नीति आयोग प्रभावी भूमिका निभाने में पूरी तरह विफल
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नौ साल पहले पदभार ग्रहण करने के तुरंत बाद जो पहला काम किया

- कल्याणी शंकर
नीति आयोग को एक मजबूत संस्था के रूप में उभरने की आवश्यकता है। यदि वह अधिक प्रभावी होना चाहता है, तो उसे गैर-भाजपा मुख्यमंत्रियों का विश्वास जीतने और उनकी सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करने की आवश्यकता होगी। तभी एक मजबूत केंद्र और मजबूत राज्यों का उदय होगा।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नौ साल पहले पदभार ग्रहण करने के तुरंत बाद जो पहला काम किया, वह था 65 साल की विरासत वाले योजना आयोग को भंग करना और जनवरी 2015 में नीति आयोग की स्थापना करना। गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में पहले भी,मोदी के पास केंद्र-राज्य संबंधों और आर्थिक सुधार के लिए कुछ दृढ़ विचार थे। उन्होंने उम्मीद जताई थी कि नीति आयोग इस रिश्ते को और मजबूत करेगा।
परन्तु मोदी को अभी भी गैर-भाजपा शासित राज्यों के विरोध का सामना करना पड़ रहा है। वे अपने राजनीतिक मतभेदों के कारण उनके खिलाफ जोरदार नाराजगी प्रकट करते रहे हैं। मिलकर विरोध करने वालों में नये मुख्यमंत्री शामिल हो रहे हैं जिसके कारण गैर-भाजपा विरोधी मुख्यमंत्रियों का क्लब दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है।
इसमें आश्चर्य नहीं कि एक दबाव समूह के रूप में कार्य करते हुए कुछ गैर-भाजपा मुख्यमंत्रियों ने शनिवार को पीएम द्वारा संबोधित नीति आयोग की बैठक का बहिष्कार किया। सम्मेलन का विषय था - 'विकसित भारत-2047 टीम इंडिया की भूमिका'। ये मुख्यमंत्री सत्र के लिए पहचाने गये 100 मुद्दों पर चर्चा में भाग ले सकते थे, पर इसके बजाय, वे बैठक से दूर रहे।
उन्नीस विपक्षी दलों ने भी 28 मई को नये संसद भवन के उद्घाटन का बहिष्कार किया। उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को यह सम्मान मिलना चाहिए न कि मोदी को। बहिष्कार करने वालों में ममता बनर्जी (पश्चिम बंगाल), अरविंद केजरीवाल (दिल्ली), अशोक गहलोत (राजस्थान), के. चंद्रशेखर राव (तेलंगाना), भगवंत मान (पंजाब), नीतीश कुमार (बिहार), एम.के.स्टालिन (तमिलनाडु), पिनाराईविजयन (केरल), और नवीन पटनायक (ओडिशा) शामिल थे।
अंतिम नाम एक आश्चर्यजनक जोड़ था क्योंकि पटनायक काफी समय से कांग्रेस और भाजपा दोनों से समान दूरी बनाये हुए हैं। कहा जाता है कि वह इस बात से नाराज थे कि ओडिशा की रहने वाली राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को नई संसद के उदघाटन के लिए आमंत्रित नहीं किया गया था। के.सी. राव पिछले साल भी नीति आयोग की बैठक में शामिल नहीं हुए थे। केंद्र के साथ चल रही लड़ाई के बाद, उन्होंने दावा किया, 'मुख्यमंत्रियों को बोलने के लिए पर्याप्त समय नहीं मिलता है, और कुछ मिनटों के बाद, घंटी बजती है कि आपको अब रुक जाना चाहिए।'
ममता बनर्जी नीति आयोग के बजाय योजना आयोग का पुनरुद्धार चाहती हैं, और जिन्होंने नीति आयोग को 'पेपर टाइगर' कहा। अन्य मुख्यमंत्रियों ने अपनी अनुपस्थिति के लिए कुछ बहाने दिये, जैसे पूर्व की व्यस्तताएं। यह स्पष्ट था कि उन्होंने मिलकर नीति आयोग की बैठक का बहिष्कार किया
ऐसा बहिष्कार पहली बार नहीं हुआ है। इंदिरा गांधी के दौर में भी आंध्र प्रदेश के दिवंगत मुख्यमंत्री एन.टी.रामाराव केंद्र के विरोध में राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक से बहिर्गमन कर गये थे। दिग्गज दिवंगत वामपंथी नेता ज्योति बसु, रामकृष्ण हेगड़े और कई अन्य भी राष्ट्रीय विकास परिषद (एनडीसी) की बैठकों से बाहर चले गये थे। तमिलनाडु की दिवंगत मुख्यमंत्री जे. जयललिता ने योजना आयोग की बैठक छोड़ दी थी यह कहते हुए कि उन्हें पर्याप्त समय की दिये जाने की आवश्यकता है।
जहां तक शनिवार की नीति आयोग की बैठक के बहिष्कार का मामला है, सवाल उठता है कि क्या मुख्यमंत्रियों को इसका बहिष्कार कर अपना गुस्सा दिखाना चाहिए था या उन्हें इसमें शामिल होकर अपनी गलतफहमी स्पष्ट करनी चाहिए थी? वे बैठक में शामिल हो सकते थे और अपनी शिकायतें या काले झंडे पहन सकते थे। आखिरकार, यह अन्य मुख्यमंत्रियों और केंद्र के साथ बातचीत का एक मंच था।
भाजपा विपक्ष द्वारा नीति आयोग की बैठक और नये संसद भवन के उद्घाटन समारोह के बहिष्कार को विपक्ष की 'मोदी से नफरत' के हिस्से के रूप में देखती है।
नीति आयोग और उसके पूर्ववर्ती योजना आयोग की प्रासंगिकता को लेकर कई सवाल उठे हैं। जहां एक ओर योजना आयोग को एक सफेद हाथी के रूप में देखा गया था, नीति आयोग को एक दंतविहीन संस्था के रूप में देखा जाता है।
योजना आयोग के दो प्राथमिक कर्तव्य थे- पंचवर्षीय योजना का कार्यान्वयन और राज्यों को वित्त प्रदान करने के लिए फार्मूला प्रदान करना।
नीति आयोग को कोई संवैधानिक या वैधानिक मंजूरी नहीं है। इसका घोषित उद्देश्य एक गतिशील और मजबूत राष्ट्र का निर्माण करना है। योजना आयोग के विपरीत, इसकी कोई वित्तीय भूमिका नहीं है। यह मुख्य रूप से देश का प्रमुख थिंक टैंक है। नीति आयोग के दो हब हैं-'टीम इंडिया हब' और 'नॉलेज एंड इनोवेशन हब'।
भारत सरकार के लिए दीर्घकालिक रणनीतिक योजनाएं विकसित करने के अलावा आयोग एक संघीय सहकारी संरचना का समर्थन करता है। आलोचकों का कहना है कि इसे केवल नीतियों की सिफारिशों पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय कार्यान्वयन पर ध्यान देना चाहिए।
भारत एक प्रमुख वैश्विक अर्थव्यवस्था के रूप में उभरा है। आयोग एक असमान समाज को आधुनिक अर्थव्यवस्था में बदलने में असमर्थ होगा। यह सार्वजनिक या निजी निवेश या नीति निर्धारण को प्रभावित नहीं कर सकता है। इसे विशिष्ट प्रश्नों का उत्तर देने की आवश्यकता है जैसे 90फीसदी कर्मचारी असंगठित क्षेत्र में क्यों हैं?
आयोग को एक अधिक मजबूत संगठन के रूप में विकसित होना चाहिए। इसे राज्यों का भरोसा चाहिए, खासकर गैर-भाजपा मुख्यमंत्रियों से। सहकारी संघवाद की सफलता सुनिश्चित करने के लिए एक सक्रिय सहयोग की आवश्यकता होगी।
यह एक आश्चर्य की बात है कि कोविड काल के दौरान राज्यों के बीच स्वस्थ प्रतिस्पर्धा थी जिसने अच्छा काम किया। प्रधानमंत्री ने ज़ूम सम्मेलन आयोजित किये और मुख्यमंत्रियों को महामारी राहत में शामिल किया। हालांकि, बाद में गैर-भाजपा मुख्यमंत्रियों ने केन्द्र के प्रति सौतेली माँ जैसे व्यवहार की करने की शिकायत की।
कुल मिलाकर नीति आयोग को एक मजबूत संस्था के रूप में उभरने की आवश्यकता है। यदि वह अधिक प्रभावी होना चाहता है, तो उसे गैर-भाजपा मुख्यमंत्रियों का विश्वास जीतने और उनकी सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करने की आवश्यकता होगी। तभी एक मजबूत केंद्र और मजबूत राज्यों का उदय होगा।


