नया साल : विपक्ष के लिए कितनी उम्मीदें कितनी चुनौतियां!
2023 कांग्रेस के लिए बड़ी उम्मीदों से शुरू हुआ था

- शकील अख्तर
तीनों राज्यों में तीन एकदम अनजाने चेहरे मुख्यमंत्री बना दिए किसी ने चूं तक नहीं की। ऐसे ही दिल्ली से मंत्रिमंडल बने, विभाग बांटे। लेकिन कांग्रेस में आखिरी आखिरी तक गहलोत और सचिन लड़ते रहे कांग्रेस कुछ नहीं कर सकी। अब जब राजस्थान में भाजपा के नए मंत्रिमंडल में गुर्जरों को एक केबिनेट मंत्री तक नहीं मिला तो पायलट समर्थक कह रहे हैं कि हमें तो गहलोत को हराना था। हरा दिया।
2023 कांग्रेस के लिए बड़ी उम्मीदों से शुरू हुआ था। श्रीनगर में राहुल की सफल भारत जोड़ो यात्रा का समापन हो रहा था। राहुल एक नई छवि के साथ स्थापित हो रहे थे। फिर कर्नाटक की जीत ने उस छवि को और निखार दिया था। इंडिया गठबंधन हुआ। पटना, बंगलुरु, मुबंई तीन बैठकों में विपक्ष के महारथियों के बीच राहुल छाए रहे। ममता बनर्जी जो उनकी सार्वजनिक आलोचना कर चुकी थीं। बंगलुरू में मंच से कह रही थीं हमारे फेवरेट राहुल।
मगर यह राजनीति है यहां छवियां जिस तेजी के साथ उभरती हैं वैसे ही कमजोर भी होती हैं। तीन राज्यों की जीती हुई बाजी को हारने के बाद राहुल फिर सवालों के घेरे में आ गए।
मुख्य सवाल यह है कि राहुल का स्थितियों पर नियंत्रण क्यों नहीं है? आकलन और पूर्वानुमान के मामले में उनकी टीम इतनी कमजोर क्यों है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान में क्षत्रपों को इतनी खुली छुट क्यों दे रखी थी?
राहुल ने नागपुर में कहा कि भाजपा में तानाशाही है। कांग्रेस में कार्यकर्ता की बात सुनी जाती है। ठीक है अगर सुनी जाती है तो नए साल से एक जनवरी 2024 से कांग्रेस मुख्यालय 24 अकबर रोड में राहुल और पार्टी अध्यक्ष खरगे बैठना शुरू कर दें।
भाजपा की तानाशाही एक अलग मुद्दा है। मगर यह कहना कि कांग्रेस में कार्यकर्ता की सुनी जाती है थोड़ी हजम न होने वाली बात है। कार्यकर्ता की सुनी जाती थी इन्दिरा गांधी के समय तक। वे जब भी दिल्ली में होती थीं कार्यकर्ताओं के लिए उनके दरवाजे खुले रहते थे। और जब वे नहीं मिल पाती थीं तो माखनलाल फोतेदार और आर के धवन कार्यकर्ताओं से मिलकर उनकी बात सुनते थे। और यह गारंटी होती थी कि कार्यकर्ता की वह बात इन्दिरा गांधी तक पहुंच जाएगी। कार्यकर्ताओं के दिल से यह नारा निकला था कि- 'आधी रोटी खाएंगे, इन्दिरा को वापस लाएंगे!'
भाजपा की तानाशाही देश पर है तो उसका विरोध है। लेकिन अगर पार्टी के अंदर की बात है तो उससे तो वह और मजबूत हो रही है। तीनों राज्यों में तीन एकदम अनजाने चेहरे मुख्यमंत्री बना दिए किसी ने चूं तक नहीं की। ऐसे ही दिल्ली से मंत्रिमंडल बने, विभाग बांटे। लेकिन कांग्रेस में आखिरी आखिरी तक गहलोत और सचिन लड़ते रहे कांग्रेस कुछ नहीं कर सकी। अब जब राजस्थान में भाजपा के नए मंत्रिमंडल में गुर्जरों को एक केबिनेट मंत्री तक नहीं मिला तो पायलट समर्थक कह रहे हैं कि हमें तो गहलोत को हराना था। हरा दिया। राजस्थान में जैसी गुटबाजी हुई है वैसी कांग्रेस में कभी नहीं हुई। 2018 के चुनाव से पहले यह शुरू हो गई थी। और 2023 हारने के बाद भी यह खत्म नहीं हुई है।
दोषी कौन? सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस नेतृत्व। दोनों को उठाकर साइड करना था। मगर अब भी नहीं किया। मतलब राजस्थान में पार्टी न८ाम की चीज है ही नहीं। जो हैं गहलोत और पायलट ही है? इन्दिरा गांधी ने इसी राजस्थान में मोहनलाल सुखाड़िया, हरिदेव जोशी, शिवचरण माथुर जैसे दिग्ग्जों को हटाया और जगन्नाथ पहाड़िया, बरकत उल्लाह खान को मुख्यमंत्री बनाकर पार्टी की सर्वोच्चता का कड़ा संदेश दिया। गहलोत भूल गए कि उसी समय की उपज वे हैं। पहले इन्दिरा जी ने और फिर राजीव गांधी ने उन्हें आगे बढ़ाया। ऐसे ही सचिन के पिता राजेश पायलट को। क्या राजेश पायलट का कोई राजनीति का बैकग्राउंड था? मगर उन्हें भी इन्दिरा और राजीव गांधी ने तमाम दिग्गजों नटवर सिंह, नवल किशोर शर्मा के सामने आगे बढ़ाया।
राजनीति में पार्टी ही बड़ी होती है। राजस्थान में गहलोत और पायलट ने मध्य प्रदेश में कमलनाथ ने और छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल और टीएस सिंह देव ने यह नहीं समझा और हारे। मगर सिर्फ इन लोग पर दोष रखने से कुछ नहीं होगा। गलती तो पार्टी नेतृत्व की थी। इससे पहले और कई राज्य उत्तराखंड, पंजाब, हरियाणा कांग्रेस ऐसे ही हारी है। मगर जब कांग्रेस वर्किंग कमेटी पार्टी की सर्वोच्च ईकाई की मीटिंग होती है तो समस्या की जड़ तक कोई नहीं पहुंचता और त्वरित इलाज के लिए राहुल से एक और यात्रा की मांग की जाती है। क्या कभी पार्ट टू पार्ट वन की तरह प्रभावी हुआ है? एक इनिंग दोबारा नहीं खेली जा सकती। और फिर जब इतनी सफल यात्रा के बाद वह मध्यप्रदेश और राजस्थान हार गए जहां यात्रा लंबे समय तक रही और कामयाब मानी गई थी तो यह दूसरी यात्रा लोकसभा चुनाव जिताने में कितनी कामयाब होगी?
आज से नया साल शुरू हो गया। राहुल के लिए, कांग्रेस के लिए इस बार कोई कहने को तैयार नहीं है कि-'इक बिरहमन ने कहा है कि यह साल अच्छा है!' साल बुरा नहीं है मगर बहुत चुनौतिपूर्ण है। और इसका मुकाबला केवल और केवल विपक्षी एकता से ही किया जा सकता है। और कोई जुगाड़, फार्मूला कामयाब होने वाला नहीं है। कांग्रेस और विपक्ष याद रखे कि भाजपा और मीडिया सबसे ज्यादा इंडिया गठबंधन के ही पीछे पड़े हैं। रोज उसके बारे में नई नई कहानियां गढ़ते रहते हैं।
क्यों? क्योंकि उन्हें मालूम है कि यह विपक्षी एकता ही प्रधानमंत्री मोदी को हैट्रिक करने से रोक सकती है। अगर चार सौ सीटों के लगभग सीट एडजस्टमेंट हो गया तो इस साल होने वाला लोकसभा चुनाव दिलचस्प हो जाएगा। याद रहे अभी जिन तीन राज्यों में कांग्रेस हारी है वहां उसे चालीस परसेंट वोट मिले हैं। मतलब वोट कांग्रेस के पास या दूसरे राज्यों जैसे पश्चिम बंगाल के 2021 के विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी की टीएमसी को 48 प्रतिशत वोट मिले कम नहीं हैं। इसी तरह जिस उत्तर प्रदेश को विपक्ष के लिए सबसे मुश्किल बताया जा रहा है वहां 2022 विधानसभा में सपा को अकेले 32 प्रतिशत, बसपा को 12 प्रतिशत से ज्यादा, कांग्रेस को ढाई प्रतिशत और आरएलडी को तीन प्रतिशत वोट मिले थे। मतलब लगभग पचास प्रतिशत। जबकि भाजपा को 42 प्रतिशत ही वोट मिले। अब इन 42 प्रतिशत की तुलना कांग्रेस के हाल में हार वाले तीन राज्यों से करें। जहां 40 प्रतिशत वोट लेकर वह हार गई और यहां यूपी में क्योंकि विपक्ष आपस में लड़ रहा था तो भाजपा 42 प्रतिशत पर भी जीत गई। और यह भी याद रखें कि यूपी में ओवेसी की पार्टी, आम आदमी पार्टी जैसी कई अन्य पार्टियां भी चुनाव लड़ रही थीं। जिन्होंने विपक्ष की मुख्य पार्टियों के वोट काटे और भाजपा को फायदा पहुंचाया।
विपक्ष को याद यह रखना है कि भाजपा को 2019 लोकसभा में केवल 37 प्रतिशत ही वोट मिला था। जबकि 2014 में वह 31 प्रतिशत वोट पर ही जीत गई थी। अब अगर सीट शेयरिंग सही होती है तो भाजपा के लिए कुछ प्रतिशत वोट बढ़ा लेने के बावजूद चुनाव जीतना संभव नहीं होगा। हमने विपक्ष के लिए सबसे मुश्किल राज्य माने जाने वाले यूपी का आंकड़ा ऊपर दिया है कि वहां विपक्ष अगर एक होकर लड़ता है तो उसका वोट प्रतिशत 50 से भी ऊपर है। बाकी और राज्यों में तो यूपी से अच्छी कहानी है।
इसलिए 2024 का विपक्ष के पास एक ही मास्टर स्ट्रोक है और वह है ज्यादा से ज्यादा सीटों पर एक के मुकाबले एक उम्मीदवार उताराना। बाकी तो सब दिल बहलाव की बातें हैं उनसे कुछ नहीं होगा!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)


