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अब अरुंधति रॉय के खिलाफ मामला

13 साल पुराने एक मामले को लेकर दिल्ली पुलिस प्रसिद्ध लेखिका अरुंधति रॉय के खिलाफ मुकदमा चलाने जा रही है

अब अरुंधति रॉय के खिलाफ मामला
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13 साल पुराने एक मामले को लेकर दिल्ली पुलिस प्रसिद्ध लेखिका अरुंधति रॉय के खिलाफ मुकदमा चलाने जा रही है। दिल्ली के उपराज्यपाल विवेक सक्सेना ने इसके लिये अनुमति देकर यह साफ कर दिया है कि ऐसे सारे तमाम बुद्धिजीवी, लेखक व पत्रकार सरकार से बच नहीं सकते अगर वे उसके आलोचक हैं। उनसे गर सवाल करते हैं। भारत की जेलों में अनेक ऐसे लोग पहले से ही या तो बन्द हैं या किसी न किसी जांच एजेंसी की पूछताछ का सामना कर रहे हैं। अब प्रतिष्ठित लेखिका का नंबर आया हुआ दिखता है। उपराज्यपाल कार्यालय ने मंगलवार को सूचित किया है कि 2010 के एक भड़काऊ भाषणों से संबंधित एक मामले में लेखक-एक्टिविस्ट अरुंधति रॉय तथा एक पूर्व कश्मीरी प्रो. शेख शौकत हुसैन के खिलाफ मुकदमा चलाने की मंजूरी दी गई है।

रॉय तथा पूर्व प्रोफेसर के खिलाफ उक्त एफआईआर दिल्ली की मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट की अदालत के आदेश के बाद दर्ज हुई थी। यहां के तिलक मार्ग थाने में यह शिकायत कश्मीर के एक सामाजिक कार्यकर्ता सुशील पंडित ने 28 अक्टूबर, 2010 को दर्ज कराई थी। उनके अनुसार उसी साल 21 अक्टूबर को 'कमेटी फॉर रिलीज ऑफ पॉलिटिकल प्रिज़नर्स' के तत्वावधान में 'आज़ादी' नामक सम्मेलन में कुछ वक्ताओं ने भड़काऊ भाषण दिए थे। सम्मेलन में और भी ऐसे मुद्दों पर चर्चा की गई थी जिनका लक्ष्य कश्मीर को भारत से अलग करना था। यह भी आरोप था कि इन कथित भड़काऊ भाषणों से सार्वजनिक शांति और सुरक्षा खतरे में पड़ गई थी। उल्लेखनीय है कि मामले में दो और आरोपी कश्मीरी अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी और दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक सैयद अब्दुल रहमान गिलानी भी थे जिनकी मामले की सुनवाई के दौरान मौत हो चुकी है। उपराज्यपाल कार्यालय के मुताबिक रॉय और हुसैन के खिलाफ प्रथम दृष्टया आईपीसी की धाराओं 153ए, 153बी और 505 के तहत अपराध का मामला बनता है।

अनेक प्रसिद्ध पुस्तकों की लेखिका एवं बुकर पुरस्कार से सम्मानित अरुंधति रॉय व अन्य वक्ताओँ के भाषणों के मेरिट पर तो कोर्ट गौर फरमायेगा लेकिन अगर यह मान भी लिया जाये कि उन्होंने ऐसा कहा है, तो भी सच यह है कि यह मामला एक तरह से लोग भूल चुके थे। सम्भवत: आरोपी वक्तागण भी भूल गये रहे होंगे। फिर, इन भाषणों के कारण अगर देश की शांति व सुरक्षा को किसी भी तरह से खतरा होना होता तो वह अब तक हो चुका होता और देश उसका खामियाजा भी भुगत चुका होता। इस बयान से न तो देश में कहीं शांति-व्यवस्था का मसला उठा और न ही इन बयानों से कश्मीर को भारत से अलग होने की कोई प्रेरणा मिली। उल्टे, अब तो भारत सरकार द्वारा जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद-370 को समाप्त किए हुए चार साल से भी अधिक का समय हो चुका है। सरकार का दावा है कि वहां अब पूरी तरह से शांति है तो फिर शांति व सुरक्षा का मामला उठता ही कहां है? दूसरे, अगर ये बयान इतने ही खतरनाक एवं देश की एकता व अखंडता के लिये खतरा थे, तो उसका परीक्षण करने में सवा दशक से भी ज्यादा समय क्यों लगा? इसका सीधा सा अर्थ यह है कि मामला इतना गम्भीर है नहीं, उसे वैसा गम्भीर बतलाने व बनाने की यह कोशिश है। क्या सरकार को यह जानने में इतना समय लगा कि बयान खतरनाक है या नहीं? जो आरोप लगाये गये हैं वे इतने गम्भीर हैं कि इतने दिनों में तो उसका फैसला हो जाना चाहिये था। अगर सजा सुना भी दी जाती तो अब तक आरोपी सजा काटकर जेल की सींखचों से बाहर भी आ चुके होते।

जाहिर है कि देश में पिछले कुछ समय से प्रतिरोध के स्वर को दबाने के जो प्रयास हो रहे हैं, उसी की एक श्रृंखला के रूप में इसे देखा जाना चाहिये। जिस प्रकार से जनसामान्य की बात कहने या सरकार का विरोध करने के कारण वरवरा राव, सुधा भारद्वाज, गौतम नवलखा, वर्नन गोंजाल्विस, अरूण फरेरा, प्रो. जीएन साईंबाबा, सोनी सोरी, तीस्ता सीतलवाड आदि को जेलों में डाला जाता है, वैसे ही अब अरुंधति रॉय को डालने की तैयारी दिखती है। पत्रकार सिद्दीक कप्पन से लेकर हाल ही में 'न्यूज़क्लिक' के संस्थापक सम्पादक प्रवीर पुरकायस्थ की हुई गिरफ्तारी व उन्हें लम्बी हिरासत में भेजना उसी कहानी का प्रकारांतर से दोहराव है। जिनकी किस्मत अच्छी होती है उन्हें जमानत मिल जाती है, शेष या तो स्टेन स्वामी की तरह जेलों में एक स्ट्रा के लिये तरसते हुए मारे जाते हैं या फिर गौरी लंकेश की भांति अतिवादियों के हाथों मारे जाते हैं।

ये ही वे कारण हैं जिनके चलते आज भारत विभिन्न देशों में मानवाधिकारों के मामलों में काफी पिछड़ा हुआ है। यहां हो रहे मानवाधिकारों के हनन की गूंज पूरी दुनिया में जा रही है। भारत में जिस उदार विमर्श की परम्परा रही है, उसका पूरी तरह से लोप होता हुआ दिख रहा है। अरुंधति रॉय को पूरी दुनिया में बड़े सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। अपने प्रसिद्ध उपन्यास 'गॉड ऑफ स्मॉल थिग्स' के लिये पुरस्कार स्वरूप मिली राशि जनांदोलनों को दान करने वाली सुश्री रॉय अपने लेखों से व्यवस्था की खामियों को लगातार उजागर करती हैं जो सत्ता की नाराजगी का कारण बनता है। गम्भीर साहित्य के साथ सामयिक विषयों पर उनके लेखों को भारत ही नहीं, विश्व भर में उत्सुकता से पढ़ा जाता है। कश्मीर का मसला लम्बे समय से चर्चा में रहा है। उस पर अगर कोई अपने विचार रखता है तो सरकार को अपना पक्ष रखना चाहिये। ढूंढ़-ढूंढ़कर मुकदमे चलाना हास्यास्पद ही है।


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