जलवायु परिवर्तन से लड़ने में स्कूली बच्चों को साथ लेता भारत
भारत के कई स्कूलों में कक्षा पहली से दसवीं के छात्रों को जलवायु शिक्षा दी जा रही है. इसके जरिए छात्रों को जलवायु परिवर्तन के कारण, प्रभाव और निपटने का तरीका बताया जा रहा है

भारत के कई स्कूलों में कक्षा पहली से दसवीं के छात्रों को जलवायु शिक्षा दी जा रही है. इसके जरिए छात्रों को जलवायु परिवर्तन के कारण, प्रभाव और निपटने का तरीका बताया जा रहा है.
दिल्ली से सटे फरीदाबाद के छांयसा माध्यमिक सरकारी विद्यालय में सातवीं क्लास का छात्र रजा खान कहता है कि पर्यावरण को बचाने के लिए छोटी से छोटी कोशिश भी मायने रखती है. हवा बहुत प्रदूषित हो चुकी है. प्रदूषण शहरों से होते हुए गांवों तक पहुंच गया है. बड़ी संख्या में पेड़ काटे जा रहे हैं. यह मानते हुए भी रजा ध्यान दिलाता है कि "हमारे स्कूल में इको-फ्रेंडली लाइब्रेरी है. यहां पर्यावरण से संबंधित कई किताबें हैं. लाइब्रेरी में बांस की कुर्सियां रखी हैं, जिन्हे लोकल कारीगरों ने बनाया है. पर्यावरण को बचाने के लिए हमारा एक छोटा कदम भी महत्वपूर्ण होता है, जैसे घर से बाहर निकलते समय बिजली बंद करना और पौधे लगाना."
उसके स्कूल में बच्चे वर्टिकल गार्डनिंग सीख रहे हैं. वे घर पर पड़ी प्लास्टिक बोतलों को रंगकर लाते हैं. सब मिलकर मिट्टी भरते हैं. उसमे पौधा लगाकर, इन बोतलों को जूट की रस्सी पर टांग दिया जाता है. यह कोई कला की कक्षा नहीं, बल्कि जलवायु शिक्षा का हिस्सा है. इसी स्कूल के शिक्षक आकाश महतो बताते हैं कि अब तक जलवायु परिवर्तन केवल साइंस विषय की किताब के माध्यम से छात्रों को पढ़ाया जाता था. लेकिन अब इसे समग्र शिक्षा का हिस्सा बनाया जाना चाहिए. छात्र इस विषय को नंबर लाने के लिए नहीं पढ़ते बल्कि वे पर्यावरण की इज्जत करना सीखते हैं.
आकाश महतो डीडब्ल्यू से बातचीत में कहते हैं, "हम छात्रों को पढ़ाई के साथ रचनात्मक तरीकों से जलवायु परिवर्तन के बारे में समझाते हैं. उनसे पोस्टर और वॉल पेंटिंग बनवाते हैं. ग्रीनहाउस, नेट जीरो और ग्लोबल वार्मिंग पर डिस्कशन होता है. जलवायु शिक्षा छात्रों को भविष्य के लिए जिम्मेदार नागरिक बनाती है. वे अब प्लास्टिक की जगह स्टील की बोतल लाने लगे हैं. गीला और सूखा कचरा अलग-अलग डस्टबिन में डालते हैं."
दरअसल भारत में स्कूलों के पाठ्यक्रम में अब जलवायु और पर्यावरण से जुड़े विषयों को शामिल किया जा रहा है. इसी वर्ष तमिलनाडु सरकार ने जलवायु साक्षरता को बढ़ाने के लिए 24 करोड़ रुपये का विशेष बजट घोषित किया. कुछ अन्य राज्य भी इस दिशा में काम कर रहे हैं. ईको-क्लब के माध्यम से छात्रों में पर्यावरण के प्रति जागरूकता बढ़ाई जा रही है. इसके लिए गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) का सहयोग भी लिया गया है.
रेमन मैग्सेसे अवॉर्ड पाने वाला पहला भारतीय एनजीओ बना ‘एजुकेट गर्ल्स’
क्यों जरुरी है जलवायु शिक्षा?
वर्तमान समय में पर्यावरण से जुड़ी चुनौतियां गंभीर रूप ले चुकी हैं. बढ़ता तापमान, जल संकट और प्रदूषण ने पर्यावरण पर गहरा और व्यापक प्रभाव डाला है. पिछले वर्ष 2024 में चरम जलवायु घटनाओं के कारण 85 देशों में कम से कम 24 करोड़ छात्रों की पढ़ाई प्रभावित हुई.
संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (यूएनएफपीए) के मुताबिक, अगले दस वर्षों में भारत में दुनिया की सबसे बड़ी युवा आबादी होगी. यही युवा जलवायु परिवर्तन के विनाशकारी प्रभावों का सबसे ज्यादा सामना करेंगे. इसलिए जरुरी है कि उन्हें बदलाव लाने के लिए तैयार किया जाए.
लेकिन यूनेस्को की रिपोर्ट, 'गेटिंग एव्री स्कूल क्लाइमेट रेडी,' से पता चलता है कि दुनिया के आधे से भी ज्यादा देशों के पाठ्यक्रम में जलवायु परिवर्तन का जिक्र तक नहीं है. शिक्षक मानते हैं कि जलवायु शिक्षा महत्वपूर्ण है. मगर इसे प्रभावी ढंग से पढ़ाने के लिए उनके पास पर्याप्त प्रशिक्षण नहीं है. हालांकि कुछ देशों जैसे इंडोनेशिया, कंबोडिया, इटली,और पुर्तगाल में जलवायु शिक्षा के लिए बजट और योजनाएं हैं.
भारत भी गंभीरता को समझता है. वह दुनिया के उन गिने-चुने देशों में शामिल है जहां जलवायु शिक्षा को औपचारिक रूप से शिक्षा प्रणाली में शामिल किया गया है. राष्ट्रीय शिक्षा नीति (2020) और राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा (2023) के तहत स्कूलों में पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन जैसे विषयों को पाठ्यक्रम में शामिल करने पर जोर दिया गया है.
हर वर्ग को शामिल करना जरुरी
ग्रीन पेंसिल फाउंडेशन के संस्थापक सैंडी खांडा कहते हैं कि अक्सर सरकारी स्कूलों में आने वाले छात्रों के घर में एयर प्यूरीफायर नहीं होता, न ही वे प्राइवेट वैन या कार से आते हैं जिससे उनका प्रदूषित हवा के संपर्क कम हो सके इसलिए उन्हें जागरूक करना जरूरी है.
सैंडी खांडा डीडब्ल्यू से कहते हैं, "हमें पता चला कि वायु प्रदूषण से फरीदाबाद के सेक्टर 29 के सरकारी स्कूल में एक लड़की को अस्थमा हो गया. वह एक महीने से स्कूल नहीं आ रही. एक अन्य लड़की को हार्मोनल समस्या हुई, जिससे उसके पीरियड्स प्रभावित हुए. इन बच्चों को पता होना चाहिए कि एन-95 मास्क पहनना है. खराब हवा में घर पर रहकर पढ़ाई करनी चाहिए. वे एरिका पाम जैसे पौधे लगाकर हवा साफ कर सकते हैं. बच्चे अब घर जाकर अपने माता-पिता को भी समझा रहे हैं. पहले यह समस्या दिखती नहीं थी, लेकिन अब परिवारों को समझ आ रहा है कि यह स्वास्थ्य पर असर डालता है."
पाठ्यक्रम में जलवायु शिक्षा को शामिल करना छात्रों को जलवायु परिवर्तन की जटिलताओं को समझने और उन्हें सुलझाने के उपाय खोजने में मदद करने का एक प्रभावशाली तरीका हो सकता है. खांडा बताते हैं, "चर्चा करने से छात्र समाधान खोजने की प्रक्रिया में सक्रिय रूप से शामिल होते हैं. जहां समस्याएं होती हैं, वहां उन्हें सुलझाने वाले लोग भी चाहिए. इससे बच्चों के लिए भविष्य में नए अवसर भी बनते हैं."
छात्रों के व्यवहार में दिखाई देता है बदलाव
दुर्गेश गुप्ता का ग्रीन यात्रा ट्रस्ट महाराष्ट्र, गुजरात और दिल्ली में नगरपालिका और ग्राम पंचायत के साथ मिलकर काम करता है. वह स्कूलों में ग्रीन समिति, किचन गार्डन, बर्ड हाउस और क्रिएटिव वर्कशॉप के जरिए पर्यावरण संरक्षण सिखाते हैं.
दुर्गेश डीडब्ल्यू को बताते हैं, "हम छात्रों को पानी बचाने के बारे में जागरूक करते हैं. छात्रों को सिखाया जाता है कि वे अपने भोजन की मात्रा ठीक से लें, ताकि किसी भी प्रकार की बर्बादी न हो. स्कूल में प्लास्टिक का इस्तेमाल पूरी तरह प्रतिबंधित है. ग्रीन यात्रा ने ठाणे के निंबावली स्थित जिला परिषद स्कूल में सोलर पैनल भी लगवाए हैं.”
ग्रीन यात्रा व्यावहारिक बदलाव को भी ट्रैक करता है. दुर्गेश आगे कहते हैं, "हमने महाराष्ट्र के पालघर जिले के 300 स्कूलों में एक सर्वे किया. इसमें पता चला कि स्कूल से निकलने के बाद भी कई छात्र उन आदतों को अपना रहे हैं. वे निजी वाहन होने के बावजूद दफ्तर जाने के लिए सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल करते हैं. यह दिखाता है कि जलवायु शिक्षा लोगों के व्यवहार और सोच में सकारात्मक बदलाव ला सकती है."
मंत्रालयों के बीच कोऑर्डिनेशन की कमी
इस क्षेत्र में विशेषज्ञों का कहना है कि शिक्षकों को प्रशिक्षण देना प्राथमिकता में शामिल नहीं है. वे पहले से ही काम के बोझ में रहते हैं. हाल ही में दिल्ली सरकार ने प्रदूषण के मद्देनजर सर्वोदय कन्या विद्यालयों में जागरूकता कार्यक्रम की शुरुआत की.
सरकार ने इसके लिए 'अर्थ वॉरियर्स ग्लोबल' नामक अंतरराष्ट्रीय संगठन को जिम्मेदारी सौंपी है. डीडब्ल्यू ने संस्थापक श्वेता बाहरी से बात की. उन्होंने तीन से ग्यारह वर्ष के छात्रों के लिए खास पाठ्यक्रम डिजाइन किया है. इसके लिए शिक्षकों को ट्रेन किया जाता है.
श्वेता बताती हैं, "भारत में जलवायु से जुड़ी शिक्षा का प्रावधान है लेकिन इसे जमीनी स्तर पर ठीक से लागू नहीं किया जा रहा. अगर हम स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली पर्यावरण की पाठ्यक्रम सामग्री देखें, तो वह काफी हद तक अपडेटेड नहीं है. इन विषयों को प्राथमिकता नहीं दी जाती. शिक्षकों को लगातार प्रोत्साहित करते रहना पड़ता है. शिक्षा मंत्रालय और पर्यावरण मंत्रालय तालमेल से काम नहीं करते. दोनों के अपने अलग-अलग अभियान हैं. जिससे कोई प्रभावशाली परिणाम सामने नहीं आ पा रहा."


