न्याय पत्र : कल्याणकारी राज्य का दस्तावेज़
18वीं लोकसभा के लिये कांग्रेस का घोषणा पत्र, जिसे न्याय पत्र नाम दिया गया है, वह कल्याणकारी राज्य की अवधारणा पर आधारित है

18वीं लोकसभा के लिये कांग्रेस का घोषणा पत्र, जिसे न्याय पत्र नाम दिया गया है, वह कल्याणकारी राज्य की अवधारणा पर आधारित है। यह न्याय पत्र उसी कहानी को आगे बढ़ाता है जो 2014 में संयुक्त प्रगतिशील मोर्चा (यूपीए) की दूसरी कार्यकाल वाली सरकार (साल 2009-2014) के परास्त होने के बाद खत्म हो गई थी। न्याय पत्र बताता है कि पिछले 10 वर्षों में दो लोकसभा चुनावों में मिली पराजयों के बावजूद कांग्रेस अपनी उन नीतियों से नहीं हटी है जो नागरिकों को हर तरह के अधिकारों से लैस करने की पक्षधर है; और अधिकार देने का अर्थ ही न्याय पाने के रास्तों का निर्माण करना होता है। वैसे भी पिछले दस वर्षों के नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में चल रही भारतीय जनता पार्टी की सरकार के काम के तरीके पर विचार करें तो उसने लोगों पर अन्याय ही किया है। इनमें राजनैतिक, सामाजिक एवं आर्थिक तीनों ही तरह के अन्याय हैं। 5 न्याय एवं 25 गारंटियों वाले न्याय पत्र में मोदी के उन्हीं अन्यायों की काट है जिसे कांग्रेस के प्रमुख नेताओं ने शुक्रवार को पार्टी में मुख्यालय जारी में किया।
कुछेक मुद्दों को छोड़ दिया तो नागरिक जीवन के लगभग सभी अंगों का स्पर्श करने वाले सभी मसले इसमें शामिल हैं जो बताते हैं कि सत्ता में आने पर कांग्रेस कौन से निर्णय लेगी जिनसे जनसामान्य को न्याय मिलेगा। न्याय के बिंदु सुपरिभाषित हैं और कांग्रेस की अपनी राजनैतिक पहचान व प्रवृत्ति के अनुरूप हैं। साथ ही, आजादी के बाद से उसकी जितनी बार व जिनके भी नेतृत्व में सरकारें चली हैं, उन सभी ने इसी मार्ग पर देश को अग्रसर किया है। स्वतंत्रता जब मिली थी तो अंग्रेज एक ऐसा भारत छोड़ गये थे जो बदहाल था, अविकसित था।
पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से लेकर सभी परवर्ती प्रधानमंत्री इसी राह पर चले थे। यहां तक कि गैर कांग्रेस सरकारों ने भी उसी मार्ग पर चलने की ठानी। नरेंद्र मोदी के अविर्भाव के एक दशक पूर्व आई खुद भारतीय जनता पार्टी की अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार ने विकास के नाम पर सरकार चलाई तथा 'शाइनिंग इंडिया' के नाम पर ही 2004 का चुनाव लड़ा था। हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद जैसे मुद्दे उन्होंने (वाजपेयी) कालीन के नीचे सरका दिये थे। हो सकता है कि वाजपेयी के पास स्पष्ट बहुमत होता और अपने दम चलती हुई सरकार होती तो वे भी ऐसा ही करते जो आज नरेंद्र मोदी कर रहे हैं।
अलबत्ता नरेंद्र मोदी ने अलग राह पकड़ी क्योंकि वे पहली बार (2014 में) अच्छा बहुमत लेकर तो आये ही थे, 2019 में उनके पास खुद का साफ बहुमत था। भारत के सामने दिक्कतों का दौर वहीं से शुरू हुआ जब मोदी-भाजपा ने विकास की बजाये साम्प्रदायिकता व राष्ट्रवाद के एजेंडे को आगे बढ़ाया। यह विमर्श सारे मुद्दों को अपने भीतर छिपा और समेट लेता है। यह इतिहास के सभी दौर और उन सभी देशों में हुआ है जब तानाशाही प्रवृत्ति का कोई शासक बड़े जनसमर्थन के साथ सत्ता सम्भालता है। वह समाज में एक वर्ग को ऐसे ही किसी नफ़रत से भरता है व जनता का भावनात्मक दोहन करता है। उसके प्रति लोगों का अनुराग व श्रद्धा इस कदर होती है कि जनता सच-झूठ और सही-गलत में भेद नहीं कर पाती। अपने खिलाफ उठने वाली हर आवाज़ को वह या तो दबाता जाता है या फिर जनता ही उसके लिये यह काम करती है।
ऐसे ही शासन के हर अंग उसकी सत्ता को बचाने का काम करते हैं। उसके खिलाफ कोई भी फैसला देश को कमजोर करने वाला माना जाता है और उसकी आलोचना को देश की बुराई करना मान लिया जाता है। जनता यह भी समझती है कि उनका प्रिय राजा कोई गलत निर्णय ले ही नहीं सकता। वह जो कर रहा है सही है और देश के भले के लिये है। संक्षेप में कहें तो जो भारत में हो रहा है, बस वही।
यहां से विपक्ष की राह बहुत दुरुह हो जाती है। विपक्ष ही क्यों, हर उन व्यक्तियों, संगठनों की जो लोकतंत्र में भरोसा करते हैं। यहां तक कि खुद सरकार की बनाई तमाम संवैधानिक व स्वायत्त संस्थाएं भी ऐसा कोई निर्णय नहीं करतीं जिससे शासक कमजोर हो। ऐसे में अगर अपनी राख से कांग्रेस उठ खड़ी होती है तथा अपने साथ दो दर्जन से अधिक सियासी दलों को अपने साथ लेकर भाजपा की सत्ता को चुनौती देती है, तो बौखलाहट में प्रधानमंत्री मोदी अगर 'कांग्रेस के न्याय पत्र पर मुस्लिम लीग की छाया' देखते हैं तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिये।
आज कांग्रेस जिस भी हालत में हो, उसने देश पर लम्बे समय तक शासन किया है और उसकी उपलब्धियों को मोदी व भाजपा को छोड़कर कोई नहीं नकारता। अगर ऐसा दल चुनावी वादे, गारंटी, घोषणापत्र जैसे नाम न देकर 'न्याय पत्र' के हवाले से मैदान में उतरा है तो मोदी को चाहिये वे साबित करें कि उनके कार्यकाल में जनता के साथ अन्याय नहीं हुआ है।
इसके विपरीत अगर वे कुतर्क द्वारा उसे मुस्लिम लीग से जोड़ रहे हैं तो वे भूलते हैं कि स्वतंत्रता की लड़ाई के दौरान मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा एक ही सिक्के के दो पहलू थे जो महात्मा गांधी की लड़ाई में उनका विरोध कर रहे थे। साफ है कि अभूतपूर्व विकास का दावा करने वाले मोदी का आज भी साम्प्रदायिकता के अलावा कोई आधार नहीं है जिसके बल पर वे तीसरी बार प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं। इस तथ्य को जनता को ध्यान में रखते हुए मतदान केन्द्रों का रुख करना चाहिये।


