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एनईपी को नए कानूनी फ्रेमवर्क की जरुरत, वरना यह केवल मार्गदर्शिका बनकर रह जाएगी: सिसोदिया

दिल्ली के शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया के मुताबिक नई शिक्षा नीति को एक नए कानूनी फ्रेमवर्क की जरुरत है

एनईपी को नए कानूनी फ्रेमवर्क की जरुरत, वरना यह केवल मार्गदर्शिका बनकर रह जाएगी: सिसोदिया
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नई दिल्ली। दिल्ली के शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया के मुताबिक नई शिक्षा नीति को एक नए कानूनी फ्रेमवर्क की जरुरत है। अन्यथा नई शिक्षा नीति केवल मार्गदर्शिका बनकर रह जाएगी और कभी व्यवस्था नहीं बन पाएगी। उन्होंने कहा कि तमाम कानूनी बाधाओं को दूर करने और नई शिक्षा नीति के सफल कार्यान्वयन के लिए नए संदर्भ के अनुसार कानून बने। सिसोदिया ने ये बातें गुजरात के गांधी नगर में केंद शिक्षा मंत्रालय द्वारा आयोजित दो दिवसीय 'नेशनल कांफ्रेंस ऑफ स्कूल एजुकेशन मिनिस्टर्स' कांफ्रेंस के दौरान कही। दिल्ली सरकार का भी मानना है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति- 2020 की सिफारिशें बहुत शानदार है और इन सिफारिशों को बेहतर ढंग से अपनाकर देश में शिक्षा का परिशय बदल सकते हैं। हालांकि दिल्ली के शिक्षा मंत्रालय का कहना है कि सभी राज्यों में ऐसे बहुत से नियम व कानून हैं, जो राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के सफल कार्यान्वयन में बांधा बनेंगे।

सिसोदिया ने कहा कि नई शिक्षा नीति के सामने दो बड़ी बाधाएं है। पहली बाधा पुराने चलते आ रहे नियम कानून हैं। आजादी के तुरंत बाद बनाए गए शिक्षा संबंधी कानूनों को अगर बारीकी से देखा जाए तो उनके कई नियम अब नई शिक्षा नीति के कार्यान्वयन में बाधा बनेंगे।

उन्होंने उदाहरण देते हुए बताया कि गुजरात के प्राइमरी एजुकेशन एक्ट 1961 में प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य तो है लेकिन इसकी जिम्मेदारी पेरेंट्स को लेनी होगी। वहीं यहां प्राथमिक शिक्षा के अंतर्गत पहली से सातवीं कक्षा आती है। इस कानून में पाठ्यक्रम, ट्रेनिंग और मूल्यांकन का कोई जि़क्र नहीं है।

इसी तरह 1960 में बना पंजाब में प्राइमरी एजुकेशन कानून भी कुछ ऐसा ही है, जहां पेरेंट्स को बच्चों को स्कूल भेजने के लिए बाध्य किया जा सकता है और न भेजने पर पेरेंट्स पर जुर्माना लग सकता है। उत्तर प्रदेश का 1972 में बना बेसिक शिक्षा एक्ट वहां की एजुकेशन बोर्ड की बात करता है तो 1952 में बना केरल का एजुकेशन एक्ट एडेड स्कूलों को रेग्युलेट करने की बात।

1973 में बना दिल्ली का एजुकेशन एक्ट मुख्यत प्राइवेट स्कूलों की बात करता है और उसमें कॉर्पोरल पनिशमेंट भी सुझाया गया है जो राइट तो एजुकेशन एक्ट 2009 के विपरीत है। उन्होंने कहा कि जब ये कानून बनाए गए थे, उस दौर के लिए ये आवश्यक हो सकते थे लेकिन वर्तमान परि²श्य में ये बाधा के अलावा और कुछ नहीं है। इसलिए नई शिक्षा नीति को सफल बनाने के लिए एक नए कानूनी फ्रेमवर्क की जरुरत है।

सिसोदिया ने कहा कि नई शिक्षा नीति की दूसरी बाधा प्रैक्टिस लेगेसी से संबंधित है। उन्होंने कहा कि हम अपने नीतियों में समावेशी शिक्षा की बात करते है, पर क्या शिक्षक क्लासरूम में पाठ्यक्रम पूरा करने के दौरान इस बात की गारंटी लेता है कि क्लास का हर बच्चा सीख रहा है। क्या हम अपने बीएड पाठ्यक्रम में अपने ट्रेनीज को समावेशी विकास पर वास्तविक रूप से तैयार कर रहे है। उन्होंने कहा कि टीचर एजुकेशन का पैटर्न बदले बिना ये संभव नहीं हो पाएगा। हमें ये भी सुनिश्चित करना होगा कि जब टीचर क्लासरूम में जाए तो वो अपने विषय का मास्टर तो हो ही लेकिन समावेशी विकास उसका बेसिक कैरेक्टर हो।

उन्होंने आगे कहा कि नई शिक्षा नीति में पहले 5 सालों पर सबसे ज्यादा फोकस किया गया है, जो सही भी है। पूरी दुनिया प्रारंभिक बाल्यावस्था से 5वीं तक की शिक्षा को बेहद अहम मानती है। लेकिन देश में पूर्व-प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था खिचड़ी की तरह है, जिसका हर राज्य में अलग स्वरुप है। कहीं नर्सरी से तो कहीं केजी और कहीं पहली से तो कही आंगनबाड़ी से पूर्व प्राथमिक शिक्षा की शुरूआत होती है। वहीं नई शिक्षा नीति फाउंडेशन के लिए पहले 5 वर्षों पर फोकस करता है। ऐसे में हमें एक मॉडल फ्रेमवर्क बनाना होगा जिसे सभी राज्य अपना सकें।


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