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अब पेड़ से आवाज नहीं आएगी

बैतूल से करीब सत्तर किलोमीटर दूर घोड़ाडोंगरी के पास। सुबह के करीब 5 बजे होंगे। पेड़ से अचानक जोर जोर से किसी के गाने की आवाज आने लगी

अब पेड़ से आवाज नहीं आएगी
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- अश्वनी शर्मा

किसी भी समाज की आपस की गांठ उसके अपने सामाजिक मूल्य होते है। जो उस समाज में दरार आने से रोकते हैं। इन मूल्यों को बनाने में बसदेवा या हरबोला जैसे समुदाय की बड़ी भूमिका होती है। ये मूल्य जब कमजोर पड़ते हैं तभी समाज में विचलन आता है। हमारी सामाजिक पटल अगर रंग बिरंगी और मजबूत दिखाई पड़ती है तो इन्हीं हरबोला जैसे समुदाय की वजह से।

बैतूल से करीब सत्तर किलोमीटर दूर घोड़ाडोंगरी के पास। सुबह के करीब 5 बजे होंगे। पेड़ से अचानक जोर जोर से किसी के गाने की आवाज आने लगी। स्वर बहुत ऊंचा था। देखते ही देखते वहां लोगों का जमघट लग गया। मैं भी तमाशबीनों की टोली में शामिल था। एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति गूलर के पेड़ पर चढ़कर टेर लगा रहा था।
उसकी टेर में कभी निर्गुण भक्ति के संत सिंगाजी महाराज थे। तो कभी आल्हा ऊदल की गाथा। उसने लक्ष्मी बाई की वीरता को भी गाकर बताया। अंत में कालू बाबा और भानुमति बाबा के जीवन चरित्र को सुनाया।

गांव के आस पड़ोस से बुर्जग लोग एकत्रित होकर उसको हाथ जोड़कर प्रणाम कर रहे थे। मेरे लिए कौतूहल का विषय था। गांव के पटेल ने आकर उसे करीब दस बजे पेड़ से सम्मान सहित नीचे उतारा। उसको भेंट स्वरूप हवाई चप्पल, दो तीन शेर अनाज और एक अंगोछा दिया। लोग हरबोला बाबा के नारे लगाते हुए उसको आदर सहित गांव में लेकर जाने लगे।

उस व्यक्ति के एक हाथ में लकड़ी, दूसरे हाथ में झिंझा और कंधे पर झोला टंगा था। भूरी आंखें, पोपला मुँह। लंबा चोला नुमा कुर्ता, पजामा और पैर में टायर की चप्पल पहने वो व्यक्ति बड़ी बड़ी डग भरता हुआ जोश में आगे बढ़ रहा था। बुजुर्ग लोग बात कर रहे थे की हरबोला पूरे एक दशक के बाद आया है। पहले तो साल छह महीने में आ जाते थे।

वो व्यक्ति एक ऊंची सी दीवार पर बैठा और बिना रुके करीब चार घंटे तक वीर योद्धाओं की लोक गाथाओं को ऊंचे स्वर में सुनाया। गंगा जी के गीतों को सुनाया। मीरा, सूरदास और रसखान का स्तुति गान किया। वो व्यक्ति हरबोला समुदाय से है। जो सदियों से निर्गुण भक्ति संतों, लोक में पैदा हुए वीर योद्धाओं और स्थानीय लोगों के जीवन संस्कृति को अपने लोक गाथाओं, गीतों और कथाओं के जरिए जन जन तक पहुंचाने का काम करते रहे हैं।

बहुत थोड़े से संसाधनों में अपना जीवन यापन करने वाले यह लोग अपनी गैर मामूली मौजूदगी से हमारे जीवन को प्रकाशित करते रहे। इनके आने मात्र से ही पर्यावरण में सकारात्मकता फैल जाती है। इनकी उपस्थिति से हमारा जीवन संभल पाता है। ये समुदाय बुंदेलखंड से लेकर, निमाड़, मालवा का क्षेत्र, खंडवा, बघेलखंड और ठेठ छत्तीसगढ़ के कोने कोने की यात्रा करते हैं। इनको छत्तीसगढ़ में बसदेवा भी कहा जाता है। इनका जीवन सामान्य किंतु जीवन संदेश बहुत ऊंचे होते हैं।

इस पूरे वाक्य में जो डरावना पक्ष है। कि ये अंतिम पीढ़ी है। जो यह कार्य कर रहा है। पेड़ों से दीवार पर आय। दीवार से फेरी और उसके बाद यह लुप्त हो जाएगा। यह लोग केवल लोक कलाकार नहीं है। बल्कि हमारी जीवन ध्वनियां हैं। यह समुदाय बकाया समुदाय को भरोसा देता है। या यूं कहें जीवन को रिचार्ज करता है।

किसी भी समाज की आपस की गांठ उसके अपने सामाजिक मूल्य होते है। जो उस समाज में दरार आने से रोकते हैं। इन मूल्यों को बनाने में बसदेवा या हरबोला जैसे समुदाय की बड़ी भूमिका होती है। ये मूल्य जब कमजोर पड़ते हैं तभी समाज में विचलन आता है। हमारी सामाजिक पटल अगर रंग बिरंगी और मजबूत दिखाई पड़ती है तो इन्हीं हरबोला जैसे समुदाय की वजह से। यह मूल्य किसी किताब से पढ़कर, स्कूल - कॉलेज या किसी की डांट फटकार से नहीं सीखे जाते। बल्कि इन को आत्मसात करने की एक लंबी प्रक्रिया होती है। इस प्रक्रिया में इन्हीं समूहों का योगदान है।

हम अक्सर इतिहास को एक ही दृष्टि से देखना चाहते हैं। जबकि जिस समाज के लिए इतिहास लिखा जाता है। वो समाज बहुत से शेड्स में बटा होता है। उस शेड्स में भी बहुत से अलग-अलग रंग रहते हैं। जैसे इंद्रधनुष में बहुत से ब्लॉक हैं। हर ब्लॉक भी बहुत से रंगों में बटा हुआ है। मूल इतिहास समाज को मूल शेड्स के बारे में बात करता है। जबकि यह लोग समाज के उसी शेड्स के दूसरे रंगों के बारे में बताते हैं।

सुभद्रा कुमारी चौहान ने लिखा हैं
'बुंदेले हरबोलों मुंह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी'

अपनी कविता के जरिए उन्होंने बुंदेलखंड के रहने वाले हरबोला समुदाय का बताया है कि लक्ष्मीबाई की वीरता उसके जीवन की गाथा हमने हरबोलों के मुख से सुनी है।
ये लोग मूल इतिहास के विरोधी नहीं हैं। और न ही उस इतिहास के पूरक हैं। बल्कि यह लोग इतिहास को एक अलग नजरिए से देखने की दृष्टि देते हैं। इस मायने में यह इतिहास की अपनी व्याख्या देते हैं। इसको अलग इतिहास मान लेना भी सही नहीं है। जैसे जीवन के अलग-अलग नजरिए होते हैं। ऐसी ही इतिहास के भी अलग-अलग दृष्टिकोण होते हैं।

इस इतिहास के साथ में बड़ी बात यह है कि यह किसी थ्योरी या सिद्धांत का मोहताज नहीं है। बल्कि उस व्यक्ति या लोक के साथ में जुड़ा है और अंत में उसी लोक में समा जाता है। इनके इतिहास में केवल इतिहास की घटना नहीं है बल्कि उस घटना की समग्रता है। जिसमें उस व्यक्ति की संस्कृति वहां के धार्मिक मान्यताएं उसके संस्कार और कुदरत से नाता अहम भूमिका निभाते हैं।

सभ्यता के बहुत से पैमाने होते हैं। बहुत से तकनीकी पक्ष होते हैं। किंतु उसका एक अहम पक्ष उसकी स्मृति होता है। उसकी मिट्टी में उसके पुरखों की कितनी खुशबू अभी बाकी है। इससे न केवल उनका वर्तमान का पता चलता है बल्कि उनके भविष्य की रूपरेखा भी स्पष्ट होती है। किसी भी सभ्यता को गढ़ने में उसके हजारों वर्षों की मान्यताएं, परंपराएं और विश्वास केंद्रीय भूमिका निभाते हैं। किसी भी समुदाय का सामाजिक पटल इन्हीं से तय होता है। अर्थव्यवस्था के सिद्धांत या विकास के मॉडल से सामाजिक पटल नहीं बनता है।

आज किसी भी राज्य सरकार के पास इनको लेकर कोई दृष्टि नहीं हैं। जैसे ही कोई सरकार कोई कार्यक्रम बनाती है वैसे ही उस सरकार से जुड़े तमाम सरकारी और गैर सरकारी संगठन अपनी रोजी-रोटी की तलाश शुरू कर देते हैं। उस काम में उस समुदाय पर तो मुश्किल से 5 फ़ीसदी खर्च होता है। शेष बची 95 फ़ीसदी राशि इन संगठनों के पदाधिकारियों के डकार में चली जाती है।

हमें ध्यान रखना चाहिए पेड़ से अगर यह आवाज गायब हुई। तो न मुंबईया कलाकार ला पाएगा, न आंखों की त्योरियां चढ़ा चढ़ा कर कविता पाठ करने वाला वह व्यक्ति और न ही सरकारी संगठनों की चाटुकारिता करके स्कॉलरशिप पाया व्यक्ति ला पाएगा।
स्कॉलर एवम एक्टिविस्ट


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