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अतीत के गौरव के प्रशंसक पर अंधभक्ति के विरोधी थे नेहरू

पंडित जवाहर लाल नेहरू के बारे में कुछ लोगों की यह धारणा है कि वे भले ही पैदा भारत में हुए हों, चिंतन और रहन-सहन से वे पूरी तरह यूरोपीय थे

अतीत के गौरव के प्रशंसक पर अंधभक्ति के विरोधी थे नेहरू
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- एल. एस. हरदेनिया

नेहरूजी ने पूरा-साहित्य और मिथकों आदि का बहुत गहराई से अध्ययन किया था। अत: वे वेदों के स्वाभाविक प्रशंसक थे। वेदों की चर्चा करते हुए वे कहते हैं कि 'शुरू की अवस्था में आदमी के दिमाग़ ने अपने को किस रूप में प्रकट किया था और वह कैसा अद्भुत दिमाग़ था। वेद शब्द की व्युत्पत्ति व्युद धातु से हुई है जिसका अर्थ जानना है और वेदों का उद्देश्य उस समय की जानकारी को इकठ्ठा कर देना था।

पंडित जवाहर लाल नेहरू के बारे में कुछ लोगों की यह धारणा है कि वे भले ही पैदा भारत में हुए हों, चिंतन और रहन-सहन से वे पूरी तरह यूरोपीय थे। नेहरूजी के बारे में इस तरह की गलत धारणा फैलाने में दक्षिणपंथी विचारों में विश्वास करने वाले संगठनों एवं समूहों की महत्वपूर्ण भूमिका है। दकियानूसी और हिंदुत्ववादी ताकतों ने इस तरह के भ्रम को विस्तार देने में कोई कसर नहीं उठा रखी है। यह बात पूरे विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि इस तरह का भ्रम अज्ञानता अथवा प्रायोजित प्रयासों पर आधारित है। ऐसे तत्व यदि नेहरू जी के विचारों का, उनकी पुस्तकों का, अध्ययन करते तो उनका यह भ्रम दूर हो सकता है।

नेहरू जी ने अनेक किताबें लिखी हैं, जिनके पीछे उनका विराट और गहन अध्ययन था। आजादी के आंदोलन के दौरान उन्हें लंबे समय तक अंग्रेजों की जेलों में रहना पड़ा था। लंबी सजाओं के दौरान उन्होंने खूब पढ़ा और खूब लिखा। भारत की आत्मा को खोजने और उसे पहचानने और आत्मसात करने का गंभीर प्रयास पंडित नेहरू ने किया था। वे भारत के अतीत से, उसकी ऐतिहासिकता से बेहद प्रभावित थे। विस्तृत इतिहास की समुद्र जैसी गहराइयों में उन्होंने कितनी ही बार गोते लगाये। भारत की आत्मा को पहचानने के प्रयासों में उन्होंने वेद, उपनिषद, पुराण, गीता जैसे ग्रंथों और रामायण-महाभारत जैसे महाकाव्यों का विश्लेषण-परक अध्ययन किया। साथ ही उन्होंने इन ग्रन्थों पर भारतीय और विदेशी विद्वानों की टिप्पणियां भी पढ़ीं और उन्हें आत्मसात भी किया।

अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'हिंदुस्तान की कहानी' में वे एक जगह लिखते है: 'पिछली बातों के लिये अंधी-भक्ति बुरी होती है, साथ ही उनके लिए नफ़रत भी उतनी ही बुरी है। इसकी वजह यह है कि इन दोनों में से किसी पर भविष्य की बुनियाद नहीं रखी जा सकती। वर्तमान का और भविष्य का लाजिमी तौर से भूतकाल से जन्म होता है और उन पर उसकी गहरी छाप होती है। इसको भूल जाने के मायने हैं इमारत को बिना बुनियाद के खड़ा करना और कौमी तरक्क़ी की जड़ को ही काट देना। राष्ट्रीयता असल में पिछली तरक्क़ी, परम्परा और अनुभवों की एक समाज के लिए सामूहिक याद है।'

नेहरूजी ने पूरा-साहित्य और मिथकों आदि का बहुत गहराई से अध्ययन किया था। अत: वे वेदों के स्वाभाविक प्रशंसक थे। वेदों की चर्चा करते हुए वे कहते हैं कि 'शुरू की अवस्था में आदमी के दिमाग़ ने अपने को किस रूप में प्रकट किया था और वह कैसा अद्भुत दिमाग़ था। वेद शब्द की व्युत्पत्ति व्युद धातु से हुई है जिसका अर्थ जानना है और वेदों का उद्देश्य उस समय की जानकारी को इकठ्ठा कर देना था। उनमें बहुत सी चीजें मिली-जुली हैं। स्तुतियां हैं और बड़ी ऊंची प्रकृति संबंधी कविताएं हैं। उनमें मूर्तिपूजा नहीं है। देवताओं के मंदिरों की चर्चाएं नहीं हैं जो जीवनी-शक्ति और जिंदगी के लिये इकरार उनमें समाया हुआ है वह गै़रमामूली है। शुरू के वैदिक आर्य लोगों में जिंदगी के लिये उमंग थी, वे आत्मा के सवाल पर ज़्यादा ध्यान नहीं देते थे।'

महाभारत के बारे में नेहरू जी लिखते हैं-'महाकाव्य की हैसियत से रामायण एक बहुत बड़ा ग्रंथ जरूर है और उससे लोगों को बहुत चाव है लेकिन यह महाभारत है जो दरअसल दुनिया की सबसे खास पुस्तकों में से एक है। यह एक विराट कृति है। परंपराओं और कथाओं का और हिंदुस्तान की राजनैतिक और सामाजिक संस्थाओं का यह एक विश्व-कोष है। महाभारत में हिंदुस्तान की बुनियादी एकता पर जोर देने की बहुत निश्चित कोशिश की गई है। महाभारत एक ऐसा बेशकीमती भंडार है कि हमें उसमें बहुत तरह की अनमोल चीजें मिल सकती हैं। यह रंगबिरंगी घनी और गुदगुदाती जिंदगी से भरपूर है। इस मामले में यह हिंदुस्तानी विचारधारा के दूसरे पहलुओं से हटकर है जिसमें तपस्या और जिंदगी से इंकार पर जोर दिया गया है। महाभारत की शिक्षा का सार यदि एक जुमले में कहा जाए तो यह है-दूसरे के लिये तू ऐसी बात न कर जो खुद तुझे अपने लिए पसंद न हो।'

भगवद् गीता के बारे में नेहरू एक प्रसिद्ध विदेशी विद्वान विलियमबाण्डहॅबोल्ट के विचारों को उद्धृत करते हुए कहते है: 'यह सबसे सुंदर और अकेला दार्शनिक काव्य है जो किसी भी जानी हुई भाषा में नहीं मिलता है। बौद्धकाल से पहले जब इसकी रचना हुई तब से लेकर आज तक इसकी लोकप्रियता और प्रभाव नहीं घटा है और आज भी इसके लिये पहले जैसा आकर्षण बना हुआ है। इसके विचारों और फलसफे को हरेक संप्रदाय श्रद्धा से देखता है और अपने-अपने ढंग से इसकी व्याख्या करता है। संकट के समय जब आदमी का दिमाग संदेह से सताया हुआ होता है और अपने फज़र् के बारे में दुविधा उसे दो तरफ़ खींचती है, वह रोशनी और रहनुमायी के लिये गीता की तरफ़ और भी झुकता है क्योंकि यह संकट-काल के लिये लिखी हुई कविता है। चूंकि आज के हिंदुस्तान में मायूसी छाई हुई है और उसके चुपचाप रहने की भी एक हद हो गई है इसलिये फल की आशा किये बिना काम में लगे रहने का संदेश इस समय अत्यधिक प्रासंगिक लगता है। दरअसल गीता का संदेश किसी संप्रदाय या जाति के लिये नहीं है। क्या ब्राह्मण, क्या निम्न जाति, सभी के लिये है। गीता में कहा गया है कि सभी रास्ते मुझ तक आते हैं।'

इसी तरह उपनिषदों के संबंध में नेहरू लिखते है: ''ये छानबीन की, मानसिक साहस की और सत्य की खोज के उत्साह की भावना से भरपूर हैं। यह सही है कि यह सत्य की खोज मौजूदा जमाने के विज्ञान के प्रयोग के तरीकों से नहीं हुई है फिर भी जो तरीक़ा अख्तियार किया गया है उसमें वैज्ञानिक तरीक़े का एक अंश है। हठवाद को दूर कर दिया गया है। उनमें बहुत कुछ ऐसा है जो साधारण है और जिसका आजकल हम लोगों के लिए कोई अर्थ या प्रसंग नहीं है। खास जोर आत्मबोध या आत्मा-परमात्मा के ज्ञान पर दिया गया है। इन दोनों का मूल एक ही बताया गया है। उपनिषदों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इनमें सच्चाई पर बड़ा जोर दिया गया है। सच्चाई की सदा जीत होती है, झूठ की नहीं। सच्चाई के रास्ते से ही हम परमात्मा तक पहुंच सकते हैं। उपनिषदों की यह प्रार्थना मशहूर है 'असत्य से मुझे सत्य की ओर ले चल, अंधकार की ओर से प्रकाश की ओर मुझे ले चल, मृत्यु से मुझे अमरत्व की ओर ले चल।' उपनिषदों में एक सवाल का बहुत अनोखा लेकिन मार्के का जवाब दिया गया है।

सवाल यह है कि यह विश्व क्या है? यह कहां से उत्पन्न होता है? और कहां जाता है? इसका उत्तर है-स्वतंत्रता से इसका जन्म होता है। स्वतंत्रता पर ही यह टिका है औरस्वतंत्रता में ही वह लय हो जाता है। सारे संसार में ऐसी कोई रचना नहीं है जिसका पढ़ना इतना उपयोगी, इतना ऊंचा उठाने वाला हो जितना उपनिषदों का है। वे सबसे ऊंचे ज्ञान की उपज हैं।' प्रसिद्ध पश्चिमी दार्शनिक सोपेनआवर के विचारों को उधृत करते हुए नेहरू कहते हैं- 'उपनिषदों के हर एक शब्द से गहरे मौलिक और ऊंचे विचार उठते हैं और इन सब पर एक ऊंची पवित्र उत्सुक भावना छाई हुई है। उपनिषदों को पढ़ने से मेरी जिंदगी को शांति मिलती है। यही मेरे मौत के समय भी शांति देंगे।'

रामायण के संबंध में नेहरू जी प्रसिद्ध फ्रांसीसी इतिहासकार मिशले के विचारों को उद्धृत करते हुए कहते है: 'जिस किसी ने भी बड़े काम किये हैं या बड़ी आकांक्षाएं की हैं, उसे इस गहरे प्याले से जिंदगी और जवानी की एक लंबी घूंट पीना चाहिए। रामायण मेरे मन का महाकाव्य है। हिंद महासागर जैसा विस्तृत, मंगलमय सूर्य के प्रकाश से चमकता हुआ, जिसमें देवीय संगीत है और कोई बेसुरापन नहीं है। वहां एक गहरी शांति का राज्य है और कशमकश के बीच भी वहां बेहद मिठास और इंतहा दर्जे़ का भाई-चारा है। जो सभी ज़िंदा चीज़ों पर छाया हुआ है। रामायण मोहब्बत, दया, क्षमा का अपार और अथाह समुंदर है।'

नेहरू जी संस्कृत भाषा के बड़े प्रशंसक थे। संस्कृत के संबंध में वे लिखते हैं कि वह 'अद्भुत रूप से सम्पन्न, हरी-भरी और फूलों से लदी हुई भाषा है। फिर भी वह नियमों से बंधी हुई है और 2600 वर्ष पहले व्याकरण का जो चौखटा, पाणिनि ने इसके लिए तैयार कर दिया, वो उसी के भीतर ही चल रही है। ये खूब फैली, खूब सम्पन्न हुई। भरी-पूरी और अलंकृत बनी लेकिन अपने मूल को पकड़े रही।' संस्कृत के संबंध में नेहरू जी एक यूरोपीय विद्वान सर विलियम जोन्स के विचारों को उधृत करते हैं। जोन्स ने 1884 में कहा था संस्कृत भाषा चाहे जितनी पुरानी हो उसका गठन अद्भुत है। यूनानी भाषा के मुकाबले में ज़्यादा मुकम्मिल, लातिनी के मुकाबले में ज़्यादा सम्पन्न और दोनों के मुकाबले में यह ज़्यादा परिष्कृत है।

ये तो कुछ उदाहरण हैं जिनसे नेहरू जी की भारत के गौरवशाली इतिहास के संबंध में प्रशंसनीय विचार जानने को मिलते हैं। वैसे उनकी किताबें (विश्व इतिहास की झलक और मेरी कहानी) और उनके सैंकड़ों व्याख्यान भारत के अतीत की प्रशंसा से भरे पड़े हैं। नेहरू भारत के अतीत के प्रशंसक थे फिर भी उनकी यह मान्यता थी कि अतीत की अंध-भक्ति से भारत का भविष्य उज्ज्वल नहीं हो सकता। इसलिए उनकी यह धारणा थी कि धर्मनिरपेक्ष-वैज्ञानिक समझ के आधार पर आधुनिक भारत की नींव मजबूत करने के लिए भारत के अतीत के उज्ज्वल पक्ष का सहारा लेना चाहिए।

इस तरह सच पूछा जाए तो नेहरू जी ही भारत के अतीत के सर्वाधिक उपयुक्त उत्तराधिकारी हैं। संभवत: इसीलिए उनके विषय में कहा जाता है कि यदि वे राजनीति में नहीं होते तो विश्व-स्तर के इतिहासकार, साहित्यकार या कवि होते। लेकिन इतिहास-संस्कृति और साहित्य के ज्ञाता के लिए मौजूदा आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक सच्चाइयों से विरत रह पाना कहां संभव होता है। नेहरू समस्त सांस्कृतिक-चेतना के साथ स्वतंत्रता आंदोलन और राजनीति में थे। वे नये युग, नये निर्माण और नये भारत के स्वप्न दृष्टा थे। ऐसे स्वप्न दृष्टा जिन्होंने कई स्वप्नों को सच कर दिखाया था। अंत में नेहरू जी का स्मरण मैं शायर शमीम फरहत की 'सत्ताईस मई' (नेहरू जी की मृत्यु की तिथि) शीर्षक की इन पंक्तियों के साथ करना चाहता हूं-

आज एहसासे-ग़म ज़ियादा है,
शम्मे-खामोश में धुआं भी नहीं
इतना खाली-सा लग रहा है जहां,
जैसे अब सर पे आसमां भी नहीं
आज का दिन गुलाब पर बोझल,
आज बच्चों की मुस्कुराहट में
संज़ीदगी झलकती है।


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