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बिहार लोकसभा चुनाव में वाम दलों की सक्रियता से एनडीए चिंतित

बिहार में 2020 के विधानसभा चुनाव में युगांतकारी जीत के बाद, जिसमें सीपीआई (एमएल) लिबरेशन ने उन 16 में से 12 सीटें जीतीं जहां उसके उम्मीदवार चुनाव मैदान में थे

बिहार लोकसभा चुनाव में वाम दलों की सक्रियता से एनडीए चिंतित
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- अरुण श्रीवास्तव

इस साल की चुनावी लड़ाई का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि पहली बार सीपीआई (एमएल) लिबरेशन ने चुनावी लड़ाई में प्रवेश किया है। हालांकि इसके वरिष्ठ नेता रामेश्वर प्रसाद ने 1989 में आरा लोकसभा सीट से जीत हासिल की थी, लेकिन उन्होंने उस समय सीपीआई (एमएल) के जन संगठन इंडियन पीपुल्सफ्रंट के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा था।

बिहार में 2020 के विधानसभा चुनाव में युगांतकारी जीत के बाद, जिसमें सीपीआई (एमएल) लिबरेशन ने उन 16 में से 12 सीटें जीतीं जहां उसके उम्मीदवार चुनाव मैदान में थे। पार्टी इस बार अपने प्रतिनिधियों को लोकसभा में भेजने के लिए काफी आशान्वित है। उस चुनाव में तीन मुख्य वामपंथी दलों ने 29 विधानसभा क्षेत्रों में चुनाव लड़ा और 16 पर जीत हासिल की थी। सीपीआई और सीपीआई (एम) ने क्रमश: जिन छह और चार सीटों पर चुनाव लड़ा था, उनमें से दो-दो पर कब्ज़ा कर लिया।
हालांकि वाम दल राजद के नेतृत्व वाले महागठबंधन में भागीदार थे। सीपीआई (एमएल) -एल के कम से कम दो सीटें जीतने की आशावादिता का कारण यह है कि 2020 में उसने महागठबंधना का घटक दल होने के बावजूद कुछ निर्वाचन क्षेत्रों में राजद उम्मीदवारों के खिलाफ लड़कर जीत हासिल की थी।

हालांकि राजद मुसलमानों और यादवों (एमवाई) का पारंपरिक समर्थन आधार रहा है, सीपीआईएमएल को गरीब यादवों, मुसलमानों और अन्य बेहद गरीब जातियों का भारी समर्थन मिला। इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि इसे गरीबों के इस वर्ग का अडिग विश्वास प्राप्त है।

इस बार सीपीआई (एमएल)-एल ने कम से कम छह सीटों की मांग की थी, लेकिन इंडिया गठबंधन के बड़े भाई लालू यादव अनिच्छुक थे क्योंकि उनकी कुछ अन्य प्रतिबद्धताएं थीं। सीपीआई (एमएल) ने जो सीटें मांगी थीं, वे अंतत: कांग्रेस को सौंप दी गयीं। इनमें से एक सीट थी पूर्णिया। अब चुनाव की घोषणा से बमुश्किल एक हफ्ते पहले जेडीयू से अपनी निष्ठा बदलने वाली राजद की बीमा भारती को कांग्रेस के बागी पप्पू यादव से कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है।

फिर भी सीपीआई (एमएल) को तीन सीटें दी गयीं। वह आरा, नालंदा और काराकाट की तीन लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ रही है। सीपीआई (एमएल) के महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य इन सीटों पर जीत को लेकर आश्वस्त हैं। नालंदा को छोड़कर, दो अन्य सीटों पर सत्तर के दशक की शुरुआत में सीपीआई (एमएल) द्वारा बड़े पैमाने पर किसान लामबंदी देखी गयी थी। भोजपुर का मुख्यालय आरा किसान सशस्त्र संघर्ष के सर्वोच्च क्रम का गवाह रहा है जिसमें सैकड़ों कार्यकर्ता और नेता शामिल थे।
इस साल की चुनावी लड़ाई का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि पहली बार सीपीआई (एमएल) लिबरेशन ने चुनावी लड़ाई में प्रवेश किया है। हालांकि इसके वरिष्ठ नेता रामेश्वर प्रसाद ने 1989 में आरा लोकसभा सीट से जीत हासिल की थी, लेकिन उन्होंने उस समय सीपीआई (एमएल) के जन संगठन इंडियन पीपुल्सफ्रंट के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा था।

काराकाट में, सीपीआई (एमएल) के उम्मीदवार पूर्व विधायक राजाराम सिंह का मुकाबला एनडीए के सहयोगी राष्ट्रीय लोक मोर्चा के नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा से है। इसके अलावा, एआईएमआईएम उम्मीदवार की मौजूदगी से निर्वाचन क्षेत्र में मुस्लिम वोटों का विभाजन हो सकता है।

पुराने समय के सुदामा सिंह, जिन्होंने साठ के दशक के अंत में एक छात्र नेता के रूप में अपना कॅरियर शुरू किया और अब आरा से विधायक हैं, आरा संसदीय क्षेत्र से बिहार के पूर्व गृह सचिव और केंद्रीय मंत्री आरके सिंह का विरोध कर रहे हैं। नालंदा सीट से विधायक संदीप सौरभ भी मैदान में हैं। नालदा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का गृह क्षेत्र है। पार्टी के वरिष्ठ नेता राजाराम सिंह काराकाट लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे हैं। तीनों विधानसभा क्षेत्रों आरा, काराकाट और नालंदा में एक जून को मतदान होगा।

फिर भी सौरभ को जदयू के कौशलेंद्र कुमार से गंभीर चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। इस क्षेत्र में कोइरी और कुर्मियों की सघनता अधिक है। चूंकि कुमार जद(यू) के नीतीश कुमार के उम्मीदवार हैं इसलिए उम्मीद है कि नीतीश की निजी अपील का असर होगा। हालांकि सत्तर और अस्सी के दशक में निर्वाचन क्षेत्र के एक हिस्से में बेलछी और प्रमुख किसान संघर्ष जैसी घटनाएं देखी गयी थीं, इसलिए पार्टी की अपील का असर होगा।

सीट बंटवारे की व्यवस्था के तहत राजद ने बिहार में वामदलों को जो पांच सीटें दी हैं, उनमें से सीपीआई (एम) ने खगड़िया से संजय कुमार सिंह को मैदान में उतारने का फैसला किया है, जबकि सीपीआई ने बेगुसराय से पूर्व विधायक अवधेश राय को टिकट दिया है। भट्टाचार्य को पूरी उम्मीद है कि दोनों पार्टियां अच्छा प्रदर्शन करेंगी और सिंह खगड़िया में एनडीए उम्मीदवार के लिए बड़ी चुनौती बनेंगे।

सीपीआई (एम) के संजय कुमार, जो ओबीसी कुशवाहा समुदाय से हैं, राजद के पारंपरिक एम-वाई वोट बैंक मुसलमानों और यादवों के समर्थन पर भरोसा कर रहे हैं। सीपीआई ने भाजपा उम्मीदवार गिरिराज सिंह को हराने के लिए कड़ी मेहनत की, जिन्होंने भयानक सांप्रदायिक अभियान चलाया और बेगुसराय की सीट वापस जीत ली, जिसे 1950 के दशक के अंत से 1990 के दशक के अंत तक सक्रिय कम्युनिस्ट आंदोलन के कारण 'बिहार का लेनिनग्राद' कहा जाता था।
खगड़िया में तीसरे चरण में 7 मई को मतदान हुआ। यहां लड़ाई कुमार और चिराग पासवान की एलजेपी (रामविलास) उम्मीदवार राजेश वर्मा के बीच थी। एक अन्य कारक जिसने कुमार के पक्ष में काम किया, वह है विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) के नेता मुकेश साहनी का उन्हें समर्थन। वह अब महागठबंधन के साथ हैं। साहनी एक मल्लाह नेता हैं।

लालू द्वारा वामपंथी गुट को वांछित संख्या में सीटें देने से इंकार करना एक रणनीतिक कदम है। सीपीआई (एमएल) राज्य के पूरे उत्तर और पूर्वी हिस्सों में एक प्रमुख राजनीतिक ताकत के रूप में उभरी है। 2020 के विधानसभा चुनाव में इसकी सफलता इस तथ्य को रेखांकित करती है बड़े पैमाने पर राज्य दमन के बाद भी इसे गरीबों का समर्थन और निष्ठा प्राप्त है। सीपीआई (एमएल) और सीपीआई और सीपीआई (एम) के पुनरुत्थान ने बड़े पैमाने पर राजद की छवि को उसके पारंपरिक आधारों में प्रभावित किया होगा।

एक और कारक जिसने लालू को नौ सीटें देने की वामपंथियों की मांग को मानने से रोका, वह है मुस्लिम वोटों के खिसकने का डर। वामपंथियों को दलितों, गरीबों और मुसलमानों, विशेषकर पसमांदा, गरीबों और दलित मुसलमानों की आवाज होने की बेदाग प्रतिष्ठा प्राप्त है। एक बात बिल्कुल स्पष्ट है कि वामपंथी ताकतें लोकसभा चुनाव के बाद एक प्रमुख राजनीतिक ताकत के रूप में पुनर्जीवित होने जा रही हैं। वर्तमान लोकसभा में बिहार से वामपंथियों की कोई मौजूदगी नहीं है। यदि तीन पार्टियां सीपीआई, सीपीआई (एम) और सीपीआई (एमएल)-एल पांच में से तीन सीटें जीत सकती हैं, जिन पर वे चुनाव लड़ रही हैं, तो यह बिहार के वामपंथी परिवर्तन को एक नई गतिशीलता प्रदान करेगी।


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