अच्छी सेहत के लिए पौष्टिक भोजन जरूरी
मेडागास्कर पद्धति की खास बात यह है कि इसमें बीज कम लगता है, पानी कम लगता है और उत्पादन अधिक होता है

- बाबा मायाराम
मेडागास्कर पद्धति की खास बात यह है कि इसमें बीज कम लगता है, पानी कम लगता है और उत्पादन अधिक होता है। हाथ से चलाने वाले बीडर से निंदाई की जा सकती है। इस पद्धति में खेत में पानी भरकर रखना जरूरी नहीं है। खेत में पानी नहीं रहने पर मिट्टी में वायु संचार होता है जिससे पौधा स्वस्थ और मजबूत होता है। फलस्वरूप पौधे में ज्यादा कंसा निकलते हैं और बालियां भी अधिक लगती हैं। यानी उत्पादन ज्यादा होता है। इस पद्धति को अफ्रीकी देश मेडागास्कर में ईजाद किया गया था।
हाल ही में मेरा छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले के गनियारी कस्बे में जाना हुआ। वहां स्वास्थ्य का अनूठा काम हो रहा है। यह न केवल इलाज व दवाओं से संभव है, बल्कि अच्छी सेहत के लिए अच्छा भोजन भी जरूरी है। इसके लिए जैविक खेती पर भी जोर दिया जा रहा है। आज के इस कॉलम में इस पर चर्चा करना उचित होगा।
गनियारी के जन स्वास्थ्य सहयोग संस्था है। इस संस्था का काम वर्ष 1999 में इस जिले में स्वास्थ्य पर शुरू हुआ। देश की मौजूदा स्वास्थ्य सेवाओं की हालत से चिंतित दिल्ली के कुछ मेधावी डाक्टरों ने इसकी शुरूआत की थी। इस संस्था ने एक अध्ययन के दौरान यह पाया कि ज्यादातर बीमारियों का संबंध कुपोषण से है, तबसे संस्था ने अपना कृषि कार्यक्रम शुरू किया।
जन स्वास्थ्य सहयोग ने उनकी एक डेढ़ एकड़ की भाटा (कमजोर) ज़मीन पर बिना रासायनिक वाली जैविक खेती शुरूआत की, जो अब साढ़े चार एकड़ में फैल चुकी है। यहां धान की 450 किस्में संग्रहीत हैं जिनमें 65 सुगंधित, 30 लाल चावल वाली, 40 जल्द पकने वाली, 2 किस्में काले चावल की। और बाकी 110-115 दिन की मध्यम अवधि में पकने वाली किस्में हैं। इसके अलावा, मड़िया की 6, कांग 2, ज्वार 1, मक्का 2 और अरहर की 9 किस्में हैं। चना, अलसी, कुसुम, मटर, भिंडी, उड़द आदि देशी किस्में भी हैं।
रंग-बिरंगे देशी बीज न केवल सौंदर्य से भरपूर हैं बल्कि स्वाद में भी बेजोड़ हैं। औषधि गुणों से सम्पन्न हैं और स्थानीय मिट्टी पानी और हवा के अनुकूल हैं। आखिर मनुष्य ने ही जंगलों से तरह-तरह की फसलों के गुणधर्मों की पहचान कर खेतों में उन्हें उगाया है। इसी के परिणामस्वरूप आज हम बीजों के मामले में समृद्ध हैं।
गनियारी में एक-दो डिसमिल की छोटी-छोटी क्यारियों में देशी धान का प्रयोग करीब डेढ़ दशक से चल रहा है। मैं कई बार इस फार्म को देख चुका हूं और इसके प्रमुख कार्यकर्ता होम प्रकाश से चर्चा की है। होम प्रकाश ने बताया कि धान की कई किस्में हैं जिनमें हरून धान 70 से 100 दिन वाली, मध्यम 100 से 120 दिन वाली और गहरून 120 से 145 दिन वाली हैं। जो अलग-अलग किस्म की मिट्टी वाली ज़मीन में होती हैं।
उन्होंने बताया कि धान की नई मेडागास्कर पद्धति के प्रयोग हमने देशी धान बीजों से किए जिसमें उत्पादन औसत धान से दोगुना तक पाया गया। यहां जैविक तरीके से देशी धान (मोटा) 25 से 30 क्विंटल प्रति एकड़ और सुगंधित धान 20-25 क्विंटल प्रति एकड़ तक उत्पादन पाया गया है।
मेडागास्कर पद्धति की खास बात यह है कि इसमें बीज कम लगता है, पानी कम लगता है और उत्पादन अधिक होता है। हाथ से चलाने वाले बीडर से निंदाई की जा सकती है। इस पद्धति में खेत में पानी भरकर रखना जरूरी नहीं है। खेत में पानी नहीं रहने पर मिट्टी में वायु संचार होता है जिससे पौधा स्वस्थ और मजबूत होता है। फलस्वरूप पौधे में ज्यादा कंसा निकलते हैं और बालियां भी अधिक लगती हैं। यानी उत्पादन ज्यादा होता है। इस पद्धति को अफ्रीकी देश मेडागास्कर में ईजाद किया गया था।
वे आगे बताते हैं कि यह अरहर उत्तरप्रदेश से आई है, मडिया बस्तर से। कुसुम से तेल निकलता है और काबुली चना का दाना बड़ा होता है। धान की कई किस्में सुगंधित हैं और कई बिना पानी वाली। मुंगलानी ( राजगिर) पौष्टिक होता है और ज्वार की रोटी हाजमे के लिए बहुत अच्छी मानी जाती है।
हाल ही में उन्होंने पानी की कमी को देखते हुए एक दिन में कुआं खोद डाला और जब पानी हो गया तो गाय खरीद ली। उनके खेत में थोड़ा ढलान है और आसपास तालाब भी है, इसलिए पानी बहुत उथले में निकल आता है। कुछ समय पहले गोबर गैस प्लांट भी लगाया है। यह बहुत छोटा है, और घऱ की गाय के गोबर से ही चलता है। इससे बल्ब और रसोई गैस की जरूरत भी पूरी हो जाती है।
मैंने यहां घूमते-घूमते एक नजर खेत पर डाली। मेड़ पर अरहर के पौधे लहलहा रहे थे। बेर के पेड़ों के नीचे बच्चे खेल रहे थे। एक खेत में सब्जियां लगी थीं। मूली, भटा, टमाटर, धनिया, मिर्ची, बरबटी, प्याज और भिंडी।
होमप्रकाश बताते हैं कि खेती के लिए ज़मीन का स्वास्थ्य भी सुधारना जरूरी है। रासायनिक खेती के कारण ज़मीन की उर्वरा शक्ति कमजोर होती जा रही है और उर्वर बनाने वाले सूक्ष्म जीवाणु खत्म होते जा रहे हैं। बेजा रासायनिक खाद के इस्तेमाल से ज़मीन सख्त होती जा रही है। भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाने के लिए मिश्रित फ़सलों को खेतों में बोया जाता है। यह परंपरागत तरीका है।
इसके अलावा, हरी खाद ढनढनी, सन, सोल, चरौरा को भी बोकर फिर मिट्टी में सड़ा दिया जाता है, जिससे ज़मीन उत्तरोत्तर उर्वर बनती जाती है। उन्होंने बताया कि इस भाटा कमजोर ज़मीन को हरी खाद से ही उर्वर बनाया है।
कोटा के पास फुलवारीपारा नामक गांव में डबरी निर्माण का काम किया गया है, जिससे आदिवासी किसान सब्जी बाड़ी लगाते हैं। और खुद भी हरी सब्जी खाते हैं और अतिरिक्त होने पर बेचते भी हैं, जिससे उनकी आमदनी हो जाती है।
सामुदायिक कृषि कार्यक्रम के महेश शर्मा ने बताया कि अब हमारा यह प्रयोग न केवल गनियारी में बल्कि कई गांवों में फैल चुका है।
किसान कार्यकर्ता भुवन सिंह ने बताया कि धान की रासायनिक खेती में प्रति एकड़ 5-6 हजार रूपए लागत आती है और जैविक खेती में एक से डेढ़ हजार रूपए।जबकि उत्पादन दोगुना मिलता है। अगर मेड़ पर पौधे लगाएं तो इससे हमें लकड़ी, फल, शुद्ध हवा, और ज़मीन को पानी सब कुछ मिलेंगे।
इस संस्था का एक पशु स्वास्थ्य कार्यक्रम भी चल रहा है। इसमें गांव के ही कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित कर मवेशियों का टीकाकरण और छोटी-मोटी बीमारियों का इलाज किया जाता है। दवाओं भी स्थानीय जड़ी-बूटियों से बनाई जाती हैं। कुछ दवाएं जरूरत पड़ने पर खरीदी भी जाती हैं। संस्था की इस पहल से पशुओं का स्वास्थ्य बेहतर होता है, और लोगों की आमदनी में भी इजाफा होता है।
खेती और पशुपालन का अटूट रिश्ता है। छत्तीसगढ़ में पशुपालन की बहुत ही अच्छी परंपरा है। खेती और पशुओं के साथ कई तीज-त्यौहार जुड़े हैं। पोला बैलों का त्यौहार है। इस दिन उनकी पूजा होता है। अक्ति त्यौहार भी खेती से जुड़ा है। दीपावली और होली भी।
लेकिन आधुनिक व रासायनिक खेती के कारण यह बरसों पुरानी परंपराएं कमजोर हो रही हैं। खेत व बैल का रिश्ता भी टूट रहा है। इसका नतीजा हो रहा है कि मवेशी सड़कों पर घूम रहे हैं।
पिछले कुछ सालों से न केवल छत्तीसगढ़ में बल्कि देश भर में जैविक खेती, प्राकृतिक खेती, परंपरागत खेती का चलन बढ़ रहा है। इसमें देशी बीज, गोबर खाद, केंचुआ खाद, जैव कीटनाशक का इस्तेमाल किया जाता है। क्योंकि रासायनिक खेती के दुष्परिणाम स्पष्ट रूप से सामने आ गए हैं। इसलिए किसानों का भी रूझान इस ओर बढ़ रहा है।
छत्तीसगढ़ की यह पहल इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि पिछले कुछ सालों से यहां सघन धान की खेती को बढ़ावा मिल रहा है। अन्य मिश्रित फसलें पीछे छूट रही हैं। जबकि मिट्टी की उर्वरा शक्ति को बनाए रखने के लिए मिश्रित फसलों का होना जरूरी है। जबकि रासायनिक खेती में मिट्टी और पानी जैसे महत्वपूर्ण संसाधनों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। और यह खेती स्वास्थ्य पर भी विपरीत असर डालती है।
कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि यह प्रयोग अनूठा है, छत्तीसगढ़ में एक मौन क्रांति की तरह है जो सराहनीय होने के साथ अनुकरणीय है। अच्छी सेहत के लिए अच्छा भोजन जरूरी है। और स्वस्थ भोजन के लिए जैविक खेती, जो देशी बीजों, गोबर खाद व हल-बैल की खेती से होती है, वह जरूरी है। इस तरह की खेती से मिट्टी, पानी और पर्यावरण के संरक्षण के साथ छत्तीसगढ़ की ग्रामीण संस्कृति भी बचेगी। जैव विविधता के साथ आजीविका का भी संरक्षण होगा।


