन्हें याद आया तो भाग कर आए, और दूध वाले से कई बार अपनी भूल के लिए कई बार माफी मांगी। मैं देखता ही रह गया।
इसी प्रकार, उनके पड़ोस में रूई धुनाई करने वाली एक महिला की दुकान जल गई, तो वे द्रवित व भावुक हुए और वे न केवल से उसे देखने कई बार गए, बल्कि उसकी मदद भी की।
वे वर्तमान की तामझाम व जीवनशैली के पक्ष में नहीं थे। उन्होंने अपने एक लेख में लिखा है कि न्यूनतम आवश्यकताओं पर आधारित सतत चलने वाली विकास की पद्धति जो विकेंद्रित व्यवस्था एवं पर्यावरण के संरक्षण पर ही संभव है, यदि नहीं अपनाई गई तो मनुष्य जाति जिंदा नहीं रह सकेगी। शीघ्र ही नई पीढ़ी तथाकथित विकास के लंबरदारों से सवाल करेगी कि तुम्हें ऐशो-आराम के लिए भावी पीढ़ी की संपत्ति को लूट लेने और नष्ट-भ्रष्ट कर डालने का क्या हक है? इस प्रश्न को समझकर विकास की ऐसी वैकल्पिक नीति चलानी होगी जो हमेशा-हमेशा के लिए कायम रहे तथा जो पर्यावरण की भी रक्षा करे और सामाजिक न्याय भी स्थापित करें।
कुल मिलाकर, अब हमारे बीच रावल जी नहीं है। उनका निधन 3 फरवरी, 1994 को हो गया है। लेकिनरावल जी जैसी हस्तियों को न केवल याद रखने की जरूरत है, बल्कि आज उनके विचार और व्यक्तित्व से कुछ सीखकर आगे काम करने की जरूरत है। लेकिन क्या हम इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए तैयार हैं?


