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ओडिशा की घटना से सेना में रोष

लास्ट इंस्टिट्यूशन था सेना! उसे भी खत्म कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि अभी ओडिशा पुलिस थाने में महिला यौन उत्पीड़न की भयावह घटना के बाद अचानक यह हुआ हो

ओडिशा की घटना से सेना में रोष
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- शकील अख्तर

ज्योति बसु भी चले गए, सोमनाथ चटर्जी भी और सीताराम येचुरी भी। मगर जैसा सीपीआईएम ने 1996 में ज्योति बसु को प्रधानमंत्री नहीं बनाने के लिए तर्क दिया था कि हमारे पूर्ण बहुमत होने तक हम अपने सिद्धांत लागू नहीं कर सकेंगे इसलिए उस सरकार में जहां हमारे सदस्य कम हैं हम प्रधानमंत्री नहीं बना सकते। ज्योति बसु नहीं बने और आज 28 साल हो गए लेफ्ट खासतौर से सीपीआईएम और कमजोर हुआ है।

लास्ट इंस्टिट्यूशन था सेना! उसे भी खत्म कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि अभी ओडिशा पुलिस थाने में महिला यौन उत्पीड़न की भयावह घटना के बाद अचानक यह हुआ हो।
हो तो पहले से रहा है मगर किसी दूसरी फोर्स को उसके खिलाफ ऐसा विवाद खड़ा नहीं किया गया था। अब सेना के खिलाफ बाकायदा उड़ीसा पुलिस को उतार दिया गया है।

सेना देश के पवित्रतम संस्थानों में मानी जाती है। ज्यूडिशरी और सेना यह वह इन्स्टिट्यूशन हैं जो किसी बड़ी से बड़ी घरेलू विपत्ति में भी डटे रह सकते हैं। बशर्ते कि उनका राजनीतिकरण नहीं किया जाए।

2014 में नरेन्द्र मोदी जिस तरह प्रधानमंत्री बने आडवानी और मुरली मनोहर जोशी जैसे अपने सबसे बड़े नेताओं को धकेल कर रास्ते से हटाया उससे यह आभास हो गया था कि मोदी गुजरात की तरह यहां भी तानाशाही करेंगे। मगर हमारे यहां बुद्धिजीवी ऐसे हैं कि वे इसमें तानाशाही की फासिज्म की परिभाषाएं रखकर नापतौल कर रहे थे कि यह फासिज्म है या अर्द्ध फासिज्म? इसके इटली के स्वरूप और जर्मनी के रूप में क्या फर्क था। खैर वह सिद्धांतकारी खुद उनकी पार्टी में फेल हो गए, मगर वे सिद्धांत बड़ा है व्यवहारिक जरूरतों से इस पर अड़े रहे और आज केवल सिद्धांत है, किस पर लागू किया जाए वह कोई बचा ही नहीं है।

ज्योति बसु भी चले गए, सोमनाथ चटर्जी भी और सीताराम येचुरी भी। मगर जैसा सीपीआईएम ने 1996 में ज्योति बसु को प्रधानमंत्री नहीं बनाने के लिए तर्क दिया था कि हमारे पूर्ण बहुमत होने तक हम अपने सिद्धांत लागू नहीं कर सकेंगे इसलिए उस सरकार में जहां हमारे सदस्य कम हैं हम प्रधानमंत्री नहीं बना सकते। ज्योति बसु नहीं बने और आज 28 साल हो गए लेफ्ट खासतौर से सीपीआईएम और कमजोर हुआ है। इतना कि लाल किले से लाल सलाम का नारा अब लगाया भी नहीं जाता। विषयातंर हो रहा है लेकिन यह जरूरी है और मूलरूप से तो विषयातंर भी नहीं है एक पुराने विषय की कड़ियां जोड़ना है, ताकि आज की परिस्थितियां सही तरीके से समझ में आ सकें। राजनीतिक घटनाक्रम हमेशा किसी सिद्धांत में फिट नहीं होता है। राजनीति के बदलते रूप नए सिद्धांत बनाते और उन्हें सुधारते हैं।

बात हमने फासिज्म से की थी कि उस समय सीपीआईएम के नए नए बने महासचिव प्रकाश करात ने कहा था- यह फासिज्म नहीं अर्द्ध फासिज्म है। अब पूरा हुआ कि नहीं। यह उन्होंने शायद बताया नहीं या बताया भी होगा तो जैसा हमने कहा कि कमजोर हो गई है पार्टी, किसी ने सुना भी नहीं होगा। अखबारों में अब रिपोर्ट भी नहीं होता है।

हमने बात शुरू की थी सेना के भी इन्स्टिट्यूशन के रूप में खत्म करने की तो उसी संदर्भ में यह आया है कि शुरूआत 2014 से ही कर दी थी। और वह जिनकी समझ में नहीं आया वह तो अलग बात है मगर जो जानते थे उन्होंने अनावश्यक अकादमिक बहसों में लोगों को उलझाकर बड़ा नुकसान किया। इसी सिलसिले में ज्योति बसु के प्रधानमंत्री न बनाने का जिक्र आया। जो वास्तव में ऐतिहासिक भूल साबित हुई। और यह एक अकेली या आखिरी नहीं थी। ऐसे ही न्यूक डील पर अड़ना। यूपीए सरकार से समर्थन वापस लेना। सोमनाथ चटर्जी जो लोकसभा अध्यक्ष थे उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करना। दस बार के सांसद चटर्जी को पार्टी से ही निकाल दिया गया था। 2008 में यूपीए से समर्थन वापसी के बाद सीपीआईएम ने चटर्जी से लोकसभा अध्यक्ष पद छोड़ने को कहा। उन्होंने नहीं छोड़ा। तो उन्हें पार्टी से ही निकाल दिया गया।
कई बार लगता है कि यह बच्चों के खेल जैसा है। जैसे वे कब कहां कोई नियम बनाकर अड़ जाते हैं वैसे ही यहां सिर्फ नियम बचे रह गए व्यक्ति चले गए।

इन दिनों देश भर में सीपीआईएम के महासचिव सीताराम येचुरी की याद में सभाएं हो रही है। आम लोग बड़ी तादाद में उनमें आ रहे हैं। और बहुत दिल से सीताराम को याद कर रहे हैं। हमने उनकी मृत्यु से करीब एक डेढ़ महीने पहले उनके साथ आखिरी मुलाकात में कहा था राज्यसभा में आपकी कमी बहुत खलती है। मुलाकात संसद भवन में ही हुई थी। एनेक्सी के मेडिकल सेंटर में। तबीयत तो खराब चल ही रही थी। बोले भी कि बुढ़ापा! हमने विरोध किया। बात को बदलने के लिए उनके राज्यसभा के उस ऐतिहासिक दिन की याद दिलाई जिस दिन उन्होंने सदन में सभापति को मत विभाजन के लिए मजबूर करके मोदी सरकार को हरा दिया था। फिर ऐसा कोई नहीं कर पाया। खुशी छलकी चेहरे पर। मुस्कराते तो वे हमेशा रहते थे। मगर अंदर की खुशी उस समय बाहर आई। थोड़ी बातें हुईं। और हमने कहा कि आपकी पार्टी का और आप खुद महासचिव थे आपका गलत फैसला कि आपकी राज्यसभा कंटीन्यू नहीं की गई। हंसते रहे। हमने कहा इंटरव्यू करेंगे। कहने लगे आ जाइए। मगर वह मौका ही नहीं आया।

तो यह एक और बड़ी भूल थी सीपीआईएम की कि राज्यसभा में उसने अपने सारे अच्छे स्पीकरों को हटा लिया। इस नियम के चलते कि दो बार से ज्यादा किसी को राज्यसभा नहीं मिलेगी। लोकसभा का टिकट कितनी बार भी मिल जाए। मुख्यमंत्री कितने साल भी रह ले। राज्यसभा नहीं देंगे! तो राज्यसभा जहां एक अकेले सीताराम ने दस साल केवल लेफ्ट की आवाज ही बुलंद नहीं रखी सदन में चर्चाओं के स्तर को एक नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया।

खैर बात कहां से कहां पहुंची। मगर ठीक है। मोदी से जिक्र शुरू हुआ था किस तरह उन्होंने देश के सारे इन्स्टिट्यूशन को खत्म कर दिया। मीडिया का तो जिक्र ही क्या? उसकी तो बात करने लायक भी स्थिति नहीं बची है। बाकी भी सारे संस्थानों की स्वायत्तता खत्म कर दी गई है। न्यापालिका कभी-कभी आभास देती है कि वह कुछ कर रही है। कर सकती है। मगर उस पर दबाव लगातार बढ़ाया जा रहा है कि वह भी पूर्ण समर्पण कर दे। कभी व्यंग्य करके। चुनावी बांड के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद खुद प्रधानमंत्री ने उस पर कृष्ण और सुदामा की कहानी के माध्यम से चोट करने की कोशिश की थी। और अभी तो चीफ जस्टिस चन्द्रचूड़ के घर का वीडियो रिलीज करके। चीफ जस्टिस अभी तक जवाब नहीं दे पाए।

सेना के मामले में भी जब बिपिन रावत की सीडीएस बनाया था तो उनके बयानों ने बताया कि कैसे वे सेना के राजनीति से दूर रहने के पवित्र सिद्धांत की अवमानना कर रहे हैं। सीताराम येचुरी की बात हुई है तो याद आता है रावत के बयानों पर उन्होंने चेताया था कि सेना के इस तरह के हस्तक्षेप हमें कहीं पाकिस्तान के रास्ते पर न ले जाएं।
रावत ने असम के मामले में एकदम खुलकर राजनीतिक बात की थी। बदरुद्दीन अजमल की पार्टी और जनसंघ की विवादास्पद तुलना की थी। इसी तरह कश्मीर पर, स्टूडेन्ट पर, नागरिकता संशोधन कानून पर उनके कई बयान हैं जो इससे पहले कभी सोचे भी नहीं जा सकते थे कि कोई सेना का अधिकारी कभी ऐसा भी बोल सकता है।
इससे सेना का दर्जा गिरा। उसकी जो अपना अलग एक पहचान थी वह कमजोर हुई। सेना को भी दूसरी फोर्सों की तरह लिया जाने लगा। मध्यप्रदेश के महू में जो सैन्य छावनी है। थोड़ा पत्रकारों का भी उससे संबंध है। वहां पत्रकारों को वार करस्पान्डेंट की ट्रेनिंग दी जाती है। वहां दो आर्मी आफिसर और उनकी महिला मित्रों के साथ मारपीट की गई। फिरौती मांगी गई। रेप किया गया।

कभी सुना था ऐसा? आर्मी इलाकों के पास गुंडे बदमाश फटकते नहीं थे। आसपास के बाजारों में महिलाएं देर रात तक अकेली शापिंग करती थीं। और अब महू की घटना के बाद पता है मीडिया ने क्या सवाल उठाए? देर रात महिलाएं घर से बाहर क्यों निकल रही हैं? उनके पुरुष मित्रों के साथ घूमने का औचित्य?

महिला और सेना पर ऐसे ही सवाल अब ओडिशा की पुलिस उठा रही है। सेना के युवा अफसरों में बहुत रोष हैं। सेन्ट्रल कमान ने ट्वीट करके कहा है कि हम ओडिसा के मामले को बहुत गंभीरता से ले रहे हैं। पूर्व सेना अधिकारियों ने वहां सड़कों पर प्रदर्शन किया। थाने के अंदर सेना के अधिकारी जो शिकायत लेकर आए हैं उनके साथ मारपीट और मंगेतर के कपड़े उतार कर रेप की धमकी।

कभी नहीं सुना था। और सबसे खराब बात की प्रधानमंत्री मोदी चुप हैं। खाली बंगाल पर बोलते हैं। हालांकि बंगाल में कोई आरोपी के साथ नहीं आया। लेकिन जहां भी बीजेपी की सरकार है मणिपुर से लेकर अभी ओडिशा तक वहां सबसे पहले आरोपियों को समर्थन मिलता है। पीड़िता परिवार पर सवाल उठाए जाते हैं।
देश को बहुत खतरनाक स्थिति में पहुंचा दिया गया है। पुलिस उल्टे सेना पर आरोप लगा रही है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)


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